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बुधवार, 20 दिसंबर 2017

Society and government is responsible for deterioration of Rivers

समाज-सरकारों की करतूतों से उपजी त्रासदी

मरणासन्न नदियां
पंकज चतुर्वेदी
मानवता का अस्तित्व जल पर निर्भर है और आम इनसान के पीने-खेती-मवेशी के लिए अनिवार्य मीठे जल का सबसे बड़ा जरिया नदियां ही हैं। जहां-जहां से नदियां निकलीं, वहां-वहां बस्तियां बसती गईं और इस तरह विविध संस्कृतियों, भाषाओं, जाति-धर्मों का भारत बसता चला गया। तभी नदियां पवित्र मानी जाने लगीं-केवल इसलिए नहीं कि इनसे जीवनदायी जल मिल रहा था, इसलिए भी कि इन्हीं की छत्र-छाया में मानव सभ्यता पुष्पित-पल्लवित होती रही। गंगा और यमुना को भारत की अस्मिता का प्रतीक माना जाता रहा है। लेकिन विडंबना है कि विकास की बुलंदियों की ओर उछलते देश में अमृत बांटने वाली नदियां आज खुद जहर पीने को अभिशप्त हैं। इसके बावजूद देश की नदियों को प्रदूषण-मुक्त करने की नीतियां महज नारों से आगे नहीं बढ़ पा रही है। सरकार में बैठे लेाग खुद ही नदियों में गिरने वाले औद्योगिक प्रदूषण की सीमा में जब विस्तार करेंगे तो यह उम्मीद रखना बेमानी है कि देश की नदियां जल्द ही निर्मल होंगी।
असल में हमारी नदियां इन दिनों कई दिशाओं से हमले झेल रही हैं। उनमें पानी कम हो रहा है, वे उथली हो रही हैं, उनसे रेत निकाल कर उनका मार्ग बदला जा रहा है, नदियों के किनारे पर हो रही खेती से बहकर आ रहे रासायनिक पदार्थ, कल-कारखानों और घरेलू गंदगी का नदी में सीधा मिलान हो रहा है। नदी केवल एक जलमार्ग नहीं होती, जल के साथ उसमें रहने वाले जीव-जंतु, वनस्पति, उसके किनारे की नमी, उसमें पलने वाले सूक्ष्म जीव, उसका इस्तेमाल करने वाले इनसान व पशु सभी मिलकर एक नदी का चक्र संपूर्ण करते हैं। यदि इसमें एक भी कड़ी कमजोर या नैसर्गिक नियम के विरुद्ध जाती है तो नदी की तबीयत खराब हो जाती है।
साल 2009 में  केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने देश में कुल दूषित नदियों की संख्या 121 पाई थी जो अब 275 हो चुकी है। यही नहीं आठ साल पहले नदियों के कुल 150 हिस्सों में प्रदूषण पाया गया था, जो अब 302 हो गया है। बोर्ड ने 29 राज्यों व छह केंद्र शासित प्रदेशों की कुल 445 नदियों पर अध्ययन किया, जिनमें से 225 का जल  बेहद खराब हालत में मिला। इन नदियों के किनारे बसे 650 शहरों के 302 स्थानों पर सन 2009 में 38 हजार एमएलडी सीवर का गंदा पानी नदियों में गिरता था जो कि आज बढ़ कर 62 हजार एमएलडी  हो गया। चिंता की बात है कि कहीं भी सीवर ट्रीटमेंट प्लांट की क्षमता नहीं बढ़ाई गई है। सरकारी अध्ययन में 34 नदियों में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड यानि बीओडी की मात्रा 30 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक पाई गई।
भारत में प्रदूषित नदियों के बहाव का इलाका 12,363 किलोमीटर मापा गया है इनमें से 1,145 किलोमीटर का क्षेत्र पहले स्तर यानी बेहद दूषित श्रेणी का है। दिल्ली में यमुना इस मामले में शीर्ष पर है, महाराष्ट्र  में 43 नदियां मरने की कगार पर हैं। असम में 28, मध्यप्रदेश में 21, गुजरात में 17, कर्नाटक में 15, केरल में 13, बंगाल में 17, उप्र में 13, मणिपुर और ओडिशा में 12-12, मेघालय में दस और कश्मीर में नौ नदियां अपने अस्तित्व के लिए तड़प रही हैं। ऐसी नदियों के कोई 50 किलोमीटर इलाके के खेतों की उत्पादन क्षमता लगभग पूरी तरह समाप्त हो गई है। इलाके की अधिकांश आबादी चर्मरोग, सांस की बीमारी और पेट के रोगों से बेहाल है।
भू-जल विभाग का एक सर्वे गवाह है कि नदी के किनारे हैंडपंपों से निकल रहे पानी में क्षारीयता इतनी अधिक है कि यह न तो पीने लायक है, न ही खेती के। हमारी नदियों के सामने मूलरूप से तीन तरह के संकट हैं- पानी की कमी, मिट्टी का आधिक्य और प्रदूषण। इन नदियों को मरने की कगार पर पहुंचाने वाला यही समाज और सरकार की नीतियां हैं। इस दौर में विकास का पैमाना निर्माण कार्य है -भवन, सड़क, पुल आदि। निर्माण में सीमेंट, लोहे के साथ दूसरी अनिवार्य वस्तु है रेत या बालू। यह नदियों के बहाव के साथ तट पर एकत्र होती है। हर छोटी-बड़ी नदी का सीना छेद कर मशीनों द्वारा रेत निकाली जा रही है। नदी के नैसर्गिक मार्ग को बदला जाता है, उसे खोदा या गहरा किया जाता है।
नदी के जल बहाव क्षेत्र में रेत की परत न केवल बहते जल को शुद्ध रखती है, बल्कि उसमें मिट्टी के मिलान से दूषित होने और जल को भू-गर्भ में जज्ब होने से भी बचाती है। जब नदी के बहाव पर पॉकलैंड व जेसीबी मशीनों से प्रहार होता है तो उससे पूरा पर्यावरण ही बदल जाता है। दरअसल कल-कारखानों की निकासी, घरों की गंदगी, खेतों में मिलाए जा रहे रासायनिक दवा व खादों का हिस्सा, भूमि कटाव और भी कई ऐसे कारक हैं जो नदी के जल को जहर बना रहे हैं। अनुमान है कि जितने जल का उपयोग किया जाता है, उसके मात्र 20 प्रतिशत की ही खपत होती है, शेष 80 फीसदी सारा कचरा समेटे बाहर आ जाता है। नदियों की गंदगी का तीन चौथाई हिस्सा घरेलू मल-जल ही है। हर घर में शौचालय, घरों में स्वच्छता के नाम पर बहुत से साबुन और केमिकल का इस्तेमाल, शहरों में मल-जल के शुद्धिकरण की लचर व्यवस्था और नदियों के किनारे हुए बेतरतीब अतिक्रमण नदियों के बड़े दुश्मन बन कर उभरे हैं।

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