विवादों से परे रखें वंदेमातरम को
पंकज चतुर्वेदीऔवेसी ने अपनी आदत के अनुसार संघ प्रमुख के बयान पर फिर भड़काउ बयानबाजी कर डाली और इसके जवाब में राज्य सभा में प्रख्यात गीतकार व षायर जावेद अख्तर ने दिल से बोला ‘‘भारत माता की जय’’। भारत माता की जय एक ऐसा नारा है जोकि ‘‘जनगण मण--’’ के समापन पर स्वाभाविक रूप से ही मुंह से निकल जाता है। ठीक वैसे ही ‘वंदेमातरम’ देश का राष्ट्रीय गान है, यह बीती एक सदी से देश की एकता और सौहार्द का प्रतीक रहा है। गाहे-बगाहे इसे सांप्रदायिक चश्मे से देखने की नौटंकी होती है और जवाब में दूसरे खेमे के चरमपंथी ऐसा ढिंढोरा पीटा जाता है कि पूरा एक संप्रदाय इस गीत के खिलाफ है और यह प्रचारित करने वाले सक्रिय हो जाते हैं कि देशभक्ति का एक ही मापदंड है - जो इस गीत को गाते हैं, वे देशप्रेमी, बांकी के देशद्रोही ! विडंबना है कि इस गीत के बारे वितंडा खड़ा करने वाले ना तो इसके संदर्भ को समझते हैं, ना ही गीत की भावना को और ना ही इससे परहेज करने वालों के असली मंतव्य को। काष यदि इसकी असल भावना को समझ लिया जाए तो कुछ अनपढ़ मुसलमानों को ऐसे मसलों में गुमराह कर भड़काने वालों की दुकान बंद हो जाएगी।
प्रख्यात लेखक बंकीम चंद चटर्जी(1838-1894) ने 07 नवंबर 1876 को बंगाल के कंतलपाड़ा गांव में इस गीत की रचना की थी। उनका चर्चित उपन्यास ‘‘आनंद मठ’’ सन 1882 में प्रकाश में आया। संन्यासी विद्रोह पर केंद्रित इस उपन्यास में लेखक ने अपने गीत को भी शामिल किया। सन 1896 में कांग्रेस के सम्मलेन में यह गीत गाया गया। सन 1901 में कांग्रेस के कलकत्ता सम्मेलन के लिए इस गीत की सांगीतिक प्रस्तुति का कार्य दकिना चरण सेन के मार्गदर्शन में हुआ। 16 अक्तूबर 1905 के बंग-भंग आंदोलन तथा 07 अगस्त 1905 के स्वदेशी आंदोलन के दौरान यह गीत पूरे देश में हर जाति, धर्म के कार्यकर्ताओं का उत्साहवर्धक रहा है। 07 सितंबर 1905 को कांग्रेस के बनारस सम्मेलन में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की भतीजी सरलादेवी चैधरानी ने गीत गाया, हालांकि उस समय अंग्रज सरकार ने इस पर पाबंदी लगा रखी थी।
सन 1906 में लाल लाजपत राय ने ‘वंदेमातरम’ के नाम से लाहौर से एक पत्रिका शुरू की, जबकि इसी साल 06 अगस्त को श्री अरविन्द ने इसी नाम से एक अखबार शुरू किया। सन 1907 में मेडम भीकाजी कामा ने कांग्रस के लिए तिरंगा झंडा तैयार किया, जिसकी सफेद पट्टी पर वंदेमातरम लिखा था।
जैसे-जैसे मुस्लिम लीग का विकास और सांप्रदायिक आधार पर देश के विभाजन की अंगे्रजांे की साजिश कामयाब हो रही थी, कतिपय मुस्लिम नेता इस गीत पर आपत्ति करने लगे थे। इस गीत में दुर्गा व अन्य हिंदु देवियों की अर्चना है और मुस्लिम समाज में किसी भी तरह की मूर्ति पूजा निष्ेाध है। विवाद को बढ़ता देख 28 अक्तूबर 1937 को कांग्रेस ने एक कमेटी बनाई थी, जिसमें महात्मा गांधी, मौलान अबुल कलाम आजाद और सुभाषचंद बोस थे। इस समिति ने पाया कि गीत के पहले दो पदों में कोई धार्मिक तत्व नहीं है, अतः भविष्य में कांग्रेस के सम्मेलन में केवल दो प्रारंभिक पद ही गाए जाएंगे। उसके बाद यह गीत स्वतंत्राता संग्राम की ताकत बना। सुभाषचंद्र बोस द्वारा सिंगापुर में स्थापित किए गए रेडियो स्टेशन से इस गीत का सतत प्रसारण होता रहा। आजादी के बाद जनवरी-1950 में इस गीत को ‘‘राष्ट्रगीत’’ घोषित किया गया। हालांकि सन 1940 के आसपास इस गीत को गाने को ले कर उप्र व बिहार में कुछ जगहों पर सांप्रदायिक दंगे भी भड़के थे। इसे मुस्लिम लीग की हरकत बताया गया था।
सन 2003 में बीबीसी वल्र्ड सर्विस ने सबसे लोकप्रिय गीत के लिए दुनियाभर में एक सर्वे किया। इसमें अलग-अलग देशों के विभिन्न भाषाओं के 7000 गाने शामिल किए गए। इस सर्वे में ‘वंदेमातरम’ को पहले 10 गीतों में स्थान मिला। आजादी के बाद भी इक्का-दुक्का लोग इस गीत को इस्लाम के मूल सिद्धांतों के विपरीत बताते हुए इसका गायन ना करने की बात कहते रहे। दारूल उलूम का मानना है कि हम अपने मुल्क से प्यार करते हैं, लेकिन इसे अल्लाह के बराबर का दर्जा नहीं दे सकते। इस लिए मुल्क की पूजा करना इस्लाम विरोधी है। सनद रहे कि यह भाव ‘‘वंदे’’ शब्द की व्याख्या से व्यक्त किया गया है।
07 सितंबर 2005 को वंदेमातरम गीत के 150 वर्ष पूरा होने के अवसर पर पूरे देश के सभी स्कूलों में इसके गायन का निर्णय लिया गया था। तभी तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्राी अर्जुन सिंह ने इस विवाद को हवा दी थी और कह दिया था कि इस गीत का गाना अनिवार्य नहीं किया जा सकता, क्योंकि इससे मुसलमानों की भावनाएं आहत होगीें। सितंबर 2006 में दारूल उलूम, देवबंद के सालाना जलसे में बाकायदा फतवा जारी कर इस गीत को ना गाने की बात कही गई। 03 नवंबर 2009 को एक बार फिर यह मसला खड़ा हुआ।
इसके विपरीत प्रख्यात लेखक व मौलाना आजाद के पर-भतीजे फिरोज अहमद बख्त का कहना है कि मौलाना आजाद ने वंदेमातरम गीत के पहले दो पदों में इस्लाम की दो मूल भावनाओं - ‘वहादत -ए- दीन’ यानी सर्वधर्म समभाव तथा ‘सुलह-ए-कुल’ यानी दुनिया में शांति को पाया था। तभी उन्होंने इसे देशभक्ति की गीत माना था। श्री बख्त का कहना है कि जब किसी मस्जिद या चर्च में जाने से कोई हिंदू अपवित्रा नहीं होता है तो इसे गाने से मुसलमान के सामने धर्म संकट कहां से खड़ा हो जाता है? देश के सवा सौ से अधिक चर्चित मुस्लिम चेहरों, जैसे नसिरूद्दीन शाह, शबाना आजमी, जावेद अख्तर, सईज अख्तर मिर्जा आदि ने बाकायदा सार्वजनिक बयान जारी कर उस फतवे की आलेाचन की, जिसमें वंदेमातरम को गैर इसलामी कहा गया। इन लोगों का कहना था कि ना तो इस गीत के गाने को राष्ट्रभक्ति का पैमाना मानना चाहिए और ना ही जमायत को इसकी व्याख्या कर धर्म से जोड़ना चाहिए, जबकि इस गीत के आपत्ति वाले हिस्सों का गायन सन 1930 से ही नहीं हो रहा है।
एक बड़ा वर्ग मुसलमानों के सकारात्मक और पुनर्जागरण के प्रयासों को दबाना-छुपाना चाहता है और वही तीन दिन के जलसे में लिए गए कई बड़े फैसलों के बनिस्पत वंदेमातरम जैसे मसले को उछालता है। दूसरी तरफ ऐसे शगूफों की तलाश में रहने वाले पुतला फूंकने पर उतारू हो जाते है। विडंबना है कि इस मसले का गरमाने वाले सभी पक्ष भावनाओं को समझे बगैर महज लफ्फाजी पर होहल्ला करते हैं। कोई कह रहा है कि भारत में रहना है तो वंदेमातरम बोलना होगा, तो कोई कहता है कि इस संस्कृत गीत का उर्दू में अनुवाद करा दो ताकि मुसलमान इसे भलीभांति समझ सकें। दोनेा ही पक्षों की बुद्धि पर तरस आता है। भारत में रह कर वंदेमातरम गा कर क्या कुछ भी काला-सफेद करने वाले को सच्चे देशभक्त का तमगा मिल जाता है? क्या कुरान शरीफ, जोकि खालिस अरबी में है, का पाठ करने वाले सभी इसका अर्थ और मर्म समझते हैं ?
पूरी हिंदी पट्टी के गांव-कस्बों में लाखों-लाख ऐसे लोग मिल जाएंगे, जोकि सुबह टहलते, खेत या दिशा-मैदान जाते समय रास्तों में मिलने वाले हर आमो-खास को ‘‘राम-राम’’, ‘राधे’’, ‘‘हरे कृष्ण’ या अस्लाम वालेकुम कहते मिल जाएंगे। ईमानदारी से लोग उसका जवाब भी देते हैं, चाहे वह कोई भी जाति-धर्म के हों। जाहिर है कि राम-राम करने वाला व उसका जवाब देने वाला दोनों ही इस भावना को समझते हैं कि यह ‘शुभ प्रभात’’ का एक तरीका है। देश में विरले ही ऐसे लोग होंगे, जिन्हें नमस्कार या अस्लाम वालेकुम का शाब्दिक अर्थ पता होगा। यह मान लिया जाता है कि यह कुछ शुभ ही है। ‘जन गण मण अधिनायक’ का सही अर्थ जानने वाले भी बहुत कम होंगे, इसके बावजूद सभी जानते हैं कि यह राष्ट्रगीत है और इसकी धुन का सम्मान करना चाहिए।
कुछ साल पहले पर्सनल ला बोर्ड के उपाध्यक्ष व शिया समुदाय के संत कल्बे सादिक ने ‘‘वंदे मातरम’’ शब्द का शाब्दिक अर्थ सही तरीके से प्रस्तुत करने की बात कह कर एक नया घालमेल खड़ा करने का प्रयास किया था। यहां मसला भावनाओं को समझने का है ना कि व्याकरण के अर्थ का। यही नहीं क्या वंदेमातरम गाने वाला प्रत्येक व्यक्ति देशभक्त ही होता है ? क्या इसकी गारंटी देने को कोई तैयार है! जैसा कि वीर सावरकर भी कहते थे कि क्या इस बात का कोई बंधन है कि मैं अपने देश को ‘मां’ ही मानूं, ‘पिता’ नहीं ? क्या देशभक्ति की परिभाषा वैश्वीकरण के दौर में अपने देश या नस्ल के भले तक ही सीमित हो गई है? ऐसे सवालों को गंभीरता से विचार किए बगैर शरीयत की दुहाई या सड़कों पर पुतले जलाने वाले ना तो धार्मिक हैं और ना ही देशभक्त।
जब मुस्लिम नेता सरकार से उम्मीद करते हैं कि उन्हें कटघरे में खड़ा करने की साजिश से बचाया जाए तो कहीं न कहीं उनकी भी जिम्मेदारी बनती है कि वे कुछ ऐसा न करें, जिससे एक आदमी की करतूत से सारा समाज शर्मिंदा हो । खुद को पूरे देश के मुसलमानों का रहनुमा जताने वालों ने यदि गालिब के कलाम पढ़े होंगे तो शायद उन्हें सबकुछ शरीयत के खिलाफ ही नजर आया होगा । यह विडंबना है कि पर्सनल ला बोर्ड के कई सदस्य अपना व्यक्तिगत जीवन तो पाश्चात्य शैली से जीने में कतई परहेज नहीं करते हैं, लेकिन जब राष्ट्रहित की कोई बात आती है तेा उन्हें शरीयत याद आ जाती है । क्या वे पेंट-शर्ट नहीं पहनते हैं, क्या वे बैंक में खाता नहीं रखते हैं ? क्या वे उनके द्वारा किए गए किसी अपराध की सजा शरीयत के अनुसार भुगतने को तैयार हैं ? नहीं, तो फिर राष्ट्रगीत में शरीयत की बात क्यों ले कर आते हैं ? जबकि इस्लाम में जन्मभूमि या अपने देश को उतनी ही इज्जत दी गई है जितनी अन्य धर्मों में । यदि आप अपनी धरती को नमस्कार कर लेते हो तो यह कैसे अधार्मिक हो जाएगा। जब झूठ, फरेब, चोरी, धोखा देने वालों को इस्लाम से निकालने की हिम्मत मुल्ला-मौलवी नहीं कर पाते हैं तो वे देश के प्रति सम्मान(झुके बगैर) प्रकट करने को कैसे धर्म-विरोधी करार देने का फतवा(फतवे का मतलब सलाह होता है ना कि कड़ाई से मानने का आदेश) कैसे जारी कर देते हैं।
यह भी तय है कि देश में मुसलमानों और हिंदुअेां की जो नई पीढ़ी आ रही है, उसके लिए देश-विभाजन के समय भड़के दंगों का दर्द बेमानी हो गया है । यह पीढ़ी व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर आर्थिक विकास को ही अपना धर्म और संकल्प मान रही है और इसके लिए प्रण-प्राण से जुटी हुई है। ऐसे में वंदेमातरम पर बयान, न तो किसी मुसलमान को सहन हो रहा है और नहीं किसी अन्य धर्म को मानने वाले को । हां, इसका गलत तरीके से फायदा फिरकापरस्त जरूर उठा रहे हैं । आम मुसलमान अपनी अशिक्षा, गरीबी, रोजगार, मजहब में बढ़ रही कुरीतियों को ले कर चिंतित है। वह धीरे-धीरे समझ रहा है कि उन्हें कौन लोग महज ‘वोट की खेती’’ के रूप में देखते हैं।
यदि वास्तव में मुसलमान अपनी छबि के लिए चिंतित है तो उसे धर्म के नाम पर अपनी दुकानें चलाने वालों के खिलाफ खुल कर सामने आना होगा । आम पढ़ा-लिखा मुसलमान अपनी व्यक्तिगत समृद्धि में इतना मशगूूल है कि वह समाज पर उठ रहे इन खतरों पर अपनी राय व्यक्त करना भी गवारा नहीं समझता है । जहां सरकार की जिम्मेदारी है कि वह प्रत्येक मुसलमान को शक से देखने वालांे के खिलाफ सख्त कार्यवाही करे, वहीं प्रत्येक मुसलमान का भी फर्ज है कि कानून से उपर समझने वाले इमामों को खुद ही पुलिस के हाथों में सौंप दे ।
”वंदे मातरम्“
(यह पूरा गीत है, इसके केवल पहले दो पद ही राष्ट्रगीत के रूप में मान्य हैं)
वंदे मातरम्
सुजलां सुफलां मलयजशीतलां
शस्यश्यामलां मातरम् केवल यही राष्ट्रगीत है।
शुभ्र ज्योत्सना-पुलकित यामिनी,
फुल्लकुसुमित-दु्रमदलशोभिनी,
सुहासिनी सुमधुरभाषिणी
सुखदां, वरदां मातरम्।
वंदे मातरम्...
सप्तकोटिकण्ठ-कलकल निनादकराले,
द्विसप्तकोटि भुजैर्धृत खरकरवाले,
अबला केनो माँ एतो बले!
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं,
रिपुदलवारिणीं मातरम्।
वंदे मातरम्...
तुमी विद्या, तुमी धर्म,
तुमी हृदि, तुमी मम्र्म,
त्वं हि प्राणः शरीरे।
बाहुते तुमी माँ शक्ति,
हृदये, तुमी माँ भक्ति
तोमारई प्रतिमा गड़ी मंदिरे मंदिरे।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,
कमला कमल-दलविहारिणीं,
वाणी विद्यादायिनीं नमामि त्वां
नमामि कमला, अमलां, अतुलाम्,
सुजलां, सुफलां, मातरम्।
वंदे मातरम्..
श्यामलां, सरलां, सुस्मितां, भूषिताम्
धरणीं, भरणीम् मातरम्।
वंदे मातरम्
वन्दे मातरम् का सरल हिन्दी अनुवाद
हे! धरती माता, मैं आपको प्रणाम करता हूं। यहां स्वच्छ जल वाली नदियां बहती हैं, यह फलदार वृक्षों से युक्त है, यहां शीतल चंदनयुक्त हवाएं चलती हैं, और यहां की धरती सघन धानों से युक्त होने के कारण काली दृष्टिगोचर होती है, ऐसी धरती माता को मैं प्रणाम करता हूं।
यहां रात्रि में श्वेत चांदनी छिटक कर पुलकित होती है। यहां खिले हुए पुष्प और घने पत्तों वाले वृक्ष शोभायमान होते हैं। यह सुंदर हंसी युक्त और मधुरवाणी बोलने वाली है। सदैव सुख देने वाली और वर देने वाली माता मैं आपको प्रणाम करता हूं।
यहां रहने वाले सत्तर करोड़ कण्ठ कभी प्रसन्नतापूर्वक शांत नदी की धारा के समान कल-कल करते हैं और कभी-कभी चंडी का विकराल रूप धारण कर गरजते हैं। जिसकी दुगुनी भुजाएं तीक्ष्ण तलवारें धारण किए हुए हैं। ऐसी माता को कौन कहता है कि तुम अबला हो। अपार बल धारण करने वाली माता आपको प्रणाम करता हूं। आप सभी दुखों से तारने वाली हैं, मुक्ति देने वाली माता हैं। शत्राुओं के समूह से लड़ने की शक्ति देने वाली माता मैं आपको प्रणाम करता हूं।
तुम ही विद्या हो, तुम ही धर्म हो, तुम ही हृदय हो, कर्म भी तुम ही हो, तुम ही शरीर में प्राण हो।
हे मां! तुम ही भुजाओं की शक्ति हो, तुम ही हृदय की भक्ति हो।
तुम्हारी प्रतिमा प्रत्येक मंदिर में विराजमान है। तुम ही दुर्गा हो, जिसकी दसों भुजाएं शस्त्रा धारण किए हुए हैं। तुम ही कमल के दल पर विहार करने वाली लक्ष्मी हो। तुम ही विद्या दान करने वाली सरस्वती हो। मैं आपको प्रणाम करता हूं।
लक्ष्मी के समान, स्वच्छ, अतुलनीय बल धारण करने वाली माता आपको प्रणाम है। यहां स्वच्छ जल से युक्त नदियां बहती हैं, यह फलदार वृक्षों से युक्त हैं। हे! माता आपको मैं प्रणाम करता हूं।
सघन धान युक्त श्यामल रंगों की, सरल, सुखद मुस्कान युक्त, आभूषण से सुसज्जित, सभी को धारण करने वाली, सभी का भरण-पोषण करने वाली माता, आपको मैं प्रणाम करता हूं।
हे धरती माता! आपको मैं प्रणाम करता हूं।
.. बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा रचित वंदेमातरम गीत का श्री अरविन्द द्वारा किया गया अनुवाद
Mother, I bow to thee!
Rich with thy hurrying streams,
bright with orchard gleams,
Cool with thy winds of delight,
Dark fields waving Mother of might,
Mother free.
Glory of moonlight dreams,
Over thy branches and lordly streams,
Clad in thy blossoming trees,
Mother, giver of ease
Laughing low and sweet!
Mother I kiss thy feet,
Speaker sweet and low!
Mother, to thee I bow.
Who hath said thou art weak in thy lands
When the sword flesh out in the seventy million hands
And seventy million voices roar
Thy dreadful name from shore to shore?
With many strengths who art mighty and stored,
To thee I call Mother and Lord!
Though who savest, arise and save!
To her I cry who ever her foeman drove
Back from plain and Sea
And shook herself free.
Thou art wisdom, thou art law,
Thou art heart, our soul, our breath
Though art love divine, the awe
In our hearts that conquers death.
Thine the strength that nervs the arm,
Thine the beauty, thine the charm.
Every image made divine
In our temples is but thine.
Thou art Durga, Lady and Queen,
With her hands that strike and her
swords of sheen,
Thou art Lakshmi lotus-throned,
And the Muse a hundred-toned,
Pure and perfect without peer,
Mother lend thine ear,
Rich with thy hurrying streams,
Bright with thy orchard gleems,
Dark of hue O candid-fair
In thy soul, with jewelled hair
And thy glorious smile divine,
Lovilest of all earthly lands,
Showering wealth from well-stored hands!
Mother, mother mine!
Mother sweet, I bow to thee,
Mother great and free!
Rich with thy hurrying streams,
bright with orchard gleams,
Cool with thy winds of delight,
Dark fields waving Mother of might,
Mother free.
Glory of moonlight dreams,
Over thy branches and lordly streams,
Clad in thy blossoming trees,
Mother, giver of ease
Laughing low and sweet!
Mother I kiss thy feet,
Speaker sweet and low!
Mother, to thee I bow.
Who hath said thou art weak in thy lands
When the sword flesh out in the seventy million hands
And seventy million voices roar
Thy dreadful name from shore to shore?
With many strengths who art mighty and stored,
To thee I call Mother and Lord!
Though who savest, arise and save!
To her I cry who ever her foeman drove
Back from plain and Sea
And shook herself free.
Thou art wisdom, thou art law,
Thou art heart, our soul, our breath
Though art love divine, the awe
In our hearts that conquers death.
Thine the strength that nervs the arm,
Thine the beauty, thine the charm.
Every image made divine
In our temples is but thine.
Thou art Durga, Lady and Queen,
With her hands that strike and her
swords of sheen,
Thou art Lakshmi lotus-throned,
And the Muse a hundred-toned,
Pure and perfect without peer,
Mother lend thine ear,
Rich with thy hurrying streams,
Bright with thy orchard gleems,
Dark of hue O candid-fair
In thy soul, with jewelled hair
And thy glorious smile divine,
Lovilest of all earthly lands,
Showering wealth from well-stored hands!
Mother, mother mine!
Mother sweet, I bow to thee,
Mother great and free!
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