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रविवार, 9 नवंबर 2014

Killing women on the name of superstition


           

             औरत को मारने के बहाने

                                                                   पंकज चतुर्वेदी
RAJ EXPRESS , BHOPAL, 10-11-14http://epaper.rajexpress.in/epapermain.aspx?edcode=9&eddate=11%2f10%2f2014

जिन दिनों पूरा देश दीपावली की तैयारी कर अपने घर में धनधान्य की देवी को अपने घर बुलाने की तैयारी कर रहा था तो असम में जनजातिय बाहुल्य कार्बी आंगलांग जिले में एक राष्‍ट्रीय स्तर की एथेलेटिक को कुछ लेाग डायन बता कर निर्ममता से पीट रहे थे। कहते हैं कि गांव में कुछ शराबपीने से मर गए और एक युवक ने आत्महत्या कर ली। देवजानी नामक जेवलिन थ्रो की राष्‍ट्रीय स्तर पर स्वर्ण पदक विजेता व भारत का अंतरराष्‍ट्रीय प्रतियोगिता में प्रतिनिधित्व कर चुकी देवजानी को मछली पकड़ने के जाल में बांध कर तब तक पीटा गया, जब तक वह अधमरी नहीं हो गई। देवजानी तीन बच्चों की मां है। असम राज्य में गत पांच सालों के दौरान ऐसे कोई 90 मामले सामने आए हैं जब किसी औरत को डायन बता कर जलाया, गला काटा या प्रताडि़त किया गया हो। एक तरफ संसद में आरक्षण के रथ पर सवार हो कर पहुंचने की लालसा लिए नाचती-कूदती, नारे लगाती महिलांए, दूसरी तरफ ‘देबजानियां’। महिला सशक्तीकरण की तकरीर करने वालों को शायद यह पता भी नहीं हैं कि पूरे देश के कोई आधा दर्जन राज्यों में ऐसे ही हर साल सैंकड़ों औरतों को बर्बर तरीके से मारा जा रहा है । वह भी ‘डायन’ के अंधविश्वास की आड़ में ।
http://www.jansandeshtimes.in/index.php?spgmGal=Uttar_Pradesh/Varanasi/Varanasi/18-11-2014&spgmPic=7 jansandesh times 18-11-14

मध्यप्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचलों में जमीन हदबंदी कानूनों के लचरपन और पंचायती राजनीति के नाम पर शुरू हुईं जातीय दुश्मनियों की परिणति महिलाओं की हत्या के रूप में हो रही है । कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर शासन ने एक जांच रिर्पोट तैयार की है जिसमें बताया गया है कि अंधविश्वास , अझान और अशिक्षा के कारण टोनही या डायन करार दे कर किस तरह निरीह महिलाओं की आदिकालीन लोमहर्षक ढ़ंग से हत्या कर दी जाती है । औरतों को ना केवल जिंदा जलाया जाता है, बल्कि उन्हें गांव में नंगा घुमाना, बाल काट देना, गांव से बाहर निकाल देना जैसे निर्मम कृत्य भी डायन या टोनही के नाम पर होते रहते हैं। इन शर्मनाक घटनाओं का सर्वाधिक अफसोसजनक पहलू यह है कि इन महिला प्रताडनाओं के पीछे ना सिर्फ महिला की प्रेरणा होती है,बल्कि वे इन कुकर्मों में बढ़-चढ़ कर पुरूषों का साथ भी देती हैं ।
राष्‍ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े कहते हैं कि बीेते साल देशभर में 160 औरतें टोनही या डायन बता कर मारी गई। इनमें झारख्ंाड में 54, ओडिशा में 24 तमिलनाडु में 16 आंध््राप्रदेश में 15 और मप्र में 11 मौतें षामिल हैं। आदिवासी बाहुल्य छत्तीसगढ़ राज्य में बेगा, गुनियाओं और ओझाओं के झांसे मंे आ कर पिछले एक दषक में तीन दर्जन से अधिक औरतों को मार डाला गया है । कोई एक दर्जन मामलों में आदमियों को भी ऐसी मौत झेलनी पड़ी है । मरने वालों में बूढ़े लोगों की संख्या ज्यादा है । किसी को जिंदा जलाया गया तो किसी को जीवित ही दफना दिया गया । किसी का सिर धड़ से अलग करा गया तो किसी की आंखें निकाल ली गईं । ये आंकड़े मात्र वही हैं जिनकी सूचना पुलिस तक पहुंची । खुद पुलिस भी मानती है कि दर्ज नहीं हो पाए मामलों की संख्या सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक है । किसी गांव में कोई बीमारी फैले या मवेशी मारे जाएं या फिर किसी प्राकृतिक विपदा की मार हो, आदिवासी इलाकों में इसे ‘टोनही’ का असर मान लिया जाता है । भ्रांति है कि टोनही के बस में बुरी आत्माएं होती हैं, इसी के बूते पर वह गांवों में बुरा कर देती है । ग्रामिणों में ऐसी धारणाएं फैलाने का काम नीम-हकीम, बेगा या गुनिया करते हैं । छत्तीसगढ़ हो या निमाड़, या फिर झारखंड व ओडिषा ; सभी जगह आदिवासियों की अंधश्रद्धा इन झाड़-फंूक वालों में होती है । इन लोगों ने अफवाह उड़ा रखी है कि ‘टोनही’ आधी रात को निर्वस्त्र हो कर शम्सान जाती है और वहीं तंत्र-मंत्र के जरिए बुरी आत्माओं को अपना गुलाम बना लेती है । उनका मानना है कि देवी अवतरण के पांच दिनों- होली,हरेली,दीवाली और चैत्र व शारदीय नवरात्रि के मौके पर ‘टोनही’ सिद्धी प्राप्त करती है । गुनियाओं की मान्यता के प्रति इस इलाके में इतनी अगाध श्रद्धा है कि ‘देवी अवतरण’ की रातों में लोग घर से बाहर निकलना तो दूर, झांकते तक नहीं हैं । गुनियाओं ने लोगों के दिमाग में भर रखा है कि टोनही जिसका बुरा करना चाहती है, उसके घर के आस-पास वह अभिमंत्रित बालों के गुच्छे, तेल, सिंदूर, काली कंघी या हड्डी रख देती है ।
अधिकांश आदिवासी गांवों तक सरकारी स्वास्थ महकमा पहुंच नहीं पाया है । जहां कहीं अस्पताल खुले भी हैं तो कर्मचारी इन पुरातनपंथी वन पुत्रों में अपने प्रति विश्वास नहीं उपजा पाए है । तभी मवेशी मरे या कोई नुकसान हो, गुनिया हर मर्ज की दवा होता है । उधर गुनिया के दांव-पेंच जब नहीं चलते हैं तो वह अपनी साख बचाने कि लिए किसी महिला को टोनही घोषित कर देता है । गुनिया को शराब, मुर्गे, बकरी की भेंट मिलती है; बदले में किसी औरत को पैशाचिक कुकृत्य सहने पड़ते हैं । ऐसी महिला के पूरे कपड़े उतार कर गांव की गलियों में घुमाया जाता है, जहां चारों तरफ से पत्थर बरसते हैं । ऐसे में हंसिए से आंख फोड़ दी जाती है ।
मप्र के झाबुआ-निमाड़ अंचल में भी महिलाओं को इसी तरह मारा जाता है ; हां, नाम जरूर बदल जाता है - डाकन । गांव की किसी औरत के शरीर में ‘माता’ प्रविष्ठ हो जाती है । यही ‘माता’ किसी दूसरी ‘माता’ को डायन घोषित कर देती है । और फिर वही अमानवीय यंत्रणाएं शुरू हो जाती हैं । अकेले झाबुआ जिले में हर साल 10 से 15 ‘डाकनों’ की नृशंस हत्या होती हैं । इसी तरह के अंधविश्‍वास और त्रासदी से झारखंड, ओडिशा, बिहार, बंगाल और असम के जनजातिय इलाके भी ग्रस्त हैं। रूरल लिटिगेशन एंड एंटाइटिलमेंट केंद्र नामक गैरसरकारी संगठन की ओर से सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दे कर डायन-कुप्रथा पर रोक लगाने की मांग की गई थी, जिसे गत 12 मार्च 2010 को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि इस याचिका को हाईकोर्ट में लगाना चाहिए। संस्था ने आकंडे पेश किए कि गत 15 सालों से देश के विभिन्न राज्यों में 2500 से अधिक औरतों को डायन करार दे कर मारा जा चुका है।
ठेठ आदिम परंपराओं में जी रहे आदिवासियों के  इस दृढ़ अंध विश्वास का फायदा इलाके के असरदार लोग बड़ी चालाकी से उठाते है । अपने विरोधी अथवा विधवा-बूढ़ी औरतों की जमीन हड़पने के लिए ये प्रपंच किए जाते हैं । थोड़े से पैसे या शराब के बदौलत गुनिया बिक जाता है और किसी भी महिला को टोनही घोषित कर देता है । अब जिस घर की औरत को ‘दुष्टात्मा’ बता दिया गया हो या निर्वस्त्र कर सरेआम घुमाया गया हो, उसे गांव छोड़ कर भागने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है । कई मौकों पर ऐसे परिवार की बहु-बेटियों के साथ गुनिया या असरदार लोग कुकृत्य करने से बाज नहीं आते हैं । यही नहीं अमानवीय संत्रास से बचने के लिए भी लोग ओझा को घूस देते हैं ।
मप्र शासन की जांच रपट में कई रोंगटे खड़े कर देने वाले हादसों का जिक्र है । लेकिन अब अधिकारी सांसत में हैं कि अनपढ़ आदिवासियों को इन कुप्रथाओं से बचाया कैसे जाए । एक तरफ आदिवासियों के लिए गुनिया-ओझा की बात पत्थर की लकीर होती है, तो दूसरी ओर इन भोले-भाले लोगों के वोटों के ठेकेदार ‘परंपराओं’ में सरकारी दखल पर भृकुटियां तान कर अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं । गुनिया-ओझा का कोप भाजन होने से अशिक्षित आदिवासी ही नहीं, पढ़े-लिखे समाज सुधारक व धर्म प्रचारक भी डरते हैं । तभी इन अंचलों में सामुदायिक स्वास्थ, शिक्षा या धर्म के क्षेत्र में काम कर रहे लोग भी इन कुप्रथाओं पर कभी कुछ खुल कर नहीं बोलते हैं  कारण- गुनिया की नाराजगी मोल ले कर किसी का भी गांव में घुस पाना नामुमकिन ही है । कहने को झारंखंड सरकार ने इस कुप्रथा के खिलाफ एक डोक्यूमेंट्री फिल्म भी बनवाई थी, लेकिन गुनिया-ओझा के डर से उसका सही तरीके से प्रदर्शन भी नहीं हुआ।
मिथ्या धारणाओं से ओतप्रोत जनजातीय लोगों में औरत के प्रति दोयम नज़रिया वास्तव में उनकी समृद्ध परंपराओं का हिस्सा नहीे हैं । यह तो हाल के कुछ वर्षों में उनके बीच बढ़ रहे बाहरी लोगों के दखल और भौतिक सुखों की चाहत से उपजे हीन संस्कारों की हवस मात्र है ।
 

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