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बुधवार, 18 जुलाई 2018

Identify supporter of violence in the name of religion

हिंसा पर अट्टहास करने वालों के असली मकसद को पहचानें। 

पंकज चतुर्वेदी 


17 जुलाई 2018 को जब देश की शीर्ष अदालत कानून के भीड़ के हाथों बंधक बनाने की बढ़ती प्रवृति पर अपनी नाखुशी जाहिर करते हुए इस पर सख्त कानून का आदेश दे रही थी, ठीक उसी समय देश के छोर पर झारखंड के पाकुड़ जिले के एक गांव में अस्सी साल के स्वामी अग्निवेश को सरे राह पीटा जा रहा था। जयश्री राम के उदघोष के साथ मां-बहन की गालियां और निर्मम पिटाई होती रही। अग्निवेश के बोल विवादास्पद होते हैं, वे हरियाणा सरकार में पूर्व मंत्री रहे हैं, यह सूचना स्थानीय प्रशासन के लिए पर्याप्त थी कि उनके साथ सुरक्षा व्यवस्था हो, लेकिन लगता है कि सारे कुएं में भांग घुली थी और घटना के घंटाभर बाद पुलिस पहुंची। मसला बस यहीं तक नहीं रूका, उसके बाद देश में इस घटना के विरोध में जितने स्वर उठे, उतने ही लोग इस पर हर्ष-आनंद जताने वाले भी मुखर थे। ठीक उसी तरह जैसे गौरी लंकेश की हत्या, अखलाक या पहलु खां या ऐसी ही अन्य  सार्वजनिक रूप से पीट-पीट कर मारने की घटनाओं के बाद हुआ। फेसबुक को एक व्यापक सर्वे तो नहीं कह सकते, लेकिन वह पांच हजार लेागों के मिजाज का आईना जरूर है। सबसे दुखद यह है कि इस तरह धर्म-रक्षा के नाम पर सार्वजनिक हत्या करने वालों के पक्ष में कुतर्क गढ़ने वालों में सबसे अधिक वे लोग होते हैं जिन्हें सनातन समाज में श्रेष्ठ, शिक्षित और समाज का मार्गदर्शक माना जाता है।

देश में सांप्रदायिक दंगों का काला अतीत दो दशक से ज्यादा पुराना है। यह बात दीगर है कि धर्म की आउ़ में भउ़के दंगों की जब जांच हुई तो पता चला कि अधिकांश के पीछे जमीन पर कब्जे, व्यापारिक प्रतिस्पर्द्धा जैसे मसले थे। अयोध्या के विवादास्पद ढांचे को गिराने का प्रयोग भीड़तंत्र को कानून व संविधान के खिलाफ नैतिक बनाने का प्रयोग संभवतया पहला था। उसके बाद सोशल मीडिया के आगमन के बाद अफवाहों, कुतर्क, असत्य के आधार पर एक आम आदमी में इतना भय पैदा कर देना कि वह एक ऐसी भीड़ की हिस्सा बन जाए जोकि किसी की भी जान ले सकती है, बेहद आसान हो गया। धर्म, संस्कृति, देश, बच्चे, भाषा , विचार ऐसे ही कुछ भावनात्मक मुद्दों को आए रोज की सियासत का हिस्सा बना कर अजीब सा खैफ का माहौल बनाया जाता है फिर जब भय अपने चरम पर होता है तो इंसान आक्रामक हां जता है, उसका विवेक शुन्य हो जाता है और वह संविधान-कानून’ नैतिकता, सभी से परे हट कर महज भीउ़ का अंजान चैहरा बन जाता है।

भीउ़ का उन्माद तो ठीक है, आखिर वे लोग कौन हें जोकि भीउ़ के किसी कृत्य को अपना नैतिक समर्थन देते है। जैसे कि स्वामी अग्निवेश की पिटाई के लिए लेागों ने उनके हिंदू देवी-देवता या पूजा पर दिए गए बयानों की आउ़ ली, कुछ ने उन्हें नक्सली समथक या ईसाई मिशिनरी का आदमी कहा। कुछ लोग अन्ना आंदोलन में उनके कपिल सिब्बल से बातचीत का वीडियो ले कर आ गए। लेकिन कोई यह नहंी स्पष्ट कर पाया कि क्या वैचारिक असहमति या प्रतिरोध-स्वर होने पर किसी की पिटाई या हत्या जायज है। मान लेंकि अलवर का पहलू खांन गाय का अवैध व्यापार कर रहा था तो उसे सरे राह पीटने व उसकी जान लेने के अधिकार किस कानून-धर्म-संथा ने अपराधियां को दे दिए थे। यदि अग्निवेश नक्सली समर्थक है तो पंद्रह साल से छत्तीसगड़ में और दस साल की झारंखंड की सरकार ने उन्हें जेल में क्यों नहीं डाल दिया। मूर्तिपूजा के विरोध में तो स्वामी दयानंद सरस्वती ने क्या कुछ नहीं कहा तो क्या उनकी हत्या को जायज ठहराया जा सकता है? ये हत्यारे, ये विचार और ये तेवर असल में देश के लोकतंत्रात्मक प्रणाली के लिए ही खतरा हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि देश की लोकतंत्रात्मक और धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के लिए भीड़ तंत्र नुकसानदेह है।
सोशल मीडिया पर अग्निेवेश की पिटाई या गौरी लंकेश की हत्या या फिर ऐसी ही अन्य मॉब लिंचिंग की घटनाओं का समर्थन करने वाले एक ही विचारधारा के लोग हैं। उनका तर्क भी एक ही है कि हिंदू धर्म खतरे में है और ऐसी घटनांए धर्म-रक्षा के लिए हैं। असल में ऐसे लेाग किसी कुभ, सिंहस्था या माघ मेले में जाते नहीं हैं, ये लोग हर महीने की अमावस पर गंगा के तट को देखते नहीं है, जहां बगैर किसी परिषद, संघ या संगठन के आमंत्रण के लाखों लोग सदियों से आते हैं और आस्था के साथ अपने पीढ़ियों से चले आ रहे  पुराने संस्कार निभाते हैं। विडंबना है कि फेसबुक पर धर्म रक्षा के नाम पर  हिंसा को जायद ठहराने वालों में सबसे बड़ी संख्या उस समाज के लोगों की होती है जिस पर जिम्मेदारी है कि वह लोगों को धर्म के सही मायने, धर्मग्रंथों का असली मकदसद बताए आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि सबसे अधिक बुद्धिजीवी कहे जाना वाले समाज को ही धर्म खतरे में दिख रहा है?
हकीकत यह ह कि अभी कुछ दशक पहले तक शिक्षा और साक्षरता पर सीमित लोगों का अधिकार था। सरकार, नौकरी, समाज सभी जगह उनकी पेठ सबसे ज्यादा थी। वैश्वीकारण के बाद सभी समाज, वर्ग, जाति के लोग शिक्षा पा रहे हैं। सभी धर्म को अपने नजरिये से आंक रहे हैं। सभी के पास वदे को सरल भाषा में पढ़ने व समझने की अवसर पर समझ है। ऐसे में सदियों से अपने ज्ञान के बल पर अल्प श्रम के बद भी शाही जीवकोपार्जन करने की प्रवृति वाले लोगों को अपना सिंहासन डगमगाता दिख रहा है। । हालांकि यह हर गांव’कस्बे की कहानी है कि नवरात्रि जैसे पर्व में मुर्गा व शराब की बिक्री कम हो जाती है, जाहिर है कहने की जरूरत नहीं कि इसके सेवन मे कौन लेाग शािमल हैं। शायद जान कर आश्चर्य होगा कि सन्यास व संत परंपरा में अधिकांश लोग गैर ब्राहम्ण है और अखाड़ों में रहेन वाले साध्ुाओं में सर्वाधिक ओबीसी कहलाने वाले वर्ग से होते हैं। इसे बावजूद खुद को धर्म की शीर्ष मानने वाले स्वयंभु लोग  अब उन लोगों को भयभीत कर, भड़का कर धर्म के संकट का हौआ खड़ा कर रहे हैं। असल में संकट में उनका जातिय आधार पर स्थावित स्वयंभु श्रेष्ठता का दंभ है। जो उन्होने स्वयं अपने मन-वचन और कर्म से गंवाया है। ऐसे ही लोग सोशल मीडिया पर मुखर स्वर में धर्म के नाम पर हुडदंगई को जायज ठहराते हैं। एक बात और इस भीउ़ को धार देने में बेरोजगारी, खाली दिमाग,  बेहद कम दाम पर मोाबईल पर चौवीसों घंटे उपलब्ध डाटा और ऐसे मसलों में राजनीतिक नेत्त्व का ढीला रवैया आग में पानी का काम करता है।
यदि असमति या अपने विचार को स्थापित करने के लिए अग्निवेश को पीटने को जायज ठहराया जा सकता है तो फिर पनी कथित विचारधारा के लिए सरेआम हत्या व लूट कने वाले नक्सली या पूर्वोत्र या कश्मीर में अलगाववादियों के भी अपने तर्क सामने हैं।  अराजकता, और कानून से परे समानांतर  हरकतें करना, देश के अस्तित्व, अस्मिता और अवसर के लिए बेहद खतरनाक हैं। इससे हमारी आर्थिक प्रगति और अंतरराष्ट्रीय छबि पर भी असर पउ़ रहा हे। आम युवाओं को  सोचना होगा कि सोशल मीडिया या अन्य माध्यामों से उन्हें भयभीत कर उकसाने वाले लोगो का असल मकसद क्या है?  जब तक संविधान है तब तक ना तो देश को खतरा है और ना ही सनातन धर्म को।

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