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गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

Voter list need too be update carefully

मतदाता सूची तैयार करने में कोताही क्यों ?

पंकज चतुर्वेदी
लोकतंत्र की मूल आत्मा को बचाने के लिए अधिक से अधिक लोगों को मतदान केंद्र तक पहुचाना जरूरी होता है । यह एक निर्विवाद सत्य है, लेकिन उन परिस्थितियों का क्या किया जाए, जब मतदाता अपना मतदाता पहचान पत्र ले कर मतदान केंद्र जाता है और वहां से उसे यह कह कर भगा दिया जाता है कि उसका नाम तो मतदाता सूची में ही नहीं है। संवेदनशील नागरिक को एकबारगी लगता है कि क्या वह इससे देश का नागरिक ही नहीं है या आने वाले पांच साल इस निर्वाचित निकाय में ना तो उसकी कोई भागीदारी होगी और ना ही दावेदारी। उसके पास मतदाता पहचान पत्र है, आवास का प्रमाण है, आधार है, कई एक तो सरकारी महकमों में काम करने वाले होते हैं। इसके बावजूद वे मतदाता नहीं हैं।
पिछले दिनों देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में स्थानीय निकाय के चुनाव हुए। इलाहबाद में महज 34 फीसदी और लखनउ में 39 प्रतिशत ही वोट गिरे। सर्वाधिक मतदान हमीरपुर और अमेठी में 69 प्रतिशत के करीब था। इसके बावजूद हर षहर, कस्बे में हजारों लेागे विरोध दर्शाते दिखे कि उनका नाम ही मतदाता सूची में नहीं है। उनमें से अधिकांश वे थे जिन्होंने पिछले विधानसभा और लेकसभा में वोट डाला था।

गुजरात में भी कई ऐसे मतदाता चिल्लाते दिखे जिन्होंने पिछले साल स्थानीय निकाय में तो वोट दिया लेकिन विधानसभा की मतदाता सूची में वे नहीं थे।  जाहिर है कि एक आम धारणा यही बनती है कि कतिपय पूर्वाग्रह के चलते किसी ताकतवर राजनीतिक दल ने उनका नाम उड़ा दिया। जबकि असल में यह सारा खेल महज प्रशासनिक अव्यवस्था का होता है। यह कैसी विडंबना है कि एक ही देश के एक ही हिस्से में दो मतदाता सूची होती हैं - एक राज्य निर्वाचन आयोग की और दूसरी केंद्रीय निर्वाचन आयोग की। हालांकि दोनों को तैयार करने वाली मशीनरी एक ही होती है, लेकिन मतदाता सूची का रिकार्ड, पंजीयन अलग-अलग होता है। केंद्रीय मतदाता सूची के आधार पर राज्य व केंद्र के चुनाव होते हैं, जबकि राज्य की सूची पर स्थानीय निकाय अर्थात नगरपालिका या पंचायत चुनाव।
होता यह है कि मतदाता को यह भेद पता नहीं होता और वह एक जगह अपना नाम पंजीकृत करवा कर मतदाता पहचान पत्र पा जाता है, लेकिन कहीं राज्य तो कहीं केंद्र की सूची से उसका नाम नदारत होता है। अब मतदाता सूची तैयार करने के जिम्मेदार बीएलओ, जोकि अधिकाश्ंा सरकारी स्कूल के शिक्षक होते हैं, बहुत ही कम घर-घर जा कर मतदाता सूची अपडेट करते हैं। अब स्थानीय निकाय चुनाव के पहले बीएलओ को जो मतदाता सूची अपडेट करने को दी गई , वह पांच साल पहले हुए स्थानीय निकाय के चुनाव वाली थी। यदि कहीं ईमानदारी से अपडेट हुआ तो ठीक, वरना बीते पांच सालों के दौरान नए पंजीकृत मतदाता(भले ही उनका नाम केंद्र की सूची में दर्ज था), इस सूची से गायब होता है।

वहीं आम मतदाता को या तो सूचना नहीं मिलती या फिर निर्धारित तारीख पर मतदान केंद्र पर बीएलओ पहुंचता हीं नहीं है और उसका नाम किसी सूची से वंचित रह जाता है। यह भी दुखद है कि लेाकतंत्र के मूल आधार-मतदाता सूची के निर्माा में अनयिमितता या कोताही पर कोई कड़ा दंड दिया जाता नहीं हे। कभी कोई सस्पेंड होता है तो कुछ ही दिनों में राजनीतिक दखल के बाद बहाल हो जाता है। यह भी दुखद है कि मतदाता सूची तैयार करने जैसा महत्वपूर्ण कार्य पहले से ही कई जिम्मेदारी निभाने वाले शिक्षक के गले बांध दिया गया हे। हालांकि अब आनलाईन मतदाता पंजीयन की सुविवधा है, लेकिन तकनीकी साक्षरता इतनी अधिक है नही कि लोगों को इसका व्यापक लाभ मिल सके।
एक साधारण सा उपाय मतदाताओं को अपना नाम जानबूझ कर सूची से उड़ाने के अविश्वास को दूर कर सकता है कि मतदात सूची राज्य या केंद्र की अलग-अलग ना हों। जो एक बार केंद्रीय मतदाता सूची में दर्ज है, वह सभी चुनावों के लिए अधिकृत होगा, साथ ही जब कभी मतदाता सूची अद्यतन करने का कार्य हो तो अंतिम सूची पर वह काम करे। इससे प्रशासनिक जटिलता, व्यय से तो मुक्ति मिलेगी ही , समय की भी बचत होगी और संस्था के प्रति विश्वास बहाली की राह भी निकलेगी।         
                                                                                                                                                                                                       
इसमें कोई षक नहीं कि भारत के षहरी क्षेत्रों में मतदान के प्रति लेागों में ज्यादा उत्साह नहीे होता । कुछ सालों पहले चुनाव आयोग ने सभी राजनैतिक दलों के साथ एक बैठक में प्रतिपत्र मतदान का प्रस्ताव रखा था । इस प्रक्रिया में मतदाता अपने किसी प्रतिनिधि को मतदान के लिए अधिकृत कर सकता है । इस व्यवस्था के लिए जन प्रतिनिधि अधिनियम 1951 और भारतीय दंड संहिता में संशोधन करना जरूरी है । संसद में बहस का आश्वासन दे कर उक्त अहमं मसले को टाल दिया गया । गुजरात में स्थानीय निकायों के निर्वाचन में अनिवार्य मतदान की कानून लाने का प्रयास किया गया था लेकिन वह सफल नहीं हुआ। यहां जानना जरूरी है कि दुनिया के कई देशों में मतदान अनिवार्य है। आस्ट्रेलिया सहित कोई 19 मुल्कांे में वोट ना डालना दंडनीय अपराध है। क्यों ना हमारे यहां भी बगैर कारण के वोट ना डालने वालों के कुछ नागरिक अधिकार सीमित करने या उन्हें कुछ सरकारी सुविधाओं से वंचित रखने के प्रयोग किये जाएं। लेकिन साथ ही मतदाता सूची निरापद हों, इसके भी कड़े प्रावधान हों। यदि यह सरकार लोकतंत्र की मूल भावना को जीवित रखने के लिए मतदाता सूची तैयार करने में आमूल-चूल परिवर्तन करती है तो आम आदमी खुद को लोकतंत्र के करीब समझेगा। इसके लिए देश के सबसे बड़े  नागरिक डाटा - आधार का सहारा लिया जा सकता है।

आज चुनाव से बहुत पहले बड़े-बड़े रणनीतिकार  मतदाता सूची का विश्लेशण कर तय कर लेते हैं कि हमें अमुक जाति या समाज के वोट चाहिए ही नहीं। यानी जीतने वाला क्षेत्र का नहीं, किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि होता है। यह चुनाव लूटने के हथकंडे इस लिए कारगर हैं, क्योंकि हमारे यहां चाहे एक वोट से जीतो या पांच लाख वोट से , दोनों के ही सदन में अधिकार बराबर होते है। ऐसे में राजनीतिक दलों की इसमें कतई रूचि नहीं होती कि अधिक से अधिक लेागां के नाम मतदाता सूची में हों, वे तो बस अपने लेागों के ही वोट चाहते हैं। यदि राश्ट्रपति चुनावों की तरह किसी संसदीय क्षेत्र के कुल वोट और उसमें से प्राप्त मतों के आधार पर सांसदों की हैंसियत, सुविधा आदि तय कर दी जाए तो नेता पूरे क्षेत्र के वोट पाने के लिए प्रतिबद्ध होंगे, ना कि केवल गूजर, मुसलमान या ब्राहण वोट के।  केबिनेट मंत्री बनने के लिए या संसद में आवाज उठाने या फिर सुविधाओं को ले कर निर्वाचित प्रतिनिधियों का उनको मिले कुछ वोटो का वर्गीकरण माननीयों को ना केवल संजीदा बनाएगा, वरन उन्हें अधिक से अधिक मतदान भी जुटाने को मजबूर करेगा। ऐसा करने पर राजनीतिक दल व चुनाव लड़ने के आकंाक्षी भी अधिक से अधिक मतदाताओं को पंजीकृत करवाने के कार्य के लिए प्रेरित होंगे।

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