पर्यावरण विरोधी है आईपीएल
एक
मैच के दौरान व्यय बिजली, पानी, वहाँ बजने वाले संगीत के शोर, वहाँ
पहुँचने वाले लोगों के आवागमन और उससे उपजे सड़क जाम से हो रहे प्रदूषण से
प्राकृतिक संसाधनों का नुकसान तो हो ही रहा है, साथ ही यह सब गतिविधियाँ
कार्बन का उत्सर्जन बढ़ाती है। अभी हम ‘अर्थ ऑवर’ मनाकर एक घंटे बिजली
उपकरण बन्द कर इसी कार्बन उत्सर्जन को कम करने का स्वांग करेंगे। हकीकत तो
यह है कि पूरा देश जितना कार्बन उत्सर्जन एक ‘अर्थ ऑवर’ में कम करेगा, उतना
तो पदो-तीच आईपीएल मैच में ही हिसाब बराबर हो जाएगा।
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यह तथ्य अभी दबा-छुपा है कि आईपीएल के नाम पर इतनी बिजली स्टेडियमों में फूँकी जा रही है, जितने से कई गाँवों को साल भर रोशनी दी जा सकती है। यहाँ यह जानना भी जरूरी है कि बिजली के बेजा इस्तेमाल से हमारा कार्बन फुट प्रिंट अनुपात बढ़ रह है और हम संयुक्त राष्ट्र में वायदा कर चुके हैं कि आने वाले सालों में हमारा कार्बन उत्सर्जन कम होगा। यह तो सभी जानते हैं कि वायुमण्डल में सभी गैसों की मात्रा तय है और 750 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में वातावरण में मौजूद है।
कार्बन की मात्रा बढ़ने का दुष्परिणाम है कि जलवायु परिवर्तन व धरती के गरम होने जैसेे प्रकृतिनाशक बदलाव हम झेल रहे हैं। कार्बन की मात्रा में इजाफे से दुनिया पर तूफान, कीटों के प्रकोप, सुनामी या ज्वालामुखी जैसे खतरे मँडरा रहे हैं। दुनिया पर तेजाबी बारिश की सम्भावना बढ़ने का कारक भी है कार्बन की बेलगाम मात्रा। जब देश का बड़ा हिस्सा खेतों में सिंचाई या घरों में रोशनी के लिये बिजली आने का इन्तजार कर रहा होगा, तब देश के किसी महानगर में हजारों लोग ऊँचे खम्बों पर लगी हजारों फ्लड-लाइटों में मैच का लुत्फ उठा रहे होंगे।
जनता के प्रति जवाबदेह कहलाने वाले स्थानीय अफसर, नेता रात्रि क्रिकेट का लुत्फ उठाते हैं। उन्हें इस बात की कतई परवाह नहीं रहती कि स्टेडियम को जगमगाने के लिये कई गाँवों में अन्धेरा किया गया होगा। सनद रहे कि आईपीएल के दौरान भारत के विभिन्न शहरों में 15 अप्रैल से 29 मई के बीच कुल 60 मैेच हो रहे हैं, जिनमें से 48 तो रात आठ बजे से ही हैं। बाकी मैच भी दिन में चार बजे से शुरू होंगे यानी इनके लिये भी स्टेडियम में बिजली से उजाला करना ही होगा। जाहिर है कि इन मैचों में कम-से-कम आठ घंटे स्टेडियम को जगमगाने के लिये बिजली फूँकी जाएगी।
रात के क्रिकेट मैचों के दौरान आमतौर पर स्टेडियम के चारों कोनों पर एक-एक प्रकाशयुक्त टावर होता है। हरेक टावर में 140 मेटल हेलाईड बल्ब लगे होते हैं इस एक बल्ब की बिजली खपत क्षमता 180 वाट होती है। यानी एक टावर पर 2,52000 वाट या 252 किलोवाट बिजली फुँकती है।
इस हिसाब से समूचे मैदान को जगमगाने के लिये चारों टावरों पर 1008 किलोवाट बिजली की आवश्यकता होती हैं । रात्रिकालीन मैच के दौरान कम-से-कम छह घंटे तक चारों टावर की सभी लाइटें जलती ही हैं। अर्थात एक मैच के लिये 6048 किलोवाट प्रति घंटा की दर से बिजली की जरूरत होती है। इसके अलावा एक मैच के लिये दो दिन कुछ घंटे अभ्यास भी किया जाता है। इसमें भी 4000 किलोवाट प्रतिघंटा (केवीएच) बिजली लगती है। अर्थात एक मैच के आयोजन में दस हजार केवीएच बिजली इसके अतिरिक्त हैं।
दूसरी तरफ एक गाँव का घर जहाँ दो लाइटें, दो पंखे, एक टीवी और अन्य उपकरण हैं, में दैनिक बिजली खपत .5 केवीएच है। एक मैच के आयोजन में खर्च 10 हजार केवीएच बिजली को यदि इस घर की जरूरत पर खर्च किया जाये तो वह बीस हजार दिन यानी 54 वर्ष से अधिक चलेगी। यदि किसी गाँव में सौ घर हैं और प्रति घर में औसतन 0.5 केवीएच बिजली खर्च होती है, तो वहाँ 50 केवीएच प्रतिदिन की बिजली माँग होगी।
जाहिर है कि यदि एक क्रिकेट मैच दिन की रोशनी मेें खेल लिया जाये तो उससे बची बिजली से एक गाँव में 200 दिन तक निर्बाध बिजली सप्लाई की जा सकती है। काश ये सभी मैच सूर्य के प्रकाश में आयोजित किये जाते तो कई गाँवों को गर्मी के तीन महीने बिजली की किल्लत से निजात मिल सकती थी और यह तथ्य सभी खेल विशेषज्ञ भी स्वीकारते हैं कि प्राकृतिक प्रकाश में खेल का मजा ही कुछ और होता है।
हमारे देश के कुल 5,79,00 आबाद गाँवों में से 82,800 गाँवों तक बिजली की लाइन ना पहुँचने की बात स्वयं सरकारी रिकार्ड कबूल करता है। जरूरत की तुलना में 16.5 प्रतिशत बिजली का उत्पादन कम हो पा रहा है, यह अलग से है। चोरी, बिजली सप्लाई में तारों द्वारा अवशोषण व अन्य कारणों के चलते उपभोक्ताओं की आवश्यकता से लगभग 40 फीसदी बिजली की कमी है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में कुल उत्पादित बिजली के मात्र 35 फीसदी का ही वास्तविक उपभोग हो पाता है। वरना देश में कभी बिजली की कमी ही नहीं रहे।
हर साल देश के कोने-कोने में खेतों को बिजली की बाधित आपूर्ति के कारण माकूल सिंचाई नहीं हो पाने से हजारों एकड़ फसल नष्ट होने के किस्से सुनाई देते हैं। इस अत्यावश्यक माँग से बेखबर तथाकथित खेल प्रेमी बिजली माँग के पीक-आवर यानी शाम छह बजे से रात साढ़े नौ के बीच सैंकड़ों गाँवों में अन्धेरा कर एक स्टेडियम को रोशन करते हैं। यह कहाँ तक न्यायोचित है? इसके अलावा देर रात तक मैच देखकर अगले दिन अपने दफ्तरों में देर से पहुँचने या सोने के कारण होने वाले काम के हर्जे से हुए सरकारी नुकसान का तो कोई आकलन नहीं है।
जनता की मूलभूत जरूरतों में जबरिया कटौती कर कतिपय लोगों के ऐशो-आराम के लिये रात में क्रिकेट मैच आयोजित करना कुछ यूरोपीय देशों की नकल से अधिक कुछ नहीं है। यूरोपीय देशों में साफ आसमान नहीं रहने और जल्दी सूर्यास्त होने की समस्या रहती है। साथ ही वहाँ बिजली का उत्पादन माँग से बहुत अधिक है।
चूँकि उन देशों में लोग दिन के समय अपने जीविकोपार्जन के कार्यों में व्यस्त रहते हैं, अतएव वहाँ कृत्रिम प्रकाश में रात में क्रिकेट खेलना लाजिमी व तर्कसंगत है। लेकिन भारत में जहाँ एक तरफ बिजली की त्राहि-त्राहि मची है, वहीं सूर्य देवता यहाँ भरपूर मेहरबान हैं। वैसे भी यह महीने सूर्य देवता के भरपूर आशीर्वाद के हैं फिर यहाँ का क्रिकेट प्रेमी जगत अपनी शान बघारने के लिये जरूरी काम छोड़कर मैच देखने के लिये स्टेडियम में दिन भर बैठने को तत्पर रहता है। फिर भी रात्रि मैच की अंधी नकल करना क्या खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारना नहीं है?
याद रहे एक मैच के दौरान व्यय बिजली, पानी, वहाँ बजने वाले संगीत के शोर, वहाँ पहुँचने वाले लोगों के आवागमन और उससे उपजे सड़क जाम से हो रहे प्रदूषण से प्राकृतिक संसाधनों का नुकसान तो हो ही रहा है, साथ ही यह सब गतिविधियाँ कार्बन का उत्सर्जन बढ़ाती है। अभी हम ‘अर्थ ऑवर’ मनाकर एक घंटे बिजली उपकरण बन्द कर इसी कार्बन उत्सर्जन को कम करने का स्वांग करेंगे। हकीकत तो यह है कि पूरा देश जितना कार्बन उत्सर्जन एक ‘अर्थ ऑवर’ में कम करेगा, उतना तो पदो-तीच आईपीएल मैच में ही हिसाब बराबर हो जाएगा। इन मैचों से उत्पादित हो रहे सामाजिक-सांस्कृतिक प्रदूषण के परिमाप की गणना तो कहीं कोई कर नहीं रहा है।
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