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शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

UN organisations has to change there working according to changing time


जरूरी है अंतरराष्‍ट्रीय संस्थाओं  की कार्यप्रणाली में मूलभूत सुधार

राज एक्‍सप्रेस म.प्र 6 फरवरी 16
                                                                    पंकज चतुर्वेदी


वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने जहां ऐसी समस्याओं में बढ़ौतरी की हैं जो एक-दूसरे पर निर्भर हैं , वहीं गरीबी तथा अमीरी के बीच की दूरियों को भी बढ़ाया है । बाजार दिनों-दिन वैश्विक होता जा रहा है, जबकि बाजार के लोकतांत्रिक, निष्पक्ष और कार्यक्षम संचालन पर निगाह रखने के लिए जिम्मेदार राजनैतिक संस्थाओं की भूमिका उसी दर से कमजोर होती जा रही है । वैश्विक आर्थिक संस्थाएं बाजार और बड़ी कंपनियों के पक्ष में ऐसी नीतियांे का तेजी से विस्तार कर रही हैं । युद्ध, अषांति, आतंकवाद, पर्यावरणीय समस्या, भूख, षरणार्थी समस्याओं में जहां बेतहाषा बढ़ौतरी हुई हैं वहीं, इसके निदान के लिए कोई साठ साल पहले बनी अंतरराष्‍ट्रीय संस्थाएं या तो असहाय हैं या फिर निष्क्रिय। शांति और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के कमजोर होने व हाशिये पर आ जाने के कारण ही अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, सीरिया सहित दर्जनभर देषों में स्थाई अशांति हो गई है। ं संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्थापित नियमों के अनुरूप प्रक्रिया से वहां विवाद को सुलझाने के बनिस्पत तथाकथित ‘‘सुपर पावर’’ देश के निजी हितों के खातिर फौजी हमले हुए और आज पूरी दुनिया इसके दुश्परिणामों को भोग रही है।
अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं मानवता के इतिहास का महत्वपूर्ण पड़ाव रही हैं । लेकिन समय के साथ इन संस्थाओं के कामकाज के तरीकों में कुछ ऐसी कमियां महसूस की गईं, जिनके चलते से संस्थाएं वर्तमान विश्व की जमीनी समस्याओं को सुलझाने में अप्रासंगिक हो गई हैं । अत्एव अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में ऐसे सुधार अत्यावश्वक हो गए हैं, जिससे दुनिया को एक बार फिर से निष्पक्ष, स्वतंत्र, विविधतापूर्ण, स्वीकार्य और शांत बनाए रखने का संकल्प साकार हो सके ।
‘‘लोकतंत्रीकरण’’ अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में सुधारों के लिए मूल मंत्र है । अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की जिम्मेदारी है कि वे विविध लोगों के हितों और पूरी दुनिया के निवासियों की आवश्यकताओं व उम्मीदों को पूरा करने की दिशा में कार्य करें । इसके लिए आवश्यक है कि उत्तर और दक्षिण के देशों के बीच अधिकारों को निष्पक्ष ढंग से व नए सिरे से निर्धारित किया जाए । साथ ही नागरिकों, नागरिक संस्थाओं, प्रशासन के विभिन्न स्तरों आदि की अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं व मंचों पर अधिक से अधिक सहभागिता की संभावनाओं का विस्तार किया जाना होगा ।
पारदर्शिता, जनता के प्रति जवाबदेही, अधिकारों का विकेंद्रीकरण और आम लोगों को मदद की नीतियां ; लोकतंत्रीकरण की इस प्रक्रिया के मूलभूत गुण हो सकते हैं । लेकिन यह समझना जरूरी है कि लोकतंत्रीकरण केवल कामकाज के सवाल पर ही केंद्रित नहीं है । संयुक्त राष्ट्र की आम सभा की बैठकों में केवल देशों के प्रतिनिधियों की ही नहीं, दुनियाभर के आम नागरिकों की सीधी भागीदारी होना आवश्यक है । संयुक्त राष्ट्र को अपनी आम सभा का विस्तार करना होगा, धीरे-धीरे अन्य सभाओं और गोष्ठियों में एकरूपता लानी होगी, ताकि आम नागरिक पूरी व्यवस्था में अधिकार सहित निर्णायक भूमिका निभा सके । आवश्यक प्रस्तावों के मनोनयन तथा अन्य संस्थाओं, निकायों और व्यवस्था के कार्यक्रम तैयार करने वाले विभागों पर प्रभावी नियंत्रण उसके पास हो ।
विश्व परिदृश्य के सभी चर्चित चेहरों को अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में प्रभावी तरीके से सहभागिता का अधिकार होना चाहिए । साथ ही सभी के लिए विभिन्न प्रकार के प्रतिनिधित्व की व्यवस्था होना चाहिए । इसके अनुसार एक ऐसी संसदीय-सभा के गठन का कार्य किया जाना चाहिए, जो व्यवस्था के अंतर्गत आने वाली अन्य संस्थाओं के लिए अंतरराष्ट्रीय कानून बनाने, सुझाव देने व उसके क्रियान्वयन में सक्षम हो ।
बानगी के तौर पर सबसे पुरानी बहुपक्षीय संस्थाओं में से एक अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन(आईएलओ) को ही लें । व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए इस संस्था के लिए एक विशेष-सभा का गठन किया जा सकता है, जिसमें विभिन्न देशों के विभिन्न विभागों के प्रतिनिधि और सामाजिक संस्थाओं के चर्चित लोगों को शामिल किया जा सकता है ।
     विवादों को रोकने शांमि बनाए रखने के लिए अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को अपनी क्षमताओं का विकास करना होगा । इसके लिए आवश्यक है कि मानवीय सुरक्षा की सामूहिक व्यवस्था लागू की जाए । इससे किसी विवाद को सुलझाने के लिए फौजी ताकत के बनिस्पत कानून व पंचायती-निबटारे की प्रवृति को बढ़ावा मिलेगा । शांति और सुरक्षा संबंधी मामलों की जिम्मेदारी निभाने वाले विभागों को सभी पक्षों के विचारों को संतुलित तरीके से सुनना चाहिए । इन विभागों के पास इस तरह के अधिकार होना चाहिए कि वे अपने निर्णय को मानने के लिए सभी पक्षों को बाध्य कर सकें । इस  उद्देश्य की पूर्ति के लिए मौजूदा सुरक्षा परिषद में बदलाव और उसे प्रभावी रूप से संयुक्त राष्ट्र आम-सभा के अंतर्गत करना होगा ।  विश्व के सभी हिस्सों से विभिन्न क्षेत्रों के लोगों का प्रतिनिधित्व आम-सभा में भी होना चाहिए । ‘वीटो’ के इस्तेमाल का अधिकार कुछ मुद्दों तक ही सीमित कर देना चाहिए , हालांकि इस विशेष-अधिकार को समाप्त करने के लिए सतत कदम उठाए जाने चाहिए । बेहद महत्वपूर्ण विषयों पर मतदान को ‘योग्यता-बहुमत’ की प्रक्रिया के अनुसार निर्धारित करना होगा ।
ये बदलाव, सभी तरह के विवादों को प्रभावी तरीके से सुलझाने में सक्षम तो होंगे ही, साथ ही क्षेत्रीय संस्थाओं की मदद से विवादों से बचाव का तंत्र विकसित करने तथा विश्व स्तर की ताकतवर शांति-सेना गठित करने में भी इससे मदद मिलेगी । साथ ही साथ दुनिया में निःशस्त्रीकरण की, विशेषरूप से गैर-पारंपरिक हथियारों के निःशस्त्रीकरण की, शुरूआत भी होगी । हालांकि हमें यह याद रखना होगा कि विश्व के सभी देशों के बीच आपसी विश्वास की भावना स्थापित करना इसके लिए आवश्यक है । 
अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के वैश्विक व्यापक-अर्थशास्त्रीय प्रबंधन क्षमता का विस्तार वित्तीय, आर्थिक, व्यापार, सामाजिक और पर्यावरणीय नीतियों के माध्यम से होना चाहिए । इसमें सभी पक्षों के हितों को, विशेषरूप से गरीबों के हितों का ध्यान रखना होगा ।  विश्व की मुख्य समस्या - गरीबी और असमानता, के समाधान के लिए इन सभी नीतियों का क्रियान्वयन एकीकृत और समन्वित तरीके से किया जाना चाहिए । मानवाधिकारों को प्राथमिकता देनी होगी । आर्थिक नीतियों व सामाजिक अधिकारों तथा पर्यावरणीय मुद्दों के संदर्भित प्रसार हेतु अंतराष्ट्रीय -सभा में क्रमबद्ध प्राथमिकता तय करना अत्यावश्यक है ।
इस तरह के सुधारों के बदौलत विदेशी कर्ज, करों के बढ़ते बोझ, की समस्याओं के स्थाई हल का मार्ग प्रशस्त होगा । इससे सार्वभौमिक कराधान निगम जैसी परिकल्पना का साकार होना और  वैश्विक कर तथा विकास के कार्यों के लिए आधिकारिक रूप से धन की मदद में बढ़ौतरी भी होगी ।
इन सभी सुधारों और नीतियों के साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सशक्त लोकतांत्रिक व्यवस्था तो अनिवार्य रूप से सशक्त होगी ही ; साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपराध, सार्वजनिक, आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय कानूनों की सुरक्षा के भी उपाय स्वतः हो जाएंगे । इसके लिए हमें कानून सम्मत वैैश्विक  को सुनिश्चित करने के लिए आगे आना होगा ; वर्तमान अंतरराष्ट्रीय समझौतों को लागू करने की बाध्यता, मौजूदा अंतरराष्ट्रीय विधिक संस्थाओं को मजूबत बनाने और जिन अन्य क्षेत्रों में ऐसी संस्थाओं की आवश्कता हो, वहां नई संस्थाएं गठित करने के लिए त्वरित व परिणामदायी कदम उठाने होंगे । इन सबसे अधिक आवश्यक है कि सभी संस्थाओं को इन कानूनों के क्रियान्वयन के आवश्यक व अनिवार्य साधन व अधिकार उपलब्ध करवाए जाएं ।

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