My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

Mayor of 9 percent !

नौ फीसदी का मेयर

                                                                     पंकज चतुर्वेदी


दिल्ली से सटे हुए गाजियाबाद में पिछले दिनों नगरनिगम के अध्यक्ष यानि मेयर का उप चुनाव हुआ। एक विधान सभा सीट से भी बड़़े इस चुनाव में कुल मतदाता थे- 11,77,276 । मतदान हुआ महज 18.54 प्रतिषत यानि 2,18,314 और जीते हुए उम्म्ीदवार को मिले वोटों की संख्या थी- 1,15,900। यदि गंभीरता से गणित लगाएं तो कुल मतदाताओं के महज 9.8 प्रतिषत वोट पाने वाला षहर का मेयर बन गया। मतदान 14 फरवरी, रविवार और वेलेन्टाईन डे पर था, प्रेमोत्सव मनाने वाले लेागों की भीड़ से माॅल-हाॅल खचाखच थे, लेकिन मतदाता केंद्र खाली थे। यहां एक बात और गौर करने की है कि केंद्र सरकार द्वारा जारी की गई स्वच्छता सूची में गाजियाबाद का नंबर पीछे से सातवां है। साफ-सफााई रखना नगर निगम की ही जिम्मेदारी होती है। समझ नही कि यह जनता की निराषा थी,  लापरवाही थी या और कुछ।  अभी कुछ ही दिनों पहले  उ.प्र में ही पंचायत चुनाव हुए तो उसमें नब्बे फीसदी तक वोट पड़े। गांव-गांव में दिन-रात प्रचार व चुनाव चर्चा होती रही। वहीं गाजियाबाद में मेयर जैसे महत्वपूर्ण चुनाव की चर्चा जिला मुख्यालय से 10 किलोमीटर दूर वाली कालोनियां तक में नहीं थी। ना कोई सभा, ना प्रचार, ना पर्चे ना झंडे।  स्वतंत्र और निश्पक्ष चुनावों के लिए पिछले कुछ सालों में चुनावी प्रक्रिया में महत्वपूर्ण बदलाव भी हुए, लेकिन सबसे अहम संवाल यथावत खड़ा है कि क्या हमारी सरकार वास्तव में जनता के बहुमत की सरकार होती है ? यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांत पर व्यंग्य ही है कि देष की सरकारें आमतौर पर कुल आबादी के 14-15 फीसदी लोगों के समर्थन की ही होती है ।

यह विचारणीय है कि क्या वोट ना डालने वाले 81 फीसदी से ज्यादा लोगों की निगाह में चुनाव लड़ रहे सभी उम्मीदवार या मौजूदा चुनाव व्यवस्था नालायक थी ? जिन परिणामों को राजनैतिक दल जनमत की आवाज कहते रहे हैं, ईमानदारी से आकलन करें तो यह सियासती - सिस्टम के खिलाफ अविष्वास मत था । सुप्रीम कोर्ट के आदेष ‘‘कोई पसंद नहीं’’ पर खुष होने वाले पता नहीं क्यों इतने खुष हैं, हमारे सामने चुनौती लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने की है ना कि उन्हें नकारने की।
जब कभी मतदान कम होने की बात होती है तो प्रषासन व राजनैतिक दल अधिेक गरमी या सर्दी होने, छुट्टी ना होने जैसे कारण गिनाने लगते हैं ।
विडंबना है कि आंकड़ों की बाजीगरी में पारंगत सभी राजननैतिक दल इस साधारण से अंक गणित को ना समझ पाने का बहाना करते हैं ।  लोकतंत्र अर्थात बहुमत की सरकार की हकीकत ये आंकड़े सरेआम उजागर कर देते हैं । लोकतंत्र की मूल आत्मा को बचाने के लिए अधिक से अधिक लोगों को मतदान केंद्र तक पहुचाना जरूरी है । वैसे इस बार ईवीएस के इस्तेमालों से वोटों के इस नुकसान की तो कोई संभावना रह नहीं जाएगी ।
मूल सवाल यह है कि आखिर इतने सारे लोग वोट क्यों नहीं डालते हैं ? गाजियाबाद में कोषांबी, वसुंधरा, बृजविहार इंदिरापुरम जैसी गगनचुंबी, पढ़े-लिखों की कालोनी में 10 से 12 फीसदी वोट ही गिरे।

मतदाताओं की बढ़ती संख्या के साथ-साथ उम्मीदवारों की संख्या अधिक हो रही है । इसकी तुलना में नए मतदाता केंद्रों की संख्या नहीं बढ़ी है। मतदाता सूची में नाम जुड़वाना जठिल है और उससे भी कठिन है अपना मतदाता पहचान पत्र पाना। उसके बाद चुनाव के लिए पहले अपने नाम की पर्ची जुटाओं, फिर उसे मतदान केंद्र में बैठे एक कर्मचारी को दे कर एक कागज पर दस्तखत या अंगूठा लगाओ । फिर एक कर्मचारी आपकी अंगुली पर स्याही लगाएगा । एक अफसर मषीन षुरू करेगा , उसके बाद आप बटन दबा कर वोट डालेंगे । पूरी प्रक्रिया में दो-तीन मिनट लग जाते हैं । प्रत्येक मतदाता केंद्र पर एक हजार से अधिक व कहीं -कहीं दो हजार तक मतदाता हैं । यदि एक मतदाता पर देा मिनट का समय आंकें तो एक घंटे में अधिकतम 30 मतदाता होंगे । इसके चलते मतदाता केंद्रों के बाहर लबी-लंबी लाईनें लग जाती हैं । देष में 40 प्रतिषत से अधिक लोग ऐसे हैं जो कि ‘‘रोज कुआं खेद कर रोज पानी पीते ’’ हैं । यदि वे महज वोट डालने के लिए लाईन में लग कर समय लगाएंगे तो दिहाड़ी मारी जागी व षाम को घर का चूल्हा नहीं जल पाएगा ।
मतदान कम होने का एक कारण देष के बहुत से इलाकों में बड़ी संख्या में महिलाओं का घर से ना निकलना भी है । गाजियाबाद का चुनाव ही बानगी है कि यहां कुल पड़े पदो लाख अठारह हजार चवोटों में से महिलओं के वोट 86 हजार 377 ही हैं। महिलाओं के लिए निर्वाचन में आरक्षण की मांग कर रहे संगठन महिलाओं का मतदान बढ़ाने के तरीकों पर ना तो बात करते हैं, और ना ही प्रयास । इसके अलावा जेल में बेद विचाराधीन कैदियों और अस्पताल में भर्ती मरीजों व उनकी देखभाल में लगे लोगों , चुनाव व्यवस्था में लगे कर्मचारियों, किन्हीं कारणो से सफर कर रहे लोग, सुरक्षा कर्मियों व सीमा पर तैनात जवानेेां के लिए मतदान की माकूल व्यवस्था नहीं है । हमारे देष की डाक से मतदान की प्रक्रिया इतनी गूढ़ है कि नाम मात्र के लेाग ही इसका लाभ उठा पाते हैं । इस तरह लगभग 20 फीसदी मतदाता तो  चाह कर भी मतोत्सव में भागीदारी से वंचित हो जाते हैं । कुछ सालों पहले चुनाव आयोग ने सभी राजनैतिक दलों के साथ एक बैठक में प्रतिपत्र मतदान का प्रस्ताव रखा था । इस प्रक्रिया में मतदाता अपने किसी प्रतिनिधि को मतदान के लिए अधिकृत कर सकता है । इस व्यवस्था के लिए जन प्रतिनिधि अधिनियम 1951 और भारतीय दंड संहिता में संषोधन करना जरूरी है । संसद में बहस का आष्वासन दे कर उक्त अहमं मसले को टाल दिया गया । गुजरात में स्थानीय निकायों के निर्वाचन में अनिवार्य मतदान की कानून लाने का प्रयास किया गया था लेकिन वह सफल नहीं हुआ। यहां जानना जरूरी है कि दुनिया के कई देषों में मतदान अनिवार्य है। आस्ट्रेलिया सहित कोई 19 मुल्कांे में वोट ना डालना दंडनीय अपराध है। क्यों नाह मारे यहां भी बगैर कारण के वोट ना डालने वालों के कुछ नागरिक अधिकार सीमित करने या उन्हें कुछ सरकारी सुविधाओं से वंचित रखने के प्रयोग किये जाएं।
आज चुनाव से बहुत पहले बड़े-बड़े रणनीतिकार  मतदाता सूची का विष्लेशण कर तय कर लेते हैं कि हमें अमुक जाति या समाज के वोट चाहिए ही नहीं। यानी जीतने वाला क्षेत्र का नहीं, किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि होता है। यह चुनाव लूटने के हथकंडे इस लिए कारगर हैं, क्योंकि हमारे यहां चाहे एक वोट से जीतो या पांच लाख वोट से , दोनों के ही सदन में अधिकार बराबर होते है। यदि राश्ट्रपति चुनावों की तरह किसी संसदीय क्षेत्र के कुल वोट और उसमें से प्राप्त मतों के आधार पर सांसदों की हैंसियत, सुविधा आदि तय कर दी जाए तो नेता पूरे क्षेत्र के वोट पाने के लिए प्रतिबद्ध होंगे, ना कि केवल गूजर, मुसलमान या ब्राहण वोट के।  केबिनेट मंत्री बनने के लिए या संसद में आवाज उठाने या फिर सुविधाओं को ले कर निर्वाचित प्रतिनिधियों का उनको मिले कुछ वोटो का वर्गीकरण माननीयों को ना केवल संजीदा बनाएगा, वरन उन्हें अधिक से अधिक मतदान भी जुटाने को मजबूर करेगा। यह तय है कि अब गाजियाबाद के मेयर भी उन्ही इलाकों पर अपना ध्यान देंगे जहां से उन्हें वोट मिले या ज्यादा मिले।
इस समय देष के कलाकार, लेखक, औद्योगिक घराने, मीडिया, सभी अपने-अपने खेमों में सक्रिय हो कर एक दल-विषेश को सत्ता की कुंजी सौंपने के येन-केन-प्रकारेण उपाय कर रहे हें । ऐसे में बुद्धिजीवियों की एक जमात कांे आगे आ कर मतदात- प्रतिषत बढ़ाने के लिए जागरूकता अभियान की बागडोर संभालनी चाहिए । इस कार्य में अखबारों व इलेक्ट्रानिक् मीडिया महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं । राजनैतिक दल कभी नहीं चाहेंगे कि मतदान अधिक हो, क्योंकि इसमें उनके सीमित वोट-बैंक के अल्पमत होने का खतरा बढ़ जाता है । हमारा संसदीय लोकतंत्र भी एक ऐसे अपेक्षाकृत आदर्ष चुनाव प्रणाली की बाट जोह रहा हैं , जिसमें कम से कम मतदान तो ठीक तरीके  से होना सुनिष्चित हो सके ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Keep Katchatheevu away from electoral politics.

  कच्चातिवु को परे   रखो चुनावी सियासत से पंकज चतुर्वेदी सन 1974 की सरकार का एक फैसला, जिसके बाद लगभग आधे समय गैरकान्ग्रेसी सरकार सत्ता ...