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शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

SAVE ELEPHANT राज एक्‍सप्रेस, भोपाल, 01 फरवरी 2014


गजराज को गुस्सा क्यों आता है ?

                            पंकज चतुर्वेदी
इन दिनों झारखंड-उडीसा-छत्तीसगढ की सीमा के आसपास एक हाथी-समूह का आतंक है। जंगल महकमे के लोग उस झंूड को भगाते घूम रहे हैं जबकि जिन दर्जनों लोगों को वह हाथी-दल घायल या नुकसान कर चुका है; उसे मारने की वकालत कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि हाथी बस्ती में आ गया है, लेकिन यदि तीस साल पहले के जमीन के रिकार्ड को उठा कर देखें तो साफ हो जाएगा कि इंसान ने हाथी के जंगल में घुसपैठ की है। दुनियाभर में हाथियों को संरक्षित करने के लिए गठित आठ देशों के समूह में भारत शामिल हो गया है। भारत में इसे ‘राष्ट्रीय धरोहर पशु’ घोषित किया गया है। इसके बावजूद भारत में बीते दो दशकों के दौरान हाथियों की संख्या स्थिर हो गई हे। जिस देश में हाथी के सिर वाले गणेश को प्रत्येक शुभ कार्य से पहले पूजने की परंपरा है , वहां की बड़ी आबादी हाथियों से छुटकारा चाहती है । 
कभी हाथ्यिों का सुरक्षित क्षेत्र कहलाने वाले असम में पिछले सात सालों में हाथी व इंसान के टकराव में 467 लोग मारे जा चुके हैं। अकेले इस साल नवंबर तक 43 लोगों की मौत हाथों के हाथों हुई। पिछले साल 92 लोग मारे गए थे। झारखंड की ही तरह आए रोज  हाथी को गुस्सा आ जाता है और वह खड़े खेत, घर, इंसान; जो भी रास्ते में आए कुचल कर रख देता है । देशभर से हाथियों के गुस्साने की खबरें आती ही रहती हैं । पिछले दिनों भुवनेश्वर में दो लेाग हाथी के पैरों तले कुचल कर मारे गए ।.ऋ़शिकेश के कई इलाकों में हाथियों के डर से लोग खेतों में नहीं जा रहे हैं । छत्तीसगढ़ में हाथी गांव में घुस कर खाने-पीने का सामान लूट रहे हैं । इंसान को भी जब जैसया मौका मिल रहा है, वह हाथियों की जान ले रहा है । दक्षिणी राज्यों  के जंगलों में गर्मी के मौसम में हर साल 20 से 30 हाथियों के निर्जीव शरीर संदिग्ध हालात में मिल रहे हैं । प्रकृति के साथ लगातार हो रही छेड़छाड़ को अपना हक समझने वाला इसांन हाथी के दर्द को समझ नहीं रहा है और धरती पर पाए जाने वाले सबसे भारीभरकम प्राणी का अस्तित्व संकट में है ।
19 वीं सदी की शुरूआत में एशिया में हाथियों की संख्या दो लाख से अधिक आंकी गई है । आज यह बामुश्किल 35 हजार है । सन 1980 में भारत में 26 से 28 हजार हाथी थे । अगले दशक में यह घट कर 18 से 21 हजार रह गई । भले ही सरकारी दावे कुछ हों, लेकिन आज यह आंकड़ा 15 हजार के आसपास सिमट कर रह गया है । भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में सबसे अधिक हाथी हैं । उसके बाद दक्षिण का स्थान आता है । हिमालय की तराई भी गजराज का पसंदीदा क्षेत्रा रहा है ।
1959 में एशियाई हाथी को संकटग्रस्त वन्यजाति में शामिल किया गया था । इसी के मद्देनजर आठवीं पंचवर्षीय योजना में हाथी परियोजना के लिए अलग से वित्तीय प्रावधान रखे गए थे । सरकारी फाईलों के मुताबिक 1991-92 से देश में यह विशेष परियोजना लागू है । लेकिन दुर्भाग्य है कि इसी के बाद गजराज के सिर पर मौत का साया अधिक गहराता जा रहा है ।
उत्तर-पूर्वी राज्यों में, विशेषकर नगा लोग हाथियों को ‘बवाल’ समझते हैं । उनका डर है कि हाथी उनके लहलहाते धान के खेतों को तबाह कर डालता है और मौका मिलने पर उनके गांवों को भी नहीं छोड़ता है । इस लिए वे इसके शिकार की फिराक में रहते है । इस शिकार में एक तरफ तो वे ‘शत्रुा विजय’ का गर्व अनुभव करते हैं और दूसरी ओर उन्हें दावत के लिए प्रचुर मांस मिलता है । इन क्षेत्रों में हाथी की हड्डी, मद, दांत व अन्य अंगों  को ले कर कई चिकित्सीय व अंधविश्वासीय मान्यताएं हैं , जिनके कारण जनजाति के लोग हाथी को मार देते हैं । वैसे इन दिनों कतिपय बाहरी लोग इन आदिवासियों को छोेट-मोटे लालच में फंसा कर ऐसे शिकार करवा रहे हैं ।
कर्नाटक के कोडगू और मैसूर जिले में 643 वर्ग किमी में फैला नागरहोल पार्क हाथियों का पसंदीदा आवास है । इसके  दक्षिण-पश्चिम में केरल की व्यानाद सेंचूरी है । पास में ही बांदीपुर(कर्नाटक) और मधुमलाई (तमिलनाडु) के घने जंगल  हैं । भारत में पाए जाने वाले हाथियों का 40 फीसदी यहां रहता है । पिछले कुछ सालों में यहां जंगल की कटाई बढ़ी है । हर साल बारिश से पहले इन जंगलों में हाथियों की मौत हो रही है । वन विभाग के अफसर लू या दूषित पानी को इसका कारण बता कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं । हकीकतन यहां हाथियों केा 100 लीटर पानी और 200 किलो पत्ते, पेड़ की छाल आदि की खुराक जुटाने के लिए हर रोज 18 घंटेां तक भटकना पड़ता है । गौरतलब है कि हाथी दिखने में भले ही भारीभरकम हैं, लेकिन उसका मिजाज नाजुक और संवेदनशील होता है । थेाड़ी थकान या भूख उसे तोड़ कर रख देती है । ऐसे में थके जानवर के प्राकृतिक घर यानि जंगल को जब नुकसान पहुचाया जाता है तो मनुष्य से उसकी भिडं़त होती है ।
असल संकट हाथी की भूख है । कई-कई सदियों से यह हाथी अपनी जरूरत के अनुरूप अपना स्थान बदला करता था । गजराज के आवागमन के इन रास्तों को ‘‘एलीफेंट काॅरीडार’’ कहा गया । सन 1999 में भारत सरकार के वन तथा पर्यावरण मंत्रालय ने इन काॅरीडारों पर सर्वे भी करवाया था । उसमें पता चला था कि गजराज के प्राकृतिक काॅरीडार  से छेड़छाड़ के कारण वह व्याकुल है । हरिद्वार और ऋषिकेश के आसपास हाथियों के आवास हुआ करते थे । आधुनिकता की आंधी में जगल उजाड़ कर ऐसे होटल बने कि अब हाथी गंगा के पूर्व से पश्चिम नहीं जा पाते हैं्र। रामगंगा को पार करना उनके लिए असंभव हो गया है । अब वह बेबस हो कर सड़क या रेलवे ट्रैक पर चला जाता है और मारा जाता है । ओडिसा के हालात तो बहुत ही खराब हैं । हाथियों का पसंदीदा ‘‘ सिंपलीपल काॅरीडार’’ बोउला की क्रोमियम खदान की चपेट में आ गया । सतसोकिया काॅरीडोर को राष्ट्रीय राजमार्ग हड़प गया ।
ठीक ऐसे ही हालात उत्तर-पूर्वी राज्यों के भी हैं । यहां विकास के नाम पर हाथी के पारंपरिक भोजन-स्थलों का जम कर उजाड़ा गया और बेहाल हाथी जब आबादी में घुस आया तो लोगों के गुस्से का शिकार बना । हाथियों के एक अन्य प्रमुख आश्रय-स्थल असम में हाथी बेरोजगार हो गए है और उनके सामने पेट भरने का संकट खड़ा हो गया है। सन 2005 में सुप्रीम कोट के एक आदेश के बाद हाथियों से वजन ढुलाई का काम गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। इसके बाद असम के कोई 1200 पालतू हाथी एक झटके में बेरोजगार हो गए। हाथी उत्तर-पूर्वी रज्यों के समाज का अभिन्न हिस्सा रहा है सदियों से ये हाथी जंगलों से लकड़ी के लठ्ठे ढोने का काम करते रहे हैं।  अदालती आदेश के बाद ये हाथी और उनके महावत लगभग भुखमरी की कगार पर हैं। असम में कहीं भी जाईए, सड़कों पर ये हाथी अब भीख मांगते दिखते हैं। सनद रहे कि एक हाथी की खुराक के लिए महीने भर में कम से कम दस हजार रूपए खर्च करना ही होते हैं। ऐसे में ‘‘हाथी पालना’’ अब रईसों के बस से भी बाहर है। असम के कुछ महावत अब अपने जानवरों को दिल पर पत्थर रख कर राजस्थान, दिल्ली जैसे राज्यों में बेच रहे हैं।

दक्षिणी राज्यों में जंगल से सटे गांवों मे रहने वाले लोग वैसे तो हाथी की मौत को अपशकुन मानते हैं , लेकिन बिगड़ैल गजराज से अपने खेत या घर को बचाने के लिए वे बिजली के करंट या गहरी खाई खोदने को वे मजबूरी का नाम देते हैं । यहां किसानों का दर्द है कि ‘हाथी प्रोजेक्ट’ का इलाका होना उनके लिए त्रासदी बन गया है । यदि हाथी फसल को खराब कर दे तो उसका मुआवजा इतना कम होता है कि उसे पाने की भागदौड़ में इससे कहीं अधिक खर्चा हो जाता है । हाथी के पैरों के नीचे यदि इंसान कुचल कर मर जाए तो मुआवजा राशि 25 हजार मात्रा होती है । वैसे यहां दुखी ग्रामीणों की आड़ में कई ‘वीरप्पन’ हाथी दंात के लिए हाथियों के दुश्मन बने हुए है ।
उत्तरांचल के जिम कार्बेट पार्क में कुछ साल पहले तक 1300 से अधिक हाथी रहते थे । रामगंगा परियोजना के लिए रिजर्व जलाशय और फिर कुनाई चीला शक्ति नहर के लिए उस जंगल के बड़े हिस्से को उजाड़ा गया । फिर बांध से विस्थापितों ने अपने नए घर-खेतों के लिए 1,65,000 एकड़ वन क्षेत्रा को काट डाला । यहां हरियाली के नाम पर यूक्लेपिटस जैसे गैर-चारा पेड़ लगाए गए । ंजंगल कटने से हाथियों के लिए चारे-पानी का संकट खड़ा हुआ । भूख से बेहाल गजराज कई बार फसल और संपत्ति को नुकसान कर बैठते हैं ।
ऐसे ही भूखे हाथी बिहार के पलामू जिले से भाग कर छत्तीसगढ़ के सरगुजा व सटे हुए आंध्रप्रदेश के गंावों तक में उपद्रव करते रहते हैं । कई बार ऐसे बेकाबू हाथियों को जंगल में खदेड़ने के दौरान उन्हें मारना वन विभाग के कर्मचारियों की मजबूरी हो जाता है । उत्तरांचल में पिछले 25 सालों के दौरान कई हाथी ट्रेन से टकरा कर मारे गए हैं । कोई एक दर्जन हाथियों की मौत जंगल से गुजरती बिजली की लाईनों में टूटफूट के कारण होना सरकारी रिकार्ड में दर्ज है । ये वाकिये अनियोजित विकास के कारण प्राकृतिक संपदा को हो रहे नुकसान की बानगी हैं ।
नदी-तालाबों में शुद्ध पानी के लिए यदि मछलियों की मौजूदगी जरूरी है तो वनों के पर्यांवरण को बचाने के लिए वहां हाथी अत्यावश्यक हैं । मानव आबादी के विस्तार, हाथियों के प्राकृतिक वास में कमी, जंगलों की कटाई और बेशकीमती दांतों का लालच; कुछ ऐसे कारण हैं जिनके कारण हाथी को निर्ममता से मारा जा रहा है । यदि इस दिशा में गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो जंगलों का सर्वोच्च गौरव कहलाने वाले गजराज को सर्कस, चिडि़याघर या जुलूसों में भी देखना दुर्लभ हो जाएगा ।

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