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शुक्रवार, 30 जून 2017

flood" A men made disaster



देश को पीछे धकेल देती है बाढ़

अभी तो बरसात का पहले महीना ही चल रहा है और पूर्वोत्तर राज्यों से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश तक कई स्थानों पर नदियां उफन कर खेत-बस्ती में घुस गई हैं। अभी तो मानसून के 60 दिन बकाया हैं और मौसम विभाग की उस भविष्यवााणी के सच होने की संभावना दिख रही है कि इस साल सदी का सबसे बेहतरीन मानसून होगा व बरसात औसत से ज्यादा होगी। तात्कालिक तौर पर तो यह सूचना सुखद लगती है लेकिन जल-प्लावन के चलते तबाही के बढ़ते दायरे के आंकड़े अलग तरह का खौफ पैदा करते हैं। पिछले कुछ सालों के आंकड़ें देखें तो पाएंगे कि बारिश की मात्रा भले ही कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके में कई गुना बढ़ोतरी हुई है।
कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफनने लगी हैं और मौसम बीतते ही उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है। असल में बाढ़ महज एक प्राकृतिक आपदा ही नहीं है, बल्कि यह देश के गंभीर पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक संकट का कारक बन गया है। हमारे पास बाढ़ से निपटने को महज राहत कार्य या यदा-कदा कुछ बांध या जलाशय निर्माण का विकल्प है, जबकि बाढ़ के विकराल होने के पीछे नदियों का उथला होना, जलवायु परिवर्तन, बढ़ती गरमी, रेत की खुदाई व शहरी प्लास्टिक व खुदाई मलवे का नदी में बढ़ना, जमीन का कटाव जैसे कई कारण दिनों-दिन गंभीर होते जा रहे हैं। जिन हजारों करोड़ की सड़क, खेत या मकान बनाने में सरकार या समाज को दशकों लग जाते हैं, उसे बाढ़ का पानी पलक झपकते ही उजाड़ देता है। हम नए कायांर्े के लिए बजट की जुगत लगाते हैं और जीवनदायी जल उसका काल बन जाता है।
देश में सबसे ज्यादा सांसद व प्रधानमंत्री देने वाले राज्य उत्तर प्रदेश की उर्वरा धरती, कर्मठ लोग, अयस्क व अन्य सांसधन उपलब्ध होनेे के बावजूद विकास की सही तस्वीर न उभर पाने का सबसे बड़ा कारण हर साल आने वाली बाढ़ से होने वाले नुकसान हैं। बीते एक दशक के दौरान राज्य में बाढ़ के कारण 45 हजार करोड़ रुपए कीमत की तो महज खड़ी फसल नष्ट हुई है। सड़क, सार्वजनिक संपत्ति, इंसान, मवेशी आदि के नुकसान अलग हैं। राज्य सरकार की रपट को भरोसे लायक मानें तो सन 2013 में राज्य में नदियों के उफनने के कारण 3259.53 करोड़ का नुकसान हुआ था जो कि आजादी के बाद का सबसे बड़ा नुकसान था।
अब तो देश के शहरी क्षेत्र भी बाढ़ की चपेट में आ रहे हैं। इसके कारण भौतिक नुकसान के अलावा मानव संसाधन का जाया होना तो असीमित है। सनद रहे कि देश के 800 से ज्यादा शहर नदी किनारे बसे हैं, वहां तो जलभराव का संकट है ही, कई ऐसे कस्बे जो अनियोजित विकास की पैदाइश हैं, शहरी नालों के कारण बाढ़-ग्रस्त हो रहे हैं। सन-1953 से लेकर 2010 हम बाढ़ के उदर में 8,12,500 करोड़ फूंक चुके हैं जबकि बाढ़ उन्मूलन के नाम पर व्यय राशि 1,26,000 करोड़ रुपए है। यह धन राशि मनरेगा के एक साल के बजट का कोई चार गुणा है। आमतौर पर यह धन राशि नदी प्रबंधन, बाढ़ चेतावनी केंद्र बनाने और बैराज बनाने पर खर्च की गई लेकिन यह सभी उपाय बेअसर ही रहे हैं। आने वाले पांच साल के दौरान बाढ़ उन्मूलन पर होने वाले खर्च का अनुमान 57 हजार करोड़ आंका गया है।

मौजूदा हालात में बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं, बल्कि मानवजन्य साधनों की त्रासदी है। बाढ़ एक तरफ विकास की राह में रोड़ा है तो दूसरी तरफ देश के जल संसाधनों के लिए भी नुकसानदेह है।
अतएव बाढ़ के बढ़ते सुरसा-मुख पर अंकुश लगाने के लिए शीघ्र कुछ करना होगा । कुछ लोग नदियों को जोड़ने में इसका निराकरण खोज रहे हैं। हकीकत में नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के उंचाई-स्तर में अंतर जैसे विषयों का हमारे यहां कभी निष्पक्ष अध्ययन ही नहीं किया गया और इसी का फायदा उठाकर कतिपय ठेकेदार, सीमेंट के कारोबारी और जमीन-लोलुप लोग इस तरह की सलाह देते हैं। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी, नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेड़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जोकि बाढ़ सरीखी भीषण विभीषिका का मुंह-तोड़ जवाब हो सकते हैं

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