My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

मंगलवार, 30 जनवरी 2018

conservation of traditional water system is only way to face drought

परंपरागत तरीकों से ही निदान जल प्रणाली 
पंकज चतुर्वेदी 

राष्ट्रीय सहारा ३१ जनवरी १८ 
इस बार बारिश फिर रूठ गई थी और बुंदेलखंड, तेलंगाना, मराठवाड़ा, बस्तर जैसे इलाके जनवरी शुरू होते-होते पानी के लिए हांफने लगे हैं। अभी अगली बरसात बहुत-बहुत दूर है और कोई आस की किरण दिखाई नहीं देती। पिछले अनुभवों से यह तो स्पष्ट है कि भारी-भरकम बजट, राहत, नलकूप जैसे शब्द जल संकट का निदान नहीं है। यदि भारत का ग्रामीण जीवन और खेती बचाना है तो बारिश की हर बूंद को सहेजने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। बुंदेलखंड अभी तीन साल पहले ही कई करोड़ रुपये का विशेष पैकेज उदरस्थ कर चुका था, लेकिन जाड़े के दिनों में न तो नल-जल योजनाएं काम आ रही हैं और ना ही नलकूप। देश के बहुत बड़े हिस्से के लिए अल्प वष्ा नई बात है और न ही वहां के समाज के लिए कम पानी में गुजारा करना। लेकिन बीते पांच दशक में आधुनिकता की आंधी में दफन हो गई पारंपरिक जल पण्रालियों के चलते आज वहां निराशा, पलायन व बेबसी का आलम है। मप्र के बुरहानपुर शहर की आबादी तीन लाख के आसपास है। निमाड़ का यह इलाका पानी की कमी के कारण कुख्यात है, लेकिन आज भी शहर में कोई अठारह लाख लीटर पानी प्रतिदिन एक ऐसी पण्राली के माध्यम से वितरित होता है, जिसका निर्माण सन 1615 में किया गया था। यह पण्राली जल संरक्षण और वितरण की दुनिया की अजूबी मिसाल है, जिसे ‘‘भंडारा’ कहा जाता है। सतपुड़ा पहाड़ियों से एक-एक बूंद जल जमा करना और उसे नहरों के माध्यम से लोगों के घरों तक पहुंचाने की यह व्यवस्था मुगल काल में फारसी जल-वैज्ञानिक तबकुतुल अर्ज ने तैयार की थी। समय की मार के चलते दो भंडारे पूरी तरह नष्ट हो गए हैं। सनद रहे कि हमारे पूर्वजों ने देश-काल-परिस्थिति के अनुसार बारिश को समेट कर रखने की कई पण्रालियां विकसित व संरक्षित की थीं, जिसमें तालाब सबसे लोकप्रिय थे। घरों की जरूरत यानी पेयजल व खाना बनाने के लिए मीठे पानी का साधन कुआं कभी घर-आंगन में हुआ करता था। धनवान लोग सार्वजनिक कुएं बनवाते थे। हरियाणा से मालवा तक जोहड़ या खाल जमीन की नमी बरकरार रखने की प्राकृतिक संरचना हैं। ये आमतौर पर वष्ा-जल के बहाव क्षेत्र में पानी रोकने के प्राकृतिक या कृत्रिम बांध के साथ छोटा तालाब की मानिंद होता है। तेज ढलान पर तेज गति से पानी के बह जाने वाले भूस्थल में पानी की धारा को काटकर रोकने की पद्धति ‘‘पाट’ पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय रही है। एक नहर या नाली के जरिये किसी पक्के बांध तक पानी ले जाने की पण्राली ‘‘नाड़ा या बंधा’ अब देखने को नहीं मिल रही है। कुंड और बावड़िया महज जल संरक्षण के साधन नहीं, बल्कि हमारी स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना रहे हैं। आज जरूरत है कि ऐसी ही पारंपरिक पण्रालियों को पुनर्जीवित करने के लिए खास योजना बनाई जाए। कागजों पर आंकड़ों में देखें तो हर जगह पानी दिखता है लेकिन हकीकत में पानी की एक-एक बूंद के लिए लोग पानी-पानी हो रहे हैं। जहां पानी है, वह इस्तेमाल के काबिल नहीं है। आज जलनिधि को बढ़ता खतरा बढ़ती आबादी से कतई नहीं है। खतरा है आबादी में बढ़ोतरी के साथ बढ़ रहे औद्योगिक प्रदूषण, दैनिक जीवन में बढ़ रहे रसायनों के प्रयोग और मौजूद जल संसाधनों के अनियोजित उपयोग से। यह दुखद है कि जिस जल के बगैर एक दिन भी रहना मुश्किल है, उसे गंदा करने में हम बड़े बेरहम हैं। यह जान लेना जरूरी है कि पानी को बचाए रखने के लिए बारिश का संरक्षण ही एकमात्र उपाय है। यदि देश की महज पांच प्रतिशत जमीन पर पांच मीटर औसत गहराई में बारिश का पानी जमा किया जाए तो पांच सौ लाख हेक्टेयर पानी की खेती की जा सकती है। इस तरह औसतन प्रति व्यक्ति 100 लीटर पानी प्रति व्यक्ति पूरे देश में दिया जा सकता है। और इस तरह पानी जुटाने के लिए जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर सदियों से समाज की सेवा करने वाली पारंपरिक जल पण्रालियों को खेजा जाए, उन्हें सहेजने वाले, संचालित करने वाले समाज को सम्मान दिया जाए और एक बार फिर समाज को ‘‘पानीदार’ बनाया जाए। यहां ध्यान रखना जरूरी है कि आंचलिक क्षेत्र की पारंपरिक पण्रालियों को आज के इंजीनियर शायद स्वीकार ही नहीं पाएं सो जरूरी है कि इसके लिए समाज को ही आगे किया जाए। जल संचयन के स्थानीय व छोटे प्रयोगों से जल संरक्षण में स्थानीय लोगों की भूमिका व जागरूकता दोनों बढ़ेगी, साथ ही इससे भूजल का रिचार्ज तो होगा ही, जो खेत व कारखानों में पानी की आपूत्तर्ि को सुनिष्चित करेगा।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Do not burn dry leaves

  न जलाएं सूखी पत्तियां पंकज चतुर्वेदी जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जल...