बस्तर की हिंसा-प्रतिहिंसा में पिस रहे हैं पत्रकार
0 दक्षिण बस्तर में नक्सली शहीदी सप्ताह का आतंक फैला रहे थे। एक सीआरपीएफ कैंप के पास ही एक पुल को क्षतिग्रस्त कर उन्होंने सड़क को काट दिया। जब कुछ पत्रकार इसके फोटो खींचने लगे तो सुरक्षा बलों ने उन्हें जबरिया रोकते हुए कहा कि ऐसी खबरों से नक्सलियों के हौसले बुलंद होते हैं।
0 बस्तर में आने वाले अखबारों और क्षेत्रीय खबरिया चैनलों का अंशकालिक संवाददाता कौन होगा, इसका फैसला भी अब सुरक्षा बलों के दबाव में हो रहा है। पुलिस चाहे तो अखबार न बंटे। जब तब कोई संवाददाता हटा दिया जाता है, जब चाहो तब किसी को गैरपत्रकार बता दिया जाता है।
0 30 मार्च की दिन दोपहर दंतेवाड़ा जिले के जंगलों में सीआरपीएफ के एक वाहन को नक्सली आईडी लगा कर उड़ा देते हैं, जिसमें हमारे सात जवान शहीद हो जाते हैं। यह घटना मुख्य सड़क की है। घटनास्थल पर इतना डायनामाइट था कि पक्की सड़क पर पांच फुट गहरा गड्ढा बन गया। मिनी ट्रक के परखच्चे दूर-दूर तक उड़े। जाहिर है कि इतना बारूद लगाने के लिए नक्सलियों ने पर्याप्त समय लगाया होगा, पर कैसे इसकी भनक भी स्थानीय पुलिस को नहीं लगी। या फिर स्थानीय पुलिस व केंद्रीय बलों के बीच सूचना व संवाद की इतनी बड़ी खाई है या फिर और कुछ है?
0 उत्तर बस्तर का जिला मुख्यालय कांकेर, 20 मार्च को होली के पहले का आखिरी रविवार। आमतौर पर यह मौसम जनजातियों के मदमस्त हो कर गीत-संगीत में डूबने का, अपने दुख-दर्द भूल कर प्रकृति के साथ तल्लीन हो जाने का होता है, लेकिन पूरा बाजार उदास था, कुछ सहमा सा। न मांदर बिक रहे थे, न रंग खरीदने वालों में उत्साह। करीबी जंगलों से आदिवासी न के बराबर हाट में आए थे।
यदि दक्षिण बस्तर यानी सबसे विषम हालात वाले इलाकों की बात करें तो वहां होली या तो सुरक्षाकर्मी मना रहे थे या फिर कुछ सरकारी योजनाओं के तहत पैसा पाने वाले सांस्कृतिक दल। कोई घर से बाहर झांकने को तैयार नहीं, पता नहीं किस तरफ से कोई आकर अपनी चपेट में ले ले। बस्तर अब एक ऐसा क्षेत्र बन चुका है, जहां पुलिस कार्रवाई के प्रति प्रतिरोध जताने का अर्थ है, जेल की हवा। यह भी संभावना रहती है कि जेल से बाहर निकलो तो नक्सली अपना निशाना बना लें। पिछले छह महीनों में छह पत्रकार जेल में डाले जा चुके हैं, वह भी निर्ममता से। कुछ पत्रकारों को जबरिया इलाका छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा तो कुछ को धमकियां मिलीं। मार्च के तीसरे सप्ताह में प्रभात सिंह की गिरफ्तारी का मसला गर्म ही था कि दैनिक दैन्दिनी के संवाददाता दीपक जायसवाल को भी पुलिस ने पकड़कर अंदर कर दिया। आरोप लगाया कि किसी स्कूल के प्राचार्य से उन्होंने बदसलूकी की। सनद रहे, ठीक ऐसा ही एक आरोप प्रभात सिंह पर भी थोपा गया है। यह जान लें कि बस्तर में पुलिस का हर कानून आईजी, शिवराम कल्लूरी की मर्जी ही है। माथे पर भभूत का बड़ा सा तिलक लगाए कल्लूरी को राज्य शासन से छूट है कि वे किसी को भी उठाएं, बंद करें, पीटें, धमकी दें। पत्रकार प्रभात सिंह ने अदालत में बताया कि किस तरह उन्हें थाने में निर्ममता से पीटा गया और बाद में डाक्टर से जबरिया प्रमाण पत्र बनवा लिया गया। प्रभात सिंह के शरीर पर कई गहरे जख्म हैं। प्रभात को ईटीवी से भी हटवाया गया, जबकि दीपक जायसवाल को संवाददाता का कार्ड जारी करने वाले अखबार ने पुलिसिया दबाव में लिख कर दे दिया कि वह हमारा संवाददाता है ही नहीं। यहां एक बात गौर करने वाली है कि पिछले
एक साल के दौरान कल्लूरी ने जितने कथित नक्सली मारे या आत्मसमर्पण करवाए, शायद उतने असली नक्सली जंगल में हैं भी नहीं। रही बची कसर पूरी कर दी है भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोगों द्वारा बनाए गए एक संगठन सामाजिक एकता मंच ने। मान लें कि यह संगठन सलवा जुडूम भाग दो ही है। इसके कार्यकर्ता शहरी इलाकों में लोगों को डरा-धमका रहे हैं। गौर करें कि अभी पिछले चुनाव तक जब बस्तर की बारह विधान सभा सीटों पर भाजपा का वर्चस्व रहता था, तब ये नेता अपने घर बैठकर तमाशा देखते थे, लेकिन इस बार झीरम घाटी कांड में कई बड़े कांग्रेसी नेताओं के मारे जाने के बाद बस्तर में कांग्रेस का दबदबा बढ़ गया तो ये नेता नक्सलियों के कथित विरोध में खडे़ हो रहे हैं, इसके पीछे की सियासत को जरा गंभीरता से समझना होगा। इसी संगठन की गुंडागर्दी के चलते लंबे समय से जगदलपुर में रह कर विभिन्न अंग्रेजी अखबारों के लिए काम कर रही मालिनी सुब्रहण्यम को बस्तर छोड़कर कर जाना पड़ा। असल में मालिनी उस मसय आंख की किरकिरी बन गई थीं, जब उन्होंने बीजापुर जिले के बासागुड़ा थाने के तहत तलाशी के नाम पर 12 आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार की खबर की थी। उसके बाद मालिनी के मकान मलिक को थाने में ब्ैाठा लिया गया, उनके घर काम करने वाले नौकरों को पूरे परिवार सहित उलटा लटका कर मारा गया। बाजार में कह दिया गया कि इनको कोई सामान न बेचे। हार कर फरवरी में मालिनी को बस्तर छोड़ना पड़ा। कहने की जरूरत नहीं कि इसकी शिकायतों का कोई अर्थ नहीं है। ताजा मामला दंतोवाड़ा के पत्रकार प्रभात सिंह की गिरफ्तारी का है। वे ‘पत्रिका’ के लिए काम करते हैं और लंबे समय से जंगलों में सुरक्षा बलों द्वारा आदिवासियों पर अत्याचार तथा पुलिस की झूठी कहानियों का पर्दाफाश करते रहे। कुछ महीनों पहले पकड़े गए पत्रकार द्वय- सोमारू नाग व संतोष यादव की रिहाई के लिए अभियान चला रहे प्रभात की कभी भी गिरफ्तारी के बाबत समाचार लंबे समय से विभिन्न अखबारों में छप रहे थे, इसकी संभावना की दर्जनों शिकायतें की गईं। लेकिन एक सप्ताह पहले प्रभात को घर से उठाया गया, फिर दो दिन बाद आईटी एक्ट में गिरफ्तारी दिखाई गई। मसला एक व्हाट्सएप संदेश का था, जिसमें ‘गोद’ की जगह हिंदी में गलती से चंद्रबिंदु और द की जगह ड टाईप हो गया था। उसके बाद चार ऐसे ही बेसिरपैर के मामले लादे गए। पुलिस अभिरक्षा में प्रभात को निर्ममता से पीटा गया, खाना नहीं दिया गया और कहा गया कि पुलिस का विरोध कर रहे थे, अब उससे सहयोग की उम्मीद मत रखना। प्रभात के मामले में मानवाधिकार आयोग ने भी राज्य शासन को नोटिस भेजा है, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं है कि ये नोटिस व आयोग महज हाथी के दांत होते हैं व राज्य शासन की रिपोर्ट को ही आधार मानते हैं। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज को विदेशी दलाल व उनकी महिला मित्र बेला भाटिया को बस्तर छोड़ने की धमकी के पोस्टर भी 28-29 मार्च के दरमियान शहर में लगाए गए। दुखी हो कर ज्यां द्रेज को एक लेख लिख कर बताना पड़ा कि वे भारतीय हैं और किसी भी तरह के सशस्त्र संघर्ष का विरोध करते हैं। उन्होंने बेला भाटिया को नक्सली समर्थक बताने के पर्चे को बेहद गंभीर बताते हुए कहा कि झारखंड में उनके करीबी दोस्त नियामत अंसारी को इसी लाल दस्ते ने मार डाला था। वे आगे लिखते हैं कि बेला को परेशान व बदनाम करने का असल कारण यह है कि वह बीजापुर जिले में सुरक्षा बलों द्वारा निरीह आदिवासी महिलाओं के यौन शोषण के मामले में औरतों को न्याय दिलवाने में मदद कर रही हैं।यहां पत्रकार नेमीचंद जैन व साईं रेड्डी को याद करना भी जरूरी है। कुछ साल पहले दोनों को पुलिस ने नक्सली समर्थक बता कर जेल भेजा। अदालतों ने लचर मामलों के कारण उन्हें रिहा कर दिया, लेकिन बाद में कथित तौर पर नक्सलियों ने उन्हें मार दिया कि वे पुलिस के मुखबिर थे। हालांकि पुलिस कहती है कि दोनों को नक्सलियों ने मारा, लेकिन अंदर दबी-छिपी खबरें कुछ और भी कहती हंै। बीबीसी के स्थानीय संवाददाता आलोक पुतुल और दिल्ली से गए वात्सल्य राय से तो कल्लूरी ने मिलने से इनकार किया, वह बानगी है कि बस्तर में पत्रकारिता किस गंभीर दौर से गुजर रही है- आपकी रिपोटिंर्ग निहायत पूर्वाग्रह से ग्रस्त और पक्षपातपूर्ण है, आप जैसे पत्रकारों के साथ अपना समय बर्बाद करने का कोई अर्थ नहीं है, मीडिया का राष्ट्रवादी और देशभक्त तबका कट्टरता से मेरा समर्थन करता है, बेहतर होगा मैं उनके साथ अपना समय गुजारूं, धन्यवाद। यह एक लिखित संदेश में भेजा गया था। बस्तर के आईजी शिवराम प्रसाद कल्लूरी से कई बार संपर्क करने की कोशिशों के जवाब में उन्होंने पुतुल को यह मैसेज मोबाइल पर भेजा था। कुछ ही देर बाद लगभग इसी तरह का जवाब बस्तर के एसपी आरएन दास ने भेजा- आलोक, मेरे पास राष्ट्रहित में करने के लिए बहुत से काम हैं, मेरे पास आप जैसे पत्रकारों के लिए कोई समय नहीं है, जोकि पक्षपातपूर्ण तरीके से रिपोटिंर्ग करते हैं, मेरे लिए इंतजार न करें। यही नहीं जब ये पत्रकार जंगल में ग्रामीणों से बात कर रहे थे, तभी उन्हें बताया गया कि कुछ हथियारबंद लोग आपको तलाश रहे हैं। हालांकि, एडीटर्स गिल्ड ने 13 से 15 मार्च तक बस्तर अंचल में भ्रमण कर अपनी रपट में लिखा है कि बस्तर में पत्रकारिता पर खतरा है। पत्रकारों पर पुलिस व माओवादी दोनों ही दबाव बनाते हैं। आम जनता ही नहीं पत्रकार भी पुलिस व माओवादियों के बीच की हिंसा में पिस रहे हैं। बस्तर एक जंग का मैदान बन गया है। इन दिनों नक्सलियों के हाथों कई ग्रामीण मारे जा रहे हैं मुखबिर होने के शक में, पुलिस ग्रामीणों को पीट रही है कि दादा लोगों को खाना न दें। लोग पलायन कर रहे हैं। जेल में बंद निर्दोष लोगों की पैरवी करने वाले वकील नहीं मिल रहे हैं। जो कोई भी फर्जी कार्यवाहियों पर रिपोर्ट करे, उनकी हालत प्रभात जैसी हो रही है। असल में यह लोकतंत्र के लिए खतरा है, जहां प्रतिरोध या असहमति के स्वर को कुचलने के लिए तर्क का नहीं, वरन सुरक्षा बलों के बूटों का सहारा लिया जा रहा है। दक्षिण पत्रकार संघ ने अब निर्णय लिया है कि वे नक्सवाद से जुड़ी किसी भी खबर का बहिष्कार करेंगे, क्योंकि पुलिस उन्हें पत्रकार नहीं, पक्षकार बनाना चाहती है।
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