टके सेर टमाटर |
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सनद रहे मालवा अंचल में होली पर रंग नहीं खेला जाता, रंगपंचमी
पर ही अबीर-गुलाल उड़ता है. मंडी में टमाटर की एक क्रैट यानी लगभग 25 किलो
के महज पचास रुपये मिल रहे थे, जबकि फसल को मंडी तक लाने का किराया प्रति
क्रेट रु. 25, तुड़ाई रु. 10, हम्माली रु. 5 व दीगर खर्च मिला कर कुल 48
रुपये का खर्च आ रहा था. अब दो रुपये के लिए व क्या दिनभर मंडी में दिन
खपाते.
यही हाल गुजरात के साबरकांठा जिले के टमाटर उत्पादक गांवों-ईडर, वडाली, हिम्मतनगर आदि का है. जब किसानों ने टमाटर बोए थे तब उसके दाम तीन सौ रुपये प्रति बीस किलो थे. लेकिन पिछले पखवाड़े जब उनकी फसल आई तो मंडी में इसके तीस रुपये देने वाले भी नहीं थे. थक-हारकर किसानों ने फसल मवेशियों को खिला दी. गुजरात में गांवों तक अच्छी सड़क है, मंडी में भी पारदर्शिता है, लेकिन किसान को उसकी लागत का दाम भी नहीं.
जिन इलाकों में टमाटर का यह हाल हुआ, वे भीषण गर्मी की चपेट में आए हैं और वहां कोल्ड स्टोरेज की सुविधा है नहीं, सो फसल सड़े इससे बेहतर उसको मुफ्त में ही लोगों के बीच डाल दिया गया. सनद रहे इस समय दिल्ली एनसीआर में टमाटर के दाम चालीस रुपये किलो से कम नहीं है. यदि ये दाम और बढ़े तो सारा मीडिया व प्रशासन इस की चिंता करने लगेगा, लेकिन किसान की चार महीने की मेहनत व लागत मिट्टी में मिल गई तो कहीं चर्चा तक नहीं हुई.
भोपाल की करोद मंडी में इस समय प्याज के दाम महज दो सौ से छह सौ रुपये
कुंटल है. आढ़तिये मात्र दो-तीन रुपये किलो के लाभ पर माल दिल्ली बेच रहे
हैं. यहां हर दिन कोई 1500 क्विंटल प्याज आ रहा है. वेयर हाउस वाले प्याज
गीला होने के कारण उसे रखने को तैयार नहीं है, जबकि जबरदस्त फसल होने के
कारण मंडी में इतना माल है कि किसान को उसकी लागत भी नहीं निकल रही है.
याद करें यह वही प्याज है जो पिछले साल सौ रुपये किलो तक बिका था. नीमच, मंदसौर में तो किसान प्याज की अच्छी फसल होने पर आंसू बहा रहा है. वहां प्याज तीस पैसे किलो भी नहीं बिक रहा. आज के हालात यह है कि किसान की प्याज उनके घर-खेत पर ही सड़ रहा है. अभी छह महीने पहले पश्चिम बंगाल में यही हाल आलू के किसानों का हुआ था व हालात से हार कर 12 आलू किसानों ने आत्महत्या का मार्ग चुना था.
हर दूसरे-तीसरे साल कर्नाटक के कई जिलों के किसान अपने तीखे स्वाद के लिए मशहूर हरी मिर्च को सड़क पर लावारिस फेंक कर अपनी हताशा का प्रदर्शन करते हैं. उम्मीद से अधिक हुई फसल सुनहरे कल की उम्मीदों पर पानी फेर देती है. साथ होती है तो केवल एक चिंता. मिर्ची की खेती के लिए बीज,खाद के लिए लिए गए कज्रे को कैसे उतारा जाए? सियासतदां हजारों किसानों की इस बर्बादी से बेखबर हैं.
दुख की बात यह नहीं है कि वे बेखबर हैं, विडंबना यह है कि कर्नाटक में ऐसा लगभग हर साल किसी न किसी फसल के साथ होता है. सरकारी और निजी कंपनियां सपने दिखा कर ज्यादा फसल देने वाले बीजों को बेचती हैं, जब फसल बेहतरीन होती है तो दाम इतने कम मिलते हैं कि लागत भी ना निकले.
कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देष में कृषि उत्पाद के न्यूनतम मूल्य, उत्पाद खरीदी, बिचौलियों की भूमिका, किसान को भंडारण का हक, फसल-प्रबंधन जैसे मुद्दे, गौण दिखते हैं और यह हमारे लोकतंत्र की आम आदमी के प्रति संवेदनहीनता की प्रमाण है.
सब्जी, फल और दूसरी कैश-क्राप को बगैर सोचे-समझे प्रोत्साहित करने के दुष्परिणाम दाल, तेल-बीजों (तिलहनों) और अन्य खाद्य पदाथरे के उत्पादन में संकट की सीमा तक कमी के रूप में सामने आ रहे हैं. जरूरत है कि खेतों में कौन-सी फसल और कितनी उगाई जाए, पैदा फसल का एक-एक कतरा श्रम का सही मूल्यांकन करे. इसकी नीतियां ताल्लुका या जनपद स्तर पर ही बनें. कोल्ड स्टोरेज या वेअर हाउस पर किसान का कब्जा हो. ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों की सहकारी संस्थाओं द्वारा संचालित प्रसंस्करण के कारखाने लगें.
यही हाल गुजरात के साबरकांठा जिले के टमाटर उत्पादक गांवों-ईडर, वडाली, हिम्मतनगर आदि का है. जब किसानों ने टमाटर बोए थे तब उसके दाम तीन सौ रुपये प्रति बीस किलो थे. लेकिन पिछले पखवाड़े जब उनकी फसल आई तो मंडी में इसके तीस रुपये देने वाले भी नहीं थे. थक-हारकर किसानों ने फसल मवेशियों को खिला दी. गुजरात में गांवों तक अच्छी सड़क है, मंडी में भी पारदर्शिता है, लेकिन किसान को उसकी लागत का दाम भी नहीं.
जिन इलाकों में टमाटर का यह हाल हुआ, वे भीषण गर्मी की चपेट में आए हैं और वहां कोल्ड स्टोरेज की सुविधा है नहीं, सो फसल सड़े इससे बेहतर उसको मुफ्त में ही लोगों के बीच डाल दिया गया. सनद रहे इस समय दिल्ली एनसीआर में टमाटर के दाम चालीस रुपये किलो से कम नहीं है. यदि ये दाम और बढ़े तो सारा मीडिया व प्रशासन इस की चिंता करने लगेगा, लेकिन किसान की चार महीने की मेहनत व लागत मिट्टी में मिल गई तो कहीं चर्चा तक नहीं हुई.
बुंदेलखंड व मराठवाड़ा-विदर्भ में किसान इसलिए आत्महत्या कर रहा है कि
पानी की कमी के कारण उसके खेत में कुछ उगा नहीं, लेकिन इन स्थानों से कुछ
सौ किलोमीटर दूर ही मध्य प्रदेश के मालवा-निमाड़ इलाके के किसान की दिक्कत
उसकी बंपर फसल है.
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याद करें यह वही प्याज है जो पिछले साल सौ रुपये किलो तक बिका था. नीमच, मंदसौर में तो किसान प्याज की अच्छी फसल होने पर आंसू बहा रहा है. वहां प्याज तीस पैसे किलो भी नहीं बिक रहा. आज के हालात यह है कि किसान की प्याज उनके घर-खेत पर ही सड़ रहा है. अभी छह महीने पहले पश्चिम बंगाल में यही हाल आलू के किसानों का हुआ था व हालात से हार कर 12 आलू किसानों ने आत्महत्या का मार्ग चुना था.
हर दूसरे-तीसरे साल कर्नाटक के कई जिलों के किसान अपने तीखे स्वाद के लिए मशहूर हरी मिर्च को सड़क पर लावारिस फेंक कर अपनी हताशा का प्रदर्शन करते हैं. उम्मीद से अधिक हुई फसल सुनहरे कल की उम्मीदों पर पानी फेर देती है. साथ होती है तो केवल एक चिंता. मिर्ची की खेती के लिए बीज,खाद के लिए लिए गए कज्रे को कैसे उतारा जाए? सियासतदां हजारों किसानों की इस बर्बादी से बेखबर हैं.
दुख की बात यह नहीं है कि वे बेखबर हैं, विडंबना यह है कि कर्नाटक में ऐसा लगभग हर साल किसी न किसी फसल के साथ होता है. सरकारी और निजी कंपनियां सपने दिखा कर ज्यादा फसल देने वाले बीजों को बेचती हैं, जब फसल बेहतरीन होती है तो दाम इतने कम मिलते हैं कि लागत भी ना निकले.
कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देष में कृषि उत्पाद के न्यूनतम मूल्य, उत्पाद खरीदी, बिचौलियों की भूमिका, किसान को भंडारण का हक, फसल-प्रबंधन जैसे मुद्दे, गौण दिखते हैं और यह हमारे लोकतंत्र की आम आदमी के प्रति संवेदनहीनता की प्रमाण है.
सब्जी, फल और दूसरी कैश-क्राप को बगैर सोचे-समझे प्रोत्साहित करने के दुष्परिणाम दाल, तेल-बीजों (तिलहनों) और अन्य खाद्य पदाथरे के उत्पादन में संकट की सीमा तक कमी के रूप में सामने आ रहे हैं. जरूरत है कि खेतों में कौन-सी फसल और कितनी उगाई जाए, पैदा फसल का एक-एक कतरा श्रम का सही मूल्यांकन करे. इसकी नीतियां ताल्लुका या जनपद स्तर पर ही बनें. कोल्ड स्टोरेज या वेअर हाउस पर किसान का कब्जा हो. ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों की सहकारी संस्थाओं द्वारा संचालित प्रसंस्करण के कारखाने लगें.
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