कैसे बढ़े सीमा सुरक्षा बल का मनोबल
बीएसएफ
जवानों की कमी से बुरी तरह जूझ रही है और लगातार ड्यूटी, आराम के लिए
पर्याप्त समय न मिलने व परिवार से दूर रहने के अलावा जटिल सेवा के बावजूद
वेतन में विषमताओं जैसे कारणों के चलते इस बल के जवान आत्महत्या कर रहे
हैं। लंबे समय तक तनाव, असुरक्षा व एकांत के माहौल ने जवानों में दिल के
रोग बढ़ाए हैं। वहीं घर वालों का सुख-दुख न जान पाने का दर्द भी उनको भीतर
ही भीतर तोड़ता रहता है...
हाल ही में पठानकोट हमले के बाद सीमा सुरक्षा बल यानी बीएसएफ पर भी सवाल उठे। आखिर भारत की पाकिस्तान से लगी सीमा से कोई घुसपैठ हो तो उसे रोकने का जिम्मा इसी बल का है। सनद रहे सीमा पर पहली पंक्ति पर बीएसएफ होती है, जो घुसपैठ, तस्करी आदि रोकने के अलावा सीमा पर संदिग्ध गतिविधियों का निरीक्षण दूसरी तरफ से हुए हमले का तात्कालिक जवाब देने का काम करती है। हकीकत तो यह है कि बीएसएफ जवानों की कमी से बुरी तरह जूझ रही है और लगातार ड्यूटी, आराम के लिए पर्याप्त समय न मिलने व परिवार से दूर रहने के अलावा जटिल सेवा के बावजूद वेतन में विषमताओं जैसे कारणों के चलते इस बल के जवान आत्महत्या कर रहे हैं। यह दुखद है कि पिछले दिनों इसी बल के कुछ जवान दूसरे देश के लिए जानकारियां लीक करने के आरोप में भी पकड़े गए। यह हाल हमारी सेना व लगभग सभी अर्धसैनिक बलों का है। विडंबना है कि जवानों के इस तनाव, कुंठा और हताशा पर अध्ययन होते हैं, रपट बनती हैं, लेकिन उनको लागू नहीं किया जाता। बानगी है कि बीएसएफ के दो लाख 52 हजार जवानों को अनिवार्य आराम देने के लिए 25 हजार जवानों की नई बटालियन गठित करने का प्रस्ताव 15 महीने पहले भेजा गया था, जो अभी भी कहीं लाल बस्ते में बंद है। हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्रालय की एक संक्षिप्त रिपोर्ट बेहद गंभीर चेतावनी देती है। इसमें कहा गया है कि वर्ष 2014 में अर्धसैनिक बलों के 120 जवानों ने और 30 अप्रैल, 2015 तक 35 जवानों ने आत्महत्या की है। आत्महत्या करने वाले ये जवान सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स, सीमा सुरक्षा बल, भारत-तिब्बत सीमा पुलिस, सशस्त्र सीमा बल, केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल और असम राइफल्स जैसे केंद्रीय बलों में शामिल थे। केंद्रीय अर्धसैनिक बलों के जवानों की कुल संख्या करीब आठ लाख है। भारतीय सेना में हर साल औसतन 100 जवानों द्वारा खुदकुशी के आंकड़े हैं। इनमें से कई मामले तो बेहद दुखदाई होते हैं, जब कोई जवान
छुट्टी न मिलने जैसे साधारण से लगने वाले कारणों से रुष्ट हो कर बंदूक से पहले अपने ही साथियों को मारता है व फिर खुद को खत्म कर लेता है। ऐसे मामले हर साल दो से पांच सामने आते हैं। सेना व अर्धसैनिक बल के आला अफसरों पर लगातार विवाद होना, उन पर घूसखोरी के आरोप, सीमा या उपद्रवग्रस्त इलाकों में जवानों को माकूल सुविधाएं या स्थानीय मदद न मिलने के कारण उनके साथियों की मौतों, सिपाही स्तर पर भर्ती में घूसखोरी की खबरों आदि के चलते अनुशासन की मिसाल कहे जाने वाले हमारे सुरक्षा बलों का मनोबल गिरा है। बीते दस सालों में फौज के 1018 जवान व अफसर खुदकुशी कर चुके हैं। थल सेना के 119 जवानों ने 2011 में खुदकुशी कर ली थी, यह आंकड़ा सन् 2010 में 101 था। केंद्रीय आरक्षित पुलिस बल यानी सीआरपीएफ के 42 जवानों ने 2011 में और 28 ने 2010 में आत्महत्या की थी। बीएसएफ में यह आंकड़ा 39 और 29 (क्रमश: 2011 व 2010) रही है। इंडो तिब्बत सीमा बल यानी आईटीबीपी में 3 और पांच लोगों ने क्रमश: इन सालों में आत्महत्या की। वहीं अपने साथी को ही मार देने के औसतन बीस मामले हर साल सभी बलों में मिल कर सामने आ रहे हैं। ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ने कोई दस साल पहले एक जांच दल बनाया था, जिसकी रिपोर्ट जून-2004 में आई थी। इसमें घटिया सामाजिक परिवेश, प्रमोशन की कम संभावनाएं, अधिक काम, तनावग्रस्त कार्य, पर्यावरणीय बदलाव, वेतन-सुविधाएं जैसे मसलों पर कई सिफारिशें की गई थीं। इनमें संगठन स्तर पर 37 सिफारिशें, निजी स्तर पर आठ और सरकारी स्तर पर तीन सिफारिशें थीं। इनमें छुट्टी देने की नीति में सुधार, जवानों से नियमित वार्तालाप, शिकायत निवारण को मजबूत बनाना, मनोरंजन व खेल के अवसर उपलब्ध करवाने जैसे सुझाव थे। इन पर कागजी अमल भी हुआ, लेकिन जैसे-जैसे देश में उपद्रवग्रस्त इलाका बढ़ता जा रहा है, अर्ध सैनिक बलों व फौज के काम का दायरे में विस्तार हो रहा है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जनवरी 2009 से दिसंबर 2014 के बीच नक्सलियों से जूझते हुए केंद्रीय रिजर्व पुलिस यानी सीआरपीएफ के कुल 323 जवान देश के काम आए। वहीं इस अवधि में 642 सीआरपीएफ कर्मी दिल का दौरा पड़ने से मर गए। आत्महत्या करने वालों की संख्या 228 है। वहीं मलेरिया से मरने वालों का आंकड़ा भी 100 से पार है। अपने ही साथी या अफसर को गोली मार देने के मामले भी आए रोज सामने आ रहे हैं। कुल मिला कर सीआरपीएफ दुश्मन से नहीं खुद से ही जूझ रही है। सुदूर बाहर से आए केंद्रीय बलों के जवान न तो स्थानीय भूगोल से परिचित हैं, न ही उन्हें स्थानीय बोली-भाषा-संस्कार की जानकारी होती है और न ही उनका कोई अपना इंटेलिजेंस नेटवर्क बन पाया है। वे तो मूल रूप से स्थानीय पुलिस की सूचना या दिशा-निर्देश पर ही काम करते हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि स्थानीय पुलिस की फर्जी व शोषण की कार्यवाहियों के चलते
दूरस्थ अंचलों के ग्रामीण खाकी वर्दी पर भरोसा नहीं करते हैं। अधिकांश मामलों में स्थानीय पुलिस की गलत हरकतों का खामियाजा केंद्रीय बलों को झेलना पड़ता है। बेहद घने जंगलों में लगतार सर्चिग्ंा व पेट्रोलिंग का कार्य बेहद तनावभरा है, यहां दुश्मन अदृश्य है, हर दूसरे इंसान पर शक होता है, चाहे वह छोटा बच्चा हो या फिर फटेहाल ग्रामीण। पूरी तरह बस अविश्वास, अनजान भय और अंधी गली में मंजिल की तलाश। इस पर भी हाथ बंधे हुए, जिसकी डोर सियासती आकाओं के हाथों में। लगातार इस तरह का दवाब कई बार जवानों के लिए जानलेवा हो रहा है। सनद रहे सेना कभी आक्रमण के लिए और अर्धसैनिक बल निगरानी व सुरक्षा के लिए हुआ करते थे, लेकिन आज फौज की तैनाती और आपरेशन में राजनीतिक हितों के हावी होने का परिणाम है कि कश्मीर में फौज व अर्ध्य सैनिक बल चौबीसों घंटे तनावग्रस्त रहते हैं। एक तरफ अफसरों के मौखिक आदेश हैं तो दूसरी ओर बेकाबू आतंकवादी, तीसरी तरफ सियासती दांवपेच हैं तो चौथी ओर घर-परिवार से लगातार दूर रहने की चिंता। यही नहीं यदि किसी जवान से कुछ गलती या अपराध हो जाए तो उसके साथ न्याय यानी कोर्ट मार्शल की प्रक्रिया भी गौरतलब है। पहले से तय हो जाता है कि मुजरिम ने अपराध किया है और उसे कितनी सजा देनी है। इधर फौजी क्वाटर गार्ड में नारकीय जीवन बिताता है तो दूसरी ओर उसके परिवार वालों को खबर तक नहीं दी जाती। नियमानुसार आरोपी के परिवाजन को चार्ज शीट के बारे में सूचित किया जाना चाहिए, ताकि वे उसके बचाव की व्यवस्था कर सकें। लेकिन अधिकांश मामलों में सजा पूरी होने तक घर वालों को सूचना ही नहीं दी जाती है। उल्लेखनीय है कि अधिकांश जवान दूरस्थ ग्रामीण अंचलों से बेहद कम आय वाले परिवारों से आते हैं। सुदूर इलाकों में अपने अर्धसैनिक बलों के पदस्थापना वाले स्थानों पर मोबाइल नेटवर्क का कमजोर होना भी जवानों के तनाव व मौत का कारण बना हुआ है। सनद रहे कि बस्तर का क्षेत्रफल केरल राज्य से ज्यादा है। यहां बेहद घने जंगल हैं और उसकी तुलना में मोबाइल के टावर बेहद कम हैं। आंचलिक क्षेत्रों में नक्सली टावर टिकने नहीं देते तो कस्बाई इलाकों में बिजली ठीक न मिलने से टावर कमजोर रहते हैं। बेहद तनाव की जिंदगी जीने वाला जवान कभी चाहे कि अपने घर वालों का हालचाल जान ले तो भी वह बड़े तनाव का मसला होता है। कई बार यह भी देखने में आया कि सिगनल कमजोर मिलने पर जवान फोन पर बात करने कैंप से कुछ बाहर निकला और नक्सलियों ने उनका शिकार कर दिया। सीआरपीएफ की रपट में यह माना गया है कि लंबे समय तक तनाव, असुरक्षा व एकांत के माहौल ने जवानों में दिल के रोग बढ़ाए हैं। वहीं घर वालों का सुख-दुख न जान पाने का दर्द भी उनको भीतर ही भीतर तोड़ता रहता है। तिस पर वहां मनोरंजन के कोई साधन हैं नहीं और न ही जवान के पास उसके लिए समय है। देश में अभी भी फौजी व अर्ध सैनिक बलों की वर्दी के प्रति विश्वास बचा हुआ है, शायद इसलिए के आम फौजी समाज से ज्यादा घुल-मिल नहीं पाता है और न ही अपना दर्द बयां कर पाता है। वहां की अंदरूनी कहानी कुछ और है। देहरादून, महु, पुणे, चंडीगढ़ जैसी फौजी बस्तियों में सेना के आला रिटायर्ड अफसरों की कोठियों के निर्माण में रंगरूट यानी नई भर्ती वाला जवान ईंट-सीमेंट की तगारियां ढोते मिल जाएगा। जिस सिपाही को देश की चौकसी के लिए तैयार किया जाता है, वह डेढ़ सौ रुपए रोज के मजदूरों की जगह काम करने पर मजबूर होता है। रक्षा मंत्रालय हर साल कई-कई निर्देश सभी यूनिटों में भेजता है कि फौजी अफसर अपने घरों में सिपाहियों को बतौर बटमेन यानी घरेलू नौकर न लगाएं, फिर भी 20-25 हजार का वेतन पाने वाले दो-तीन जवान हर अफसर के घर सब्जी ढोते मिल जाते हैं। ऐसे ही हालत अर्धसैनिक बलों की भी है। आमतौर पर जवानों को अपने घर-परिवार को साथ रखने की सुविधा नहीं होती है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि गैर अधिकारी वर्ग के अस्सी फीसदी सुरक्षाकर्मी छावनी इलाकों में घुटनभरे कमरे में मच्छरदानी लगी एक खटिया, उसके नीचे रखा बड़ा सा बक्सा में ही अपना जीवन काटते हैं। उसके ठीक सामने अफसरों की पांच सितारा मेस होती है। सेना व अर्ध सैनिक मामलों को राष्ट्रहित का बता कर उसे अतिगोपनीय कह दिया जाता है और ऐसी दिक्कतों पर अफसर व नेता सार्वजनिक बयान देने से बचते हैं। जबकि वहां मानवाधिकारों और सेवा नियमों का जम कर उल्लंघन होता रहता है। आज विभिन्न हाईकोर्ट में सैन्य बलों से जुड़े आठ हजार से ज्यादा मामले लंबित हैं। अकेले सन 2009 में सुरक्षा बलों के 44 हजार लोगों द्वारा इस्तीफा देने, जिसमें 36 हजार सीआरपीएफ व बीएसएफ के हैं, संसद में एक सवाल में स्वीकारा गया है। साफ दिख रहा है कि जवानों के काम करने के हालात सुधारे बगैर मुल्क के सामने आने वाली सुरक्षा चुनौतियों से सटीक लहजे में निबटना कठिन होता जा रहा है। नियमित अवकाश, अफसर से बेहतर संवाद, सुदूर नियुक्त जवान के परिवार की स्थानीय परेशानियों के निराकरण के लिए स्थानीय प्रशासन की प्राथमिकता व तत्परता, जवानों के मनोरंजन के अवसर, उनके लिए पानी, चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं को पूरा करना आदि ऐसे कदम हैं, जो फौज में अनुशासन व कार्य प्रतिबद्धता, दोनों को बनाए रख सकते हैं।
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= पंकज चतुर्वेदी
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