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बुधवार, 20 अप्रैल 2016

Drought needs constant attantion

हर समय तैयार रहना होगा अल्प वर्षा के लिए
.पंकज चतुर्वेदी


   
लगातार चैथे साल सूखा झेल रहे बुंदेलखंड व मराठवाड़ा के अंचलों में प्यास व पलायन से हालात भयावह है। जंगलों में पालतू मवेशियों की लाशों का अंबार लग गया है और अभी तक सरकार तय नहीं कर पा रही है कि सूखे से जूझा कैसे जाए? जब पानी नहीं है तो राहत का पैसा लेकर लोग क्या करेंगे? महज खेत या किसान ही नहीं, खेतों में काम करने वाले मजदूर व अन्य श्रमिक वर्ग भी सूखे से बेहाल है। अब यह जान लेना चाहिए कि सूखे या पानी की कमी के लिए हमें हर साल मौसम विभाग या पटवारी की गिरदावरी का इंतजार नहीं करना चाहिए। हमने अपने पारंपरिक जल संसाधनों की जो दुर्गति की है, जिस तरह नदियों के साथ खिलवाड़ किया है, खेतों में रासायनिक खाद व दवा के प्रयोग से सिंचाई की जरूरत में इजाफा किया है, इसके साथ ही धरती का बढ़ता तापमान, भौतिक सुखों के लिए पानी की बढ़ती मांग और भी कई कारक हैं जिनसे पानी की कमी तो होना ही है। ऐसे में सारे साल, पूरे देश में, कम पानी से बेहतर जीवन और जल-प्रबंधन, ग्रामीण अंचल में पलायन थामने और वैकल्पिक रोजगार मुहैया करवाने की योजनाएं बनाना अनिवार्य हो गया है।
इन दिनेां सुप्रीम कोर्ट एक संगठन की जनहित याचिका पर देश में सूखे के हालात पर शासकीय कोताही की धज्जियों उड़ा रहा है। राज्य अपने यहां सूखे के सही हालात का आकलन तक नहीं कर पा रहे हैं जाहिर है कि जब तक आंकड़े जमा होंगे तब तक बारिश हो जाएगी व लोक समाज अपना पुराना दर्द भूल कर आगे की तैयारी में लग जाएगा व सरकारी अमला सुप्तावस्था में होगा। यह बानगी है कि हमारी व्यवस्था किस तरह सांप निकल जाने के बाद लाठी पीटने व लाल बस्ते के घोड़े दौड़ाने में ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती है।    
आंखें आसमान पर टिकी हैं, तेज धूप में चमकता साफ नीला आसमान! कहीं कोई काला-घना बादल दिख जाए इसी उम्मीद में आषाढ़ निकल गया। सावन में छींटे भी नहीं पड़े। भादो में दो दिन पानी बरसा तो, लेकिन गरमी से बेहाल धरती पर बूंदे गिरीं और भाप बन गईं। अब.... ? अब क्या होगा.... ?  यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है। देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि  करती है। खतरा यह है कि ऐसे जिलों की संख्या अब बढ़ती जा रही है। इस बार यह संक्ष्या 230 के पार है।
असल में इस बात को लेाग नजरअंदाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ बारिश भी हो और प्रबंधन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है। एक तो यह जान लें कि पानी उलीचने की मशीनों ने पानी की सबसे ज्यादा बर्बादी की हे। जब आंगन में एक कुंआ होता था तो इंसान अपनी जरूरत की एक बाल्टी खींचता था और उसी से काम चलाता था। आज एक गिलास पानी के लिए भी हैंड पंप या बिजली संचालित मोटर का बटन दबा कर एक बाल्टी से ज्यादा पानी बेकार कर देता है। दूसरा शहरी नालियों की प्रणाली, और उनका स्थानीय नदियों में मिलना व उस पानी का सीधा समुद्र के खारे पान में घुल जाने के बीच जमीन में पानी की नमी को सहेज कर रखने के साधन कम हो गए हे।ं कुएं तो लगभग खतम हो गए, बावड़ी जैसी संरचनांए उपेक्षा की खंडहर बन गईं व तालाब गंदा पानी निस्तारण के नाबदान । जरा इस व्यवस्था को भी सुधारना होगा या यों कहं कि इसके लिए अपने अतीन व परंपरा की
ओर लौटना होगा।
जरा सरकारी घोशणा के बाद उपजे आतंक की हकीकत जानने के लिए देष की जल-कुंडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाध्नों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिषत है। हमें हर साल बारिष से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1122 घन मीटर पानी ही काम आता है। जाहिर है कि बारिष का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हां, एक बात सही है कि कम बारिष में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन व अन्य केष क्राप ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है। इसके चलते बारिष पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थेाड़ा भी कम पान बरसने पर किसान रोता दिखता है। देष के उत्तरी हिस्से में नदियो में पानी  का अस्सी फीसदी जूमन से सितंबर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में  यह आंकडा 90 प्रतिषत का है। जाहिर है कि षेश आठ महीनों में पानी की जुगाड़ ना तो बारिष से होती है और ना ही नदियों से। जाहिर है कि इन समस्याओं के लिए इंद्र की कम कृपा की बात करने वाले असल में अपनी नाकामियों का ठीकरा ऊपर वाले पर फोड़ देते हैं ।
    कहने को तो सूखा एक प्राकृतिक संकट है, लेकिन आज विकास के नाम पर इंसान ने भी बहुत कुछ ऐसा किया है जो कम बारिश के लिए जिम्मेदार है। राजस्थान के रेगिस्तान और कच्छ के रण गवाह हैं कि पानी कमी इंसान के जीवन के रंगो को मुरझा नहीं सकती है। वहां सदियों से, पीढि़यों से बेहद कम बारिश्ष होती है। इसके बावजूद वहां लोगों की बस्तियांॅ हैं, उन लोगों का बहुरंगी लोक-रंग है। वे कम पानी में जीवन जीना और पानी की हर बूंद को सहेजना जानते हैं। सबसे बड़ी बात अब यह विचार करना होगा कि किन इलाकों में किस तरह की फसल हो या कौन सी परियोजनाए हों। अब मराठवाड़ा के लेाग महसूस कर रहे हैं कि जिस पैसे के लालच में उन्होंने गन्ने की अंधाधंुध फसल उगाई वही उन्हें प्यासा कर गया है। गन्ने में पानी की खपत ज्यादा होती है, लेकिन इलाके के ताकतवर नेताओं की चीनी मिलों के लिए वहां गन्ना उगवाया गया था।
बुंदेलखंड में लागातर सूखे के हालात किसी से छिपे नहीं हैं। यहां गांव के गांव वीरान हैं, पानी की कमी के चलते। मनगरेगा या अन्य सरकारी योजना में काम करने वले मजदूर नहीं है, क्योंकि लोग बगैर पानी के महज पैसा ले कर क्या करेंगे। इस ग्रेनाईट संरचना वाले पठारी इलाके का सूखे या अल्प वर्शा से साथ सदियों का है। जाहिर है कि यहां ऐसी गतिविधियों को प्राथमिकता दी जाना थी जिसमें पानी का इस्तेमाल कम हो, लेकिन यहां खजुराहो के पास 17 करोड़ का एनटीपीसी की बिजली परियोजना पर काम चल रहा है। इसमें 650 मेगावाट के तीन हिस्से हैं, जाहिर है कि कोयला आधारित इस परियोजना में अंधाधुंध पानी की जरूरत होती है। यही नहीं इस्तेमाल के बाद निकला उच्च तापमान वाला दूशित पानी का निबटारा भी एक बड़ा संकट होता है। इसके लिए मझगांव बांध और ष्यामरी नदी से पानी लेने की योजना है। जाहिर है कि इलाके की जल कंुडली में ‘‘कंगाली में आटा गीला’’ होगा। विडंबना है कि उच्च स्तर पर बैठे लेागों ने महाराश्ट्रके दाभौल में बंद हुए एनराॅन परियोजना के बंद होने के उदाहरण से कुछ सीखा नहीं।
यह तो बानगी है कि हम पानी को ले कर कितने गैरसंवेदनषील  हैं। इस साल के बजट में केंद्र सरकार ने पांच लाख खेत-तालाब बनाने के लिए बजट का प्रावधान रखा है,। प्रधानमंत्रीजी के पिछले मन की बात प्रसारण में भी कई लाख तालाब खोदने पर जोर दिया गया था। जाहिर है कि बादल से बरसते ंपानी को बेकार होने से रोकने के लिए तालाब जैसी संरचनाओं को सहेजना अब अनिवार्यता है। लेकिन हकीकत में हम अभी भी तालाबों को सहेजने के संकल्प को दिल से स्वीकार नहीं कर पाए है।। इटावा के प्राचीन तालाब को वहां की नगर पालिका टाईल्स लगवा कर पक्का कर रही है। षायद यह जाने बगैर कि इससे एकबारगी तालाब सुदर तो दिखने लगेगा, लेकिन उसके बाद वह तालाब नहीं रह जाएगा और उसमें पानी भी बाहरी स्त्रोत से भरना होगा। इसके पक्का होने के बाद ना तो मिट्टी की नमी बरकरार रहेगी और ना ही पर्यावरणीय तंत्र। ज्यादा दूर क्या जाएं, दिल्ली से सटे गाजियाबाद में ही पिछले साल नगर निगम के बजट में पारंपरिक तालाबों को सहेजने के लिए पचास लाख के बजट का प्रावधान था, लेकिन उसमें से एक छदाम भी खर्च नहीं की गई। यहां वार्ड क्रमांक छह के बहरामपुर गांव के पुराने तालाब को हाल ही में मषीनों से समतल कर बिजलीघर बनाने के लिए दे दिया गया। सरकारी अभिलेख में यह स्थान जोहड़ की जमीन के तौर पर 2910 हैक्टेयर क्षेत्र में दर्ज है।  इससे पहले यहां सामुदायिक भवन बनाने की योजना भी थी। अब समय आ गया है कि सरकार व समाज ऐसी गलतियों को छोटा मानकर नजरअंदाज करने की प्रवृति से पूरी तरह बचे। यही आगे चल कर भारी जल संकट का कारक बनते हैं।
आज यह आवष्यक हो गया है कि किसी इलाके को सूखाग्रस्त घोशित करने, वहां राहत के लिए पैसा भेजने जैसी पारंपरिक व छिद्रयुक्त योजनाओं को रोक जाए, इसके स्थान पर पूरे देष के संभावित अल्प वर्शा वाले क्षेत्रों में जल संचयन, खेती, रोजगार, पषुपालन क की नई परियोजनाएं स्थाई रूप् से लागू की जाएं जाकि इस आपदा को आतंक के रूप में नहीं, प्रकृतिजन्य अनियमितता मान कर सहजता से जूझा जा सके। कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस एक तो हर साल, हर महीने इस बात के लिए तैयारी करना होगा कि पानी की कमी है। दूसरा ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्शा से जुड़ी परेषानियों के निराकरण के लिए सूखे का इंतजार करने के बनिस्पत इसे नियमित कार्य मानना होगा। कम पानी में उगने वाली फसलें, कम से कम रसायन का इस्तेमाल, पारंपरिक जल संरक्षण प्रणालियों को जिलाना, ग्राम स्तर पर विकास व खेती की योजना तैयार करना आदि ऐसे प्रयास है जो सूखे पर भारी पड़ेंगे।

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