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शनिवार, 2 सितंबर 2017

It was wake up call for Big "garbage-bomb"

सावधान! यह तो छोटा धमाका है ‘कूड़ा बम’ का

                                                                                                                          पंकज चतुर्वेदी


वहीं पास से प्रधानमंत्रीजी की ‘स्वप्न परियोजना’ की आठ लेन चौड़ी सड़क का काम चल रहा है और दिन में ढाई बजे के आपसपास ऐसा लगा कि कोई बादल फटा हो, कूड़े के पहाड़ का बड़ा हिस्सा अपनी जगह से खिसका और करीब बहने वाले गंदे चौडे से नाले या नहर में इतने वेग से गिरा कि पानी उछल कर सड़क पर आया व कई गाड़ियों व इंसानों को अपने साथ बहाकर ले गया। अभी उस हादसे में मरे लेागों की संख्या को ले कर भले ही संषय हो, लेकिन यह तय हो गया है कि लगातार अदालत व एनजीटी की चेतावनियों को अनदेखा करने का ही परिणाम है कि देष की राजधानी का ‘कूड़ बम’ अब जानलेवा बन गया है। दिनांक 18 दिसंबर 2014 को दिल्ली हाई कोर्ट चेतावनी दे चुका है कि यदि समय रहते कदम नहीं उठाए गए तो दिल्ली जल्दी ही ठोस कचरे के ढेर में तब्दील हो जाएगी। दिल्ली में अभी तक कोई दो करोड मीट्रिक टन कचरा जमा हो चुका है और हर दिन आठ हजार मीट्रिक टन कूड़ा पैदा हो रहा है जिसमें से एक हजार टन प्लास्टिक का लाइलाज कचरा होता है। इसके निस्तारण के लिए कहीं जमीन भी नहीं बची है। मौजूदा लेंडफिल साईट डेढ सौ फुट से ऊंची हो गई हैं और उन पर अब अधिक कचरा नहीं डाला जा सकता। लेकिन समूचा सिस्टम इंतजार करता रहा कि कोई हादसा हो फर इस ओर ध्यान दिया जाए।
दिल्ली की नगर निगम कई-कई सौ किलोमीटर दूर तक दूसरे राज्यों में कचरे का डंपिंग ग्राउंड तलाष रही है। जरा सोचें कि इतने कचरे को एकत्र करना, फिर उसे दूर तक ढो कर ले जाना कितना महंगा व जटिल काम है।  यह सरकार भी मानती है कि देष के कुल कूड़े का महज पांच प्रतिषत का ईमानदारी से निबटान हो पाता है।  राजधानी दिल्ली का तो 57 फीसदी कूड़ा परोक्ष या अपरोक्ष रूप से यमुना में बहा दिया जाता है।  कागज, प्लास्टिक, धातु  जैसा बहुत सा कूड़ा तो कचरा बीनने वाले जमा कर रिसाईकलिंग वालों को बेच देते हैं। सब्जी के छिलके, खाने-पीने की चीजें, मरे हुए जानवर आदि कुछ समय में सड़-गल जाते हैं। इसके बावजूद ऐसा बहुत कुछ बच जाता है, जो हमारे लिए विकराल संकट का रूप लेता जा रहा है।
राजधानी दिल्ली में कचरे का निबटान अब हाथ से बाहर निकलती समस्या बनता जा रहा है। अभी हर रोज आठ हजार मीट्रिक टन कचरा उगलने वाला महानगर 2021 तक 16 हजार मीट्रिक टन कचरा उपजाएगा। फिलहाल महानगर का कचरा खपाने के तीन खत्ते या डंपिंग ग्राउंड हैं -गाजीपुर, ओखला और भलस्वा । गाजीपरु में कूड़ा खाने का कर्य जब सन 1984 में षुरू हुआ था तो इसकी क्षेत्रफल 30 एकड़ हुआ करता था, जो आज 76 एकड़ हो गया। नियम है कि कूड़े के ढेर की ऊंचाई अधिकतम 20 मीटर हो, लेकिन गाजीपुर का पहाड़ 50 मीटर से आगे निकल गया है। सरकारी रिकार्ड कहता है कि यह स्थान पर सन 2006 में ही कह दिया गया था कि अब यहां और कूड़ा नहीं खपाया जा सकता,इसके बावजूद यहां आज भी हर दिन छह सौ ट्रक कूड़ा आता है , जो लगभग 2000 टन होता है।
विडंबना है कि दिल्ली के अपने कूडे़-ढलाव कई साल पहले पूरी तरह भर गए हैं और आसपास 100 किलोमीटर दूर तक कोई नहीं चाहता कि उनके गांव-कस्बे में कूड़े का अंबार लगे। सटे हुए जिले गाजियबाद की नगर निगम ने 24 अगस्त को ही दिल्ली नगर निगम के दो ट्रकों को रंगेहाथें पकड़ाा था जब वे अपना कूड़ा सटी हुई कालोनियों में रात में फैंक कर जा रहे थे। इन ट्रकों पर पांच पांच हजार का जुर्माना भी किया गया था।  कहने को दिल्ली में दो साल पहले पोलीथीन की थैलियों पर रोक लगाई जा चुकी है, लेकिन आज भी प्रतिदिन 583 मीट्रिक टन कचरा प्लास्टिक का ही है। इलेक्ट्रानिक और मेडिकल कचरा तो यहां के जमीन और जल को जहर बना रहा है।
गाजीपुर में हुए धमाके का कारण भी कूड़े का लगातार सड़ना व उससे खतरनाक गैसों का उत्सजग्न होतना ही बताया गया है। सनद रहे कि दिल्ली के कूड़े में बड़ी मात्रा में सबसे खतरनाक कूड़ा तो बैटरियों, कंप्यूटरों और मोबाईल का है। इसमें पारा, कोबाल्ट, और ना जाने कितने किस्म के जहरीले रसायन होते हैं। एक कंप्यूटर का वजन लगभग 3.15 किलो ग्राम होता है। इसमें 1.90 किग्रा लेड और 0.693 ग्राम परा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता हे। षेश हिस्सा प्लास्टिक होता है। इसमें से अधिकांष सामग्री गलती-’सड़ती नहीं है और जमीन में जज्ब हो कर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करने  और भूगर्भ जल को जहरीला बनाने  का काम करती है। ठीक इसी तरह का जहर बैटरियों व बेकार मोबाईलो ंसे भी उपज रहा है।  ं
असल में कचरे को बढ़ाने का काम समाज ने ही किया है। अभी कुछ साल पहले तक स्याही वाला फाउंटेन पेन होता था, उसके बाद ऐसे बाल-पेन आए, जिनकी केवल रिफील बदलती थी। आज बाजार मे ंऐसे पेनों को बोलबाला है जो खतम होने पर फेंक दिए जाते हैं।  देष की बढ़ती साक्षरता दर के साथ ऐसे पेनों का इस्तेमाल और उसका कचरा बढ़ता गया। जरा सोचें कि तीन दषक पहले एक व्यक्ति साल भर में बामुष्किल एक पेन खरीदता था और आज औसतन हर साल एक दर्जन पेनों की प्लास्टिक प्रति व्यक्ति बढ़ रही है। इसी तरह षेविंग-किट में पहले स्टील या उससे पहले पीतल का रेजर होता था, जिसमें केवल ब्लेड बदले जाते थे और आज हर हफ्ते कचरा बढ़ाने वाले ‘यूज एंड थ्रो’ वाले रेजर ही  बाजार में मिलते हैं। अभी कुछ साल पहले तक दूध भी कांच की बोतलों में आता था या फिर लोग अपने बर्तन ले कर डेयरी जाते थे। आज दूध तो ठीक ही है पीने का पानी भी कचरा बढ़ाने वाली बोतलों में मिल रहा है। अनुमान है कि पूरे देष में हर रोज चार करोड़ दूध की थैलियां और दो करोड़ पानी की बोतलें कूड़े में फैंकी जाती हैं। मेकअप का सामान, घर में होने वाली पार्टी में डिस्पोजेबल बरतनों का प्रचलन, बाजार से सामन लाते समय पोलीथीन की थैलियां लेना, हर छोटी-बड़ी चीज की पैकिंग ;ऐसे ही ना जाने कितने तरीके हैं, जिनसे हम कूड़ा-कबाड़ा बढ़ा रहे हैं। घरों में सफाई  और खुषबू के नाम पर बढ़ रहे साबुन व अन्य रसायनों के चलन ने भी अलग किस्म के कचरे को बढ़ाया है। सरकारी कार्यालयों में एक-एक कागज की कई-कई प्रतियां बनाना, एक ही प्रस्ताव को कई-कई टेबल से गुजारना, जैसे कई कार्य हैं जिससे कागज, कंप्ूयटर के प्रिंिटग कार्टेज आदि का व्यय बढता है। और इसी कूड़े को खपाने की सभी येाजनांए विफल हो रही है। जाहिर है कि अनिवार्यता कूड़े को कम करने की होना चाहिए। इसको कम करने की योजना बनाना जरूरी है।
हाल ही में कहा गया था कि गाजीपुर में आफत बने कूड़े से राश्ट्रीय राजमार्ग बनाने का काम होगा। लेकिन यह अनिवार्य है कि दिल्ली के कूड़े को ठिकाने लगाने के लिए नए ठिकाने तलाषें जाएं, इससे भी ज्यादा अनिवार्य हैै कि कूड़ा कम करने के सषक्त प्रयास हों। इसके लिए केरल में कन्नूर जिले से सरीख ले सकते हैं जहां पूरे जिले में बॉल पेन के इस्तेमाल से लेागों ने तौबा कर लिया, क्योंकि इससे हर दिन लाखेां रिफील का कूड़ा निकलता था। पूरे जिले में कोई भी दुकानदार पॉलीथीन की थैली या प्लास्टिक के डिस्पोजेबल बर्तन ना तो बेचता है और ना ही इस्तेमाल करता है।

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