My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2015

Remembering words of Gandhi


गांधी के विचारों पर कुठाराघात


1यह बात अलग-अलग मंचों पर-अवसरों पर, राजनेता व स्वयंसेवी लगातार कहते हैं कि गांधी एक व्यक्ति या नाम नहीं, बल्कि जीवन जीने का सिद्धांत है । फिर भी गांधीजी की एक भी समझाइश पर क्रियान्वयन से परहेज किया जाता रहा है। यह बात भी अब खुल कर सामने आ गई है कि अपने आखिरी दिनों में गांधी खुद को उपेक्षित व विरक्त महसूस कर रहे थे। तन्हा गांधी की आत्मा अपने महाप्रयाण के समय तब के सत्ता-शिखरों से बेहद निराश थी। उन्हें लग रहा था कि जिन मूल्यों के लिए वे संघर्ष कर रहे थे वे असल में आम लोगों तक पहुंचे ही नहीं। जिस अहिंसा के नारे को उनहोंने आजादी का मूल मंत्र बनाया था, वह आजादी मिलते ही काफूर हो गया था, विभाजन की घोषणा होते ही पूरे देश में हुआ कत्लेआम इसकी बानगी था। जाहिर है कि गांधीजी को उस समय समझ आ गया था कि उनके अहिंसा, व दीगर संदेश नारे से ज्यादा नहीं हैं। तभी से एक हताश गांधी को हर साल उनके जन्म दिवस पर बार-बार शहीद किया जाता है। ‘‘भारत को आजादी मिल गई, कांग्रेस का काम पूरा हो गया।
अब इसकी जरूरत नहीं है, इसे समाप्त कर देना ही ठीक है। हमारी कांग्रेस सत्ता की भांति हथियारों के बल पर कायम नहीं रह सकेगी। कांगे्रस ने जनता का विश्वास अपने त्याग, और तप के आधार पर संपादित किया है। पर यदि कांगे्रस जनता की सेवक न बन कर उसकी अधीश्वर बने, अथवा मालिक का दर्जा अपना ले तो मैं अपने अनेक वर्षों के अनुभव के आधार पर भविष्यवाणी कर सकता हूं, चाहे मैं जीवित रहूं या न रहूं, एक क्रांति देश में फैल जाएगी और लोग सफेद टोपी वालों का चुन-चुन कर सफाया कर देंगें। उसका फायदा एक तीसरी शक्ति उठाएगी।’’ आजादी के कुछ दिन पहले ही 21 मई 1947 को महात्मा गांधी ने पटना में एक जनसभा को संबोधित करते हुए कोई छह दशक बाद के भारत के हालात का अंदाजा लगा लिया था। कांग्रेस, देश और जनता आज कुछ वैसे ही हालात से रूबरू हैं, जिसकी आशंका गांधी जी को थी। वैसे तो गांधी के शरीर को 30 जनवरी 1948 को गोडसे ने एक ही बार मारा था, लेकिन उसके बाद तो उनकी आत्मा व विचारों की हत्या का दौर शुरू हो गया है। दूरदर्शी गांधी ने कई दशक पहले ही अंदाजा लगा लिया था कि आजाद हिंदुस्तान को धर्म और जाति के नाम पर विवाद झेलने पड़ेंगे। 11 मई 1935 के ‘हरिजन’ के अंक में उनहोंने धार्मिक संकीर्णता पर कुठाराघात करते हुए एक आलेख लिखा था। ‘यदि मेरे हाथ में सत्ता होती और मैं कानून बना सकता तो मैं धर्म परिवर्तन पर रोक लगा देता’। गांधी की विरासत के असली हकदार होने का दावा करने वालों के हाथों सत्ता व कानून की डोर लगभग 50 सालों से है। केंद्र में एक भी सरकार ऐसी नहीं बनी, जिसने राजघाट पर जा कर बापू के संकल्प नहीं दोहराए हों। परंतु पूरे देश में धर्म परिवर्तन धड़ल्ले से हो रहा है और इसके विषम परिणाम जनजातीय इलाकों में सामने भी आ रहे हैं। राजनेता का धर्म जनसेवा होता है, जब वही धर्म परिवर्तन का व्यवसाय करने को उतारू है तो उससे गांधी की आत्मा को सहेजने की क्या उम्मीद की जाए। गांधीजी को गिनी- चुनी चीजों से नफरत थी, उनमें सबसे ऊपर शराब का नाम था। ‘यंग इंडिया’ के 03 मार्च 1927 के अंक में उनहोंने एक लेख में उल्लेख किया था कि शराब और अन्य मादक द्रव्यों से होने वाली हानि कई अंशों में मलेरिया आदि बीमारियों सें होने वाली हानियों से असंख्य गुना ज्यादा है। कारण, बीमारियों से तो केवल शरीर को ही हानि पहुंचती है, जबकि शराब आदि से शरीर और आत्मा दोनों का ही नाश होता है। ‘यंग इंडिया’ के ही 15 सितंबर 1927 अंक में गांधीजी ने मदिरापान पर एक कड़ी टिप्पणी कर इस दिशा में अपनी मंशा जताई थी, ‘मैं भारत का गरीब होना पसंद करूंगा, लेकिन मैं यह नहीं बर्दाश्त करूंगा कि हजारों लोग शराबी हों। अगर भारत में शराब पांबदी जारी रखने के लिए लोगों को शिक्षा देना बंद करना पड़े तो कोई परवाह नहीं। मैं यह कीमत चुका कर भी शराबखोरी बंद करूंगा।’ राजघाट पर फूल चढ़ाते समय हमारे ‘भारत भाग्य विधाता’ क्या कभी गांधी के इस संकल्प को याद करने का प्रयास करते हैं? आज हर सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं के संचालन के लिए धन जुटाने में शराब से आ रहा राजस्व बड़ी मात्रा में है। पंजाब में अधिक शराब बेच कर किसानों को मुμत बिजली-पानी देने की घोषणाओं में किसी को शर्म नहीं आई। हरियाणा में शराबबंदी को समाप्त करना चुनावी मुद्दा बना था। केरल में शराब बंदी को सुप्रीम कोर्ट तक ले जाने वाले कई राजनेता ही है। दिल्ली में घर-घर तक शराब पहुंचाने की योजनाओं में सरकार यूरोप की नकल कर रही है। उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के कई राजनेता शराब के ठेकों से परोक्ष-अपरोक्ष जुड़े हैं। यही नहीं भारत सरकार के विदेश महकमे बाकायदा सरकारी तौर पर शराब-पार्टी देते हैं। ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की 46वीं वर्षगांठ पर दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में संपन्न समारोह में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने बड़े साफ मन से स्वीकार किया था कि गांधीजी के सिद्धांतों पर अमल न करके सरकार ने गलती की है। हम उस गलती को सुधारेंगे।’ लेकिन उसके बाद उनकी सरकार चली नहीं। वैसे तो इस बात पर भी शक है कि उस समारोह के बाद वहां बैठे किसी नीति निर्धारक को राजीवजी के ऐसे संकल्प की याद भी रही हो। हां, हर साल बदलती सरकारें गांधी के एक-एक सपने को चूर जरूर करती रहीं । खादी या कुटीर उद्योग की बात हो या शिक्षा या स्वाबलंबन की या फिर अनुसूचित जाति के लोगों के कल्याण या अल्पसंख्यकों को भयमुक्त माहौल देने की नीति, गांधी कहीं बिसूरता सा रहा। महात्मा गांधी ने भारतीय परिवेश में रोजगारोन्मुखी शिक्षा का खाका तैयार किया था, ताकि गांव का पढ़ा-लिखा तबका रोजगार के लिए शहर की ओर पलायन न करे। लेकिन आज की समूची शिक्षा प्रणाली शहरी तड़क-भड़क की ओर आकर्षित करती सी प्रतीत होती है। पठन-पाठन का मूल आधार होता है उसका भाषा माध्यम। गांधीजी हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में शिक्षा व अन्य कामकाज के कट्टर समर्थक थे। देश की आजादी के बाद उन्होंने ‘हरिजन सेवक’ (21.09.1947) में एक आलेख में इस विषय पर अपनी स्पष्ट टिप्पणी की थी : ‘मेरा मतलब यह है कि जिस तरह हमारी आजादी को जबरदस्ती छीनने वाले अंग्रेजों की सियासी हुकुमत को हमनें सफलतापूर्वक इस देश से निकाल दिया, उसी तरह हमारी संस्कृति को दबाने वाली अंग्रेजी भाशा को भी हमें यहां से निकाल देना चाहिए।’ कैसी विडंबना है कि गांधी के देश में अंग्रेजी ना केवल दिन दुगना-रात चैगुना प्रगति कर रही है, बल्कि संसद, सुप्रीम कोर्ट और सभी बड़े दμतरों में आधिकारिक भाषा अंग्रेजी ही है। यही नहीं अब तो हमारे देश में ऐसे बुद्धिजीवियों की जमात खड़ी हो रही है, जो कि अंग्रेजी को विदेशी भाषा ही नहीं मानते हैं। गांधी के सच्चे भक्तों की सरकारें अब स्कूली स्तर पर सरकारी स्कूलों में भी अंग्रेजी को अनिवार्य बना रही हैं। दिल्ली दुनिया के सबसे अधिक प्रदूषित नगरों में से है। यहां की सबसे बड़ी सड़क (रिंग रोड) को महात्मा गांधी का नाम दिया गया है, यह जानते हुए भी कि यह सबसे दूषित इलाकों में से एक है। इतनी बड़ी सड़क को गांधी का नाम देकर नेताओं ने सोचा कि वे गांधी को सम्मानित कर रहे हैं। ठीक उसी तरह गांधी के सिद्धांतों और मान्यताओं की समाधियों पर फूल चढ़ा कर उनकी आंख का पानी नहीं मर रहा है। न्यायमूर्ति कुदाल आयोग की रिपोर्ट में तो देश की गांधीवादी संस्थाओं को विभिन्न अनियमितताओं व कानून-विरोधी कृत्यों का अड्डा बताया गया था। कांग्रेस के प्रति गांधी की भविष्यवाणी आज सत्य होती दिखती है। दूसरे मामलों में भी लोगों को अब संभल जाना चाहिए, वरना गांधी का नाम तो उनके महान कार्यों के कारण सदैव याद रख जाएगा, पर साथ में यह भी भुलाया नहीं जा सकेगा कि उस संत की शिक्षाओं को न मानकर हमने क्या खो दिया है

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