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मंगलवार, 10 मार्च 2015

Yes, Farmers are mad !



JANSANDESH TIMES.UP 11-3-15
http://www.jansandeshtimes.in/index.php?spgmGal=Uttar_Pradesh/Varanasi/Varanasi/11-03-2015&spgmPic=0
हां! किसान तो पागल ही होता है !
पंकज चतुर्वेदी
दस हजार करोड से ज्यादा का नुकसान हुआ, करोडों लोगों की चार महीने की कड़ी मेहनत पर पानी फिर गया ,कई लाख परिवारों के घर फाके की नौबत आ गई, कुछ ने दम भी तोड़ दिया। इतनी बड़ी तबाही ना तो संसद की संवेदना को हिला सकी और ना ही मीडिया में पपहले पन्ने की खबर बन सकने के लायक समझी गई। जब मुल्क के षहरी इलाके  होली के रंग में सराबोर थे, तब देष की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ कहे जाने वाले किसानों के घर मातम छाया हुआ था। देष के अस्सी फीसदी इलाके में चक्रवात ने ऐसा कहर बरपाया कि  गेहूं, चना, सरसों, अरहर की लहलहाती फसल सपनों की तरह बिखर गई। मप्र के सतना जिले के मेहुटी गांव के किसान विनोद सिंह ने पचास हजार का कर्जा ले कर 15 एकड़ खेत में उम्मीदें बोई थीं। असामयिक बारिष ने उसके खेत की ऐसी दुर्गति की कि घर आकर उसने फसल को कीड़े से बचाने वाली दवा पी कर अपना जीवन समाप्त कर लिया। उप्र के हमीरपुर जिले के परहेता गांव का कियासन राजा भैया तिवारी तो अपनी मेहनत का ऐसा अंत देखना सह नहीं पाए और सदमें में उनके दिल ने काम करना बंद कर दिया। इसी जिले के कुन्हेता गांव के इंद्रजीत  ने एक लाख कर्ज उठा कर चार बीघा में फसल बोई थी और उसे नश्ट होता देख बबूल के पेड़ पर फांसी लगा कर अपनी इंहलीला समाप्त कर ली। ऐसी अनेक घटनाएं बीते एक सप्ताह में हुई । कुछ मौतों को प्रषासन ने पागलों की हरकत बता दिया तो कुछ जगह मुआवजे बांटने का एहसान जता दिया गया।
जब कभी कोई किसान हालात से हताष हो कर खुदकुषी कर लेता है तो प्रषासन का पहला बयान यही होता है कि मृत मानसिक रूप से विक्षिप्त था। वैसे यह गलत भी नहीं है - अपने दिन-रात, जमा पूंजी लगा कर देष का पेट भरने के लिए खटने वाला किसान पागल ही तो है, जिसकी ना तो कोई आर्थिक सुरक्षा है और ना ही  सामाजिक प्रतिश्ठा, तो भी वह अपने श्रम-कणों से मुल्क को सींचने पर तत्पर रहता हे। जब कभी बेहतरीन मानसून और अच्छी बुवाई के कारण किसान बंपर फसल की उम्मीद में बहुत खुष होता है । जब उसके श्रम से उपजे अनाज के दाने खेतों में सोने की तरह दमकते दिखते हैं और सपनों से लवरेज किसान जब माल लेकर मंडी पहुंचता तो उसके सपने छन्नकर बिखर जाते हैं और संकट मुंह बाए दिखने लगता है कि घर का खर्च, बैंक का कर्ज, अगली फसल की तैयारी.... कैसे कुछ होगा।
किसान के साथ तो यह होता ही रहता है - कभी बाढ़ तो कभी सुखाड़, कहीं खेत में हाथी-नील गाय या सुअर ही घुस गया, कभी बीज-खाद-दवा नकली, तो कभी फसल अच्छी आ गई तो मंडी में अंधाधुंध आवक के चलते माकूल दाम नहीं। प्राकृतिक आपदाओं पर किसी का बस नहीं है, लेकिन ऐसी आपदाएं तो किसान के लिए मौत से बदतर होती हैं। किसानी महंगी होती जा रही है तिस पर जमकर बंटते कर्ज से उस पर दवाब बढ़ रहा है। ऐसे में आपदा के समय महज कुछ सौ रूपए की राहत राषि उसके लिए ‘जले पर नमक’ की मांनिंद होती है। सरकार में बैठे लोग किसान को कर्ज बांट कर सोच रहे हैं कि इससे खेती-किसानी का दषा बदल जाएगी, जबकि किसान चाहता है कि उसे उसकी फसल की कीमत की गारंटी मिल जाए। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8 प्रतिशत खेती-बाड़ी में तल्लीन कोई 64 फीसदी लोगों के पसीने से पैदा होता है । यह विडंबना ही है कि देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ कहलाने वाली खेती के विकास के नाम पर बुनियादी सामाजिक सुधारों को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है । कहने को सरकारी स्तर पर फसल के बीमा की कई लुभावनी योजनाएं सरकारी दस्तावेजों में मिल जाएंगी, लेकिन अनपढ़, सुदूर इलाकों में रहने वाले किसान इनसे अनभिज्ञा होते हैं। सबसे बड़ी बात कि योजनाओं के लिए इतने कागज-पत्तर भरने होते हैं कि किसान उनसे मुंह मोड लेता हैै।
खेती एक चुनौती वाला कार्य है । कभी सूखा पड़ गया तो कभी इंद्र की कृपा जरूरत से ज्यादा हो गई । कहीं ओलों की मार तो कभी आंधी या चक्रवात । पलक झपकते ही महीनों की हाड़ तोड़ मेहनत व खाद-बीज पर हुआ खर्चा  मिट्टी होता दिखता है । भारतीय कृषि में बहुत विविधता है । एक तरफ पूरी तरह सिंचित खेती तो दूसरी ओर बारिश पर निर्भर किसान । तभी एक तरफ बढि़या फसल लहलहाती है तो दूसरी तरफ बाढ़ या सूखे से किसान रोता दिखता है । ऐसी स्थिति में बार-बार फसलों के विशेषकर बारानी, सूखा या बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में नष्ट होने से किसानों की उत्पादन के स्तर में अनिश्चितता तथा मूल्यों के उतार-चढ़ाव की स्थिति से निबटने की क्षमता बहुत कम हो गई है । इसके साथ ही कर्जे की वापिसी और वित्तीय संस्थाओं द्वारा कृषि में निवेश भी बहुत कम रहा है। इसी दर्द के चलते बीते कुछ सालों में हजारों किसानों की खुदकुशी करने की मार्मिक घटनाएं राजनेताओं की आपसी बहस का मुख्य मुद्दा रही हैं। इसके बावजूद खेती-किसानी के बीमा के मामले में सरकार का नजरिया सदैव लापरवाही वाला रहा है । भारत एक कृशि-प्रधान देष है । देष की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार कृशि है । आंकड़े भी यही कुछ कहते हैं। देष की 67 फीसदी आबादी और काम करने वालों का 55 प्रतिषत परोक्ष-अपरोक्ष रूप से खेती से जुड़ा हुआ है। जनवरी-मार्च 2009  की अवधि में देष की विकास दर 5.8 प्रतिषत रही, जिसमें खेती की विकास दर 2.7 रही है।
1947 में डा. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा प्रस्तुत किए गए केंद्रीय विधान में फसल बीमा पर राष्ट्र व्यापी बहस की जरूरत का उल्लेख किया गया था । इसके बाद समय-समय पर फसल बीमा के खूब लुभावने छलावे सामने आए, लेकिन किसी से भी किसान को उसकी मेहनत व लागत के सुनिष्चित लाभ का प्रतिफल नहीं मिला। ऐसी योजनाओं में आम किसान की भागीदारी, कर्ज लेते समय दस्तखत या अंगूठा लगाने के लिए एक फार्म की बढ़ौतरी से अधिक नहीं थी । हकीकत में किसान को मालूम ही नहीं चलता था कि उसकी फसल का बीमा हुआ है । हां, किसी प्राकृतिक विपदा के समय कर्जा माफ होने पर कुछ राहत जरूर महसूस होती थी । वैसे भी फसल बीमा किसानों के लिए अनिवार्य नहीं है । हमारे देश के किसानों में निरक्षरता का प्रतिशत बेहद अधिक है , गांवों तक संचार व सड़क का टोटा है ; यानी जागरूकता का अभाव है । ऐसे में दूरस्थ गांवों तक किसानों को इसका लाभ मिलना संदिग्ध ही रहा है । आज देश में कोई 25 लाख किसान ऐसे हैं जिनकी जोत का रकबा एक हेक्टर से कम है । ये लोग कुल संभावित उत्पादन के दो फीसदी के बराबर प्रीमियम भुगतान करने में असमर्थ हैं ।
एक बात जान लेना जरूरी है कि किसान को ना तो कर्ज चाहिए और ना ही बगैर मेहनत के कोई छूट या सबसिडी। इससे बेहतर है कि उसके उत्पाद को उसके गांव में ही विपणन करने की व्यवस्था और सुरक्षित भंडारण की स्थानीय व्यवस्था की जाए। किसान को सबसिडी से ज्यादा जरूरी है कि उसके खाद-बीज- दवा के असली होने की गारंटी हो तथा किसानी के सामानों को नकली बचने वाले को फंासी जैसी सख्त सजा का प्रावधान हो।  बोहनी के समय ही हर किसान के रकबे में बोई गई फसल, उससे संभावित फसल का आंकड़ा सरकार के पास हो तथा किसी दुखद परिस्थिति में किसान को मुआवजा उसी के अनुसार सीधे उसके बैंक खाते में जमा करने का नेटवर्क बनाया जाए। इसमें समय-सीमा भी कड़ाई से षामिल हो। अफरात फसल के हालात में किसान को बिचैलियों से बचा कर सही दाम दिलवाने के लिए जरूरी है कि सरकारी एजंेसिया खुद गांव-गांव जाकर  खरदारी करे। सब्जी-फल-फूल जैसे उत्पाद की खरीद-बिक्री स्वयं सहायता समूह या सहकारी के माध्यम से  करना कोई कठिन काम नहीं है।  एक बात और इस पूरे काम में हाने वाला व्यय, किसी नुकसान के आकलन की सरकारी प्रक्रिया, मुआवजा वितरण, उसके हिसाब-किताब में होने वाले व्यय से कम ही होगा। कुल मिला कर किसान के उत्पाद के विपणन या कीमतों को बाजार नहीं, बल्कि सरकार तय करे।
किसान भारत का स्वाभिमान है और देष के सामाजिक व आर्थिक ताने-बाने का महत्वपूर्ण जोड़ भी इसके बावजूद उसका षोशण हो रहा है । किसान को उसके उत्पाद का सही मूल्य मिले, उसे भंडारण, विपणन की माकूल सुविधा मिले, खेती का खर्च कम हो व इस व्यवसाय में पूंजीपतियों के प्रवेष पर प्रतिबंध -जैसे कदम देष का पेट भरने वाले किसानों का पेट भर सकते हैं । चीन में खेती की विकास की सालाना दर 7 से 9 प्रतिषत है ,जबकि भारत में यह गत 20 सालों से दो को पार नहीं कर पाई है। अब तो विकास के नाम पर खेत उजाड़ने के खिलाफ पूरे देष में हिंसक आंदोलन भी हो रहे हैं। विडंबना है कि हमारे आर्थिक आधार की मजबूत कड़ी के प्रति ना ही समाज और ना ही सियासती दल संवेदनषील दिख रहे हैं। काष कोई किसान को फसल की गारंटेड कीमत का आष्वासन दे पाता  तो किसी भी किसान कोे कभी जान ना देनी पड़ती।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद गाजियाबाद 201005
9891928376







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