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बुधवार, 6 अप्रैल 2016

complete ban on liqure in Bihar must be appreciated

बिहार में पूर्ण शराबबंदी: जड़मत होत सुजान
पंकज चतुर्वेदी

कुछ लोग अतीत में विभिन्न राज्यों में असफल हुई शराब पाबंदी की विफलता का हवाला दे रहे हैं तो कुछ हजारों लोगों के बेरोजगार हो जाने का। कुछ आशंका जता रहे हैं कि ब झारखंड व उत्तर प्रदेश से जमकर तस्करी होगी तो बहुत से लेाग राज्य को चार हजार करोड़ के राजस्व के घाअे का भय दिखा रहे हैं। एक वर्ग ऐसा भी है जो हर तरह की पाबंदी के खिलाफ खुद को बता कर बिहार में शराब बंी को गैरलोकतांत्रिक तक कह रहे हैं। लेकिन जरा उन गरीब, दूरस्थ अंवल की औरतों के स्वर भी सुनें जिनके पति अपनी पूरी कमाई शराब में लुटाते रहे हैं, उसके बाद नशाखेरी से उपजी बीमारियों में शरीर तो गंवाते ही हैं घर तक बिकवा देते हैं। एक ऐसा राज्य जहां 28 फीसदी मर्द नियमित शराब पीते हों, वहां के मानव संसाधन, स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक जीवन की दुर्गति की कल्पना करें तो शराब बंदी की संभावित असफलता के कारण गिनाने वालों का शुतुरर्मुग ही बनना पड़ेगा। इसमें कोई शक नहीं कि बिहार के विधान सभा चुनाव में औरतों ने नीतिश कुमार को दिल खोलकर वोट दिया था और उसके पीछे सबसे बड़ा कारण शराबबंदी का वायदा था। यदि कोई सरकार जन कल्याण के ऐसे वायदे पूरे करने को कुछ राजस्व की हानि सहती है तो यह भी एक जन कल्याणकारी कार्य ही हे। यदि शराब नहीं बिकेगी तो चिकित्सा व्यय कम होंगे, सड़क दुर्घटना, पारिवारिक कलह आदि में थानाा-कचहरी कम होगा, यह सब भी तो राज्य के धन में कमी के कारक होंगे ही।
अपने वायदे के मुताबिक नीतीश कुमार ने बीते एक अप्रैल से राज्य में देशी और मसालेदार शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था। इस फैसले का पूरे राज्य में जबरदस्त स्वागत हुआ और कुछ लोगों ने शहरों में भारत में बनी विदेशी शराब की बिक्री को ले कर आशंकाएं व्यक्त कीं तो चार दिन बाद ही नीतीश सरकार ने शहरी इलाके में भी भारत में निर्मित अंग्रेजी शराब की बिक्री बिहार स्टेट बिवेरेज कार्पोरेशन लिमिटेड (बीएसबीसीएल) के माध्यम किये जाने की अनुमति को भी रद्द कर दिया. प्रदेश में पूर्ण शराबबंदी लागू कर दी है. इसके साथ ही वर्ष 1991 की अधिसूचना को लागू किये जाने के साथ ताड़ के उत्पाद ‘नीरा’ को प्रोत्साहित करने का निर्णय किया है। नीतीश कुमार ने कहा कि शराब बंदी से सामाजिक परिवर्तन की बुनियाद पड़ी है । अभी तक जो राशि शराब में खर्च हो रही थी वह लोगों के पोषण, शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च होगी, लोगों का जीवन स्तर ऊंचा उठेगा, सामाजिक परिवर्तन आएगा। उन्हांेने बताया कि फौजी छावनी में शराब की बिक्री उनके द्वारा अपने ढंग से संचालित की जाती है उसे छोड़कर होटल, बार अथवा क्लब हो, कहीं भी शराब का प्रचलन नहीं रहेगा। होटल एवं क्लब को बार का किसी प्रकार का लाइसेंस निर्गत नहीं किया जाएगा। राज्य में विदेशी शराब के थोक एवं खुदरा व्यापार अथवा उपभोग को प्रतिबंधित करने का निर्णय लिया गया है
गांधीजी को गिनी-चुनी चीजों से नफरत थी, उनमें सबसे ऊपर षराब का नाम था ।  ‘‘ यंग इंडिया’’  के 03 मार्च 1927 के अंक में उन्होंने एक लेख में उल्लेख किया था कि षराब और अन्य मादक द्रव्यों से होने वाली हानि कई अंषों में मलेरिया आदि बीमारियों सें होने वाली हानियों से असंख्य गुना ज्यादा है । कारण, बीमारियों से तो केवल षरीर को ही हानि पहंुचती है, जबकि षराब आदि से षरीर और आत्मा दोनों का ही नाष होता है ।  गांधी के आदर्षेंा के प्रति कृतसंकल्पित होने का दावा करने वाली सरकारों के सर्वोच्च स्थान राश्ट्रपति भवन से ले कर हर छेाटे-बड़े नेता द्वारा षराब की खरीदी व उसका भोज-पार्टी में सार्वजनिक वितरण क्या गांधी की आत्मा को हर पल कचोटता नहीं होगा ?
‘‘यंग इंडिया’’ के ही 15 सितंबर 1927 अंक में गांधीजी ने  मदिरापान पर एक कड़ी टिप्पणी कर इस दिषा में अपनी मंषा जताई थी- ‘‘ मैं भारत का गरीब होना पसंद करूंगा, लेकिन मैं यह नहीं बर्दाष्त करूंगा कि हजारों लेाग षराबी हों ।  अगर भारत में षराब पांबदी जारी रखने के लिए लेागों को षिक्षा देना बंद करना पड़े तो कोई परवाह नहीं । मैं यह कीमत चुका कर भी षराबखोरी बंद करूंगा । ’’ राजघाट पर फूल चढ़ाते समय हमारे ‘‘भारत भाग्य विधाता’’  क्या कभी  गांधी के इस संकल्प को याद करने का प्रयास करते हैं ? आज हर सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं के संचालन के लिए धन जुटाने में षराब से आ रहे राजस्व का बहुतायत है । पंजाब में अधिक षराब बेच कर किसानों को मुफ्त बिजली-पानी देने की घोशणाओं में किसी को षर्म नहीं आई । हरियाणा में षराबबंदी को समाप्त करना चुनावी मुद्दा बना था । दिल्ली में घर-घर तक षराब पहुंचाने की योजनाओं में सरकार यूरोप की नकल कर रही है । उत्तर प्रदेष और मध्यप्रदेष के कई कांग्रेसी षराब के ठेकों से परोक्ष-अपरोक्ष जुड़े हैं । यही नहीं भारत सरकार के विदेष महकमे बाकायदा सरकारी तौर पर षराब-पार्टी देते हैं। हालांकि देश में गुजरात,नगालैंड, लक्ष्यद्वीप और मणिपुर के कुछ हिस्सों में पूर्ण शराबबंदी कई सालों से लागू है और अब वहां के समाज का बड़ा वर्ग अब मदिरा के बगैर जीने को अपनी जीवन शैली भी बना चुका है। फिर भी यदि किसी राज्य में पूर्ण शराबबंदी लागू करनी हो तो सीमावर्ती राजयें में भी ऐसा हो तो बेहतर होता है। एक बात और जान लें शराब बंदी व उसके कारण बंद हुए शराब कारखाने भले ही कुछ लोगों को बेरोजगार करें, लेकिन इससे राज्य में जल की खपत कम होगी, नदियों व तालाबों में जल-प्रदूषण कम होगा और साथ ही श्रम के घंटों में विस्तार होगा, जो बेशकीमती है।
बिहार में शराब बंदी को ले कर जो चुनौतियों हैं, उसमें से कुछ तो वही हैं जो कि ऐसा करने की आकांक्षा करने वाले राजयों के सामने आती रही है। कुछ की इच्छा शक्ति कमजोर थी सो वे चुनौती के सामने असफल भी रहे। सबसे बड़ा संकट होता है इसकी तस्करी ,जिसे रोकना कोई आसान काम नहीं। इसी तरह शराबबंदी के दौर में गांव के घर-घर में शराब निकालने का सिलसिला शुरू हो जाता है। ऐसे में जहरीली शराब कहां से बन कर लोगों के हलक में पहुंच जाती है, यह पता लगाना तक प्रशासन के लिए चुनौती बन जाता है। इसी जहरीली शराब के सेवन की वजह से लोग मारे जाते हैं और फिर पीडि़त के परिवार सरकारी ठेके को ही सही बताने लगते हैं। शराब बंदी पर्यटन पर भी विपरीत असल डालती है और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के व्यापार पर भी।
बिहार में शराब बंदी को कड़ाई से लागू करने और अवैध शराब की बिक्री पर नकेल कसने के लिए उत्पाद एवं मद्य निषेध विभाग के पास पर्याप्त कर्मचारी की कमी भी एक बड़ी दिक्क्त है। विभाग में अधिकारी से लेकर सिपाही तक के कुल 2124 पद हैं। इनमें से मात्र 856 पद पर ही कर्मचारी कार्यरत हैं। बाकी 1268 पद खाली हैं। हालांकि विभाग ने 516 सैप के जवान मांगे हैं। कुछ जवान विभाग को उपलब्ध हो भी चुके हैं। लेकिन सैप के जवानों पर कार्रवाई का अधिकार विभाग को नहीं रहेगा। सिपाहियों की कमी के कारण ही जिलों से 5618 होमगार्ड की मांग की गई है।
यह तय है कि आने वाले कम से कम दो साल इस फैसले के अमल व उसके प्रभाव के लिए जटिल हैं। शराब बिकी के आखिरी दिन जिस तरह राज्य की दुकानों पर लंबी-लंबी कतारे देखी गईं, जिस तरह कुछ जगह शराब ना मिलने से साबनु या दवाएं खाने की घटनाएं सामने आ रही हैं, उससे यह तो तय है कि शराबियों को यही रास्ते पर लाने के लिए केवल कानून की नहीं, मनोचिकित्सक, सामाजिक परिवेश में भी बदलाव के क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। बहरहाल गांधी के देश में ऐसे प्रयासों की सराहना जरूर करनी चाहिए क्यों ‘‘करत-करत अभ्यास के जडमत होत सुजान.........’’

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