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रविवार, 16 फ़रवरी 2014

सिस्टम नहीं चाहता कि डाक्टर बने
पंकज चतुर्वेदी
लोग तो भूल भी गए कि विष्व स्वास्थ्य संगठन ने सन 2000 तक भारत में ‘‘सबके लिए स्वास्थ्य’’ का लक्ष्य रखा था और वह योजन डाक्टरों की कमी से ओंधे मुंह गिर गई थी। ल ही में केंद्रीय मंत्रालय की आर्थिक मामलों की समिति ने एक ऐसी योजना का वायदा किया है जिसमें दस हजार करोड़ खर्च कर कोई दस हजार सरकारी अस्पतालों को मेंडिकल कालेज में तब्दील करने की बात है। हर साल डाक्टरी की अस्सी हजार सीटें बढ़ाने की बात यह योजना करती है। याद करें पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट ने मेडिकल कालेज के प्रवेष के लिए पूरे देष की एक परीक्षा पर रोक लगाते हुए एक बार फिर हर राज्य की अलग-अलग परीक्षा की व्यवस्था लागू कर दी थी  हालांकि वह फैसला तीन जजों की पीठ से एकमत नहीं आया था व असहमत जज ए.आर. दवे ने जो सवाल उठाए, वह पूरे देष के मन में भी आज भी हैं। भले ही मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया के अधिकार सीमा पर सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या सही हो, लेकिन इससे एक बार फिर निजी कालेजों में पीछे के रास्ते से प्रवेष की संभावनाएं बढ़ी हैं। इन दिनों कक्षा बारहवीं की परीक्षा दे रहे लाखांे बच्चों के मन में एमबीबीएस में प्रवेष की अभिलाशाएं है। देषभर में हजरों प्राईवेट कोचिंग सेटर चल रहें हैं, जहां बच्चों और उनके अभिभावकों को चिकने-चमकीले कागज पर छपे पर्चें बांटे जा रहे है, जिनमें मेडिकल कालेज की सालाना फीस, डोनेषन आदि का खुलासा बगैर किसी डर के किया गया था। यही नहीं हाल के दिनों में अखबारों में भी ऐसे विज्ञापन छपे, जिनमें मेडिकल कालेज में सीधे प्रवेष की दरें लिखी हुई थीं,  कहने की जरूरत नहीं कि इतना पैसा आम मध्यमवर्गीय के पास होना संभव नहीं है। यह तो बात हुई एमबीबीएस की, यदि डेंटिस्ट, होम्योपेथी, या आयुर्वेद डाक्टर की पढ़ाई की बात करें तो इतना समय और पैसा खर्च कर डिगरी पाने वालों के रोजगार की संभावनाएं बेहद क्षीण दिखती हैं।
गाजियाबाद  दिल्ली से सटा एक विकसित जिला कहलाता है, उसे राजधानी दिल्ली का विस्तार कहना ही उचित होगा। कोई 43 लाख आबादी वाले इस जिले में डाक्टरों की संख्या महज 1800 है, यानी एक डाक्टर के जिम्मे औसतन तीस हजार मरीज। इनका बीस फीसदी भी आम लोगों की पहुंच में नहीं है, क्योंकि अधिकांष डाक्टर उन बड़े-बड़े अस्पतालो में काम कर रहे है, जहां तक औसत आदमी का पहुंचना संभव नहीं होता। राजधानी दिल्ली में ही चालीस फीदी आबादी झोला छाप , नीमहकीमों या छाड़-फूंक वालों के बदौलत अपने स्वास्थ्य की गाड़ी खींचती है। कहने की जरूरत नहीं है कि ग्रामीण स्तर पर स्वास्थ सेवा की बानगी उ.प्र. का ‘‘एन एच आर एम’’ घेाटाला है। विष्व स्वास्थ्य सांख्यिकी संगठन के ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत में 13.3 लाख फीजिषियन यानी सामान्य डाक्टरों की जरूरत है जबकि उपलब्ध हैं महज 6.13 लाख।  सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रति 1667 व्यक्ति पर औसतन एक डाक्टर उपलब्ध है। अब गाजियाबद जैसे षहीरी जिले और सरकार के आंकड़ों को आमने-सामने रखें तो सांख्यिकीय-बाजीगरी उजागर हो जाती है। यहां जानना जरूरी है कि अमेरिका में आबादी और डाक्टर का अनुपात 1ः 375 है, जबकि जर्मनी में प्रति 283 व्यक्ति पर एक डाक्टर उपलब्ध है। भारत में षहरी क्षेत्रों में तो डाक्टर हैं भी, लेकिन गांव जहां 70 फीसदी आबादी रहती है, डाक्टरों का टोटा है।  फिलहाल सरकार का लक्ष्य है कि हर साल इतने नये डाक्टर बनें कि हजार पर एक डाक्टर का औसत आ जाए। ैसे यह भी बहुत ज्यादा है , क्योंकि एक डाक्टर हर दिन बीस से तीस मरीज ही ठीक से देख सकता है। नद रहे कि बस्तर जैसे दुर्गम क्षेत्रों में तो कई गांव ऐसे हैं जहां आज तक आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंची ही नहीं हैं। षहरों में भी उच्च आय वर्ग या आला ओहदों पर बैठे लोगों के लिए तो स्वास्थ्य सेवाएं सहज हैं, लेकिन आम लोगों की हालत गांव की ही तरह है।
जब तब संसद में जर्जर स्वास्थ्य सेवाओं की चर्चा होती है तो सरकार डाक्टरों का रोना झींकती है, लेकिन उसे दूर करने के प्रयास कभी ईमानदारी से नहीं हुए। हकीकत में तो कई सांसदों या उनके करीबियों के मेंडिकल कालेज हैं और वे चाहते नहीं हैं कि देष में मेडिकल की पढ़ाई सहज उपलब्ध हो। बकौल मेडिकल कांउसिंल भारत में 335 मेडिकल कालेजों में 40,525 सीटें एमबीबीएस की हैं। इनमें से बड़ी संख्या में प्राईवेट मेडिकल कालेज हैं। पीएमटी परीक्षा के बाहर बंट रहे पर्चों को यदि भरोसे लायक माने तो मेडिकल कालेज में प्रवेष के लिए नौ से बीस लाख रूपए तो डोनेषन या केपिटेषन देना ही होगा। फिर सालाना षिक्षण षुल्क दो लाख तीस हजार से चार लाख बासठ हजार रुपए तक है। बच्चे को हाॅस्टल में रखने की खर्चा एक लाख रुपए, किताबों- काॅपी व मेडिकल यंत्रों का खर्च एक लाख रूपए सालाना। यानी एक साल का कम से कम खर्च पांच लाख रूपए। पांच साल का पच्चीस और डोनेषन मिला कर चालीस लाख। अभी हम मेडिकल में पीजी की बात करते ही नहीं हैं- इसके बाद नौकरी की तो अधिकतम एक लाख रूपए महीने यानी बारह लाख रूपए साल। इनकम टैक्स काट कर हाथ में आए आठ लाख रूपए। यदि प्राईवेट प्रेक्टिस करना हो तो क्लीनिक जमाने, उसके प्रचार-प्रसार में और पांच लाख रूपए। आवक का पता नहीं - कितनी होगी...... कब होगी। अलबत्ता तो सरकारी नौकरी करने वाले एक समूह ए के अफसर जिसकी महीने कर तन्खवाह अस्सी हजार रूपए हो, उसके लिए पढ़ाई का खर्च उठाना ही संभव नहीं है। यदि उसने कर्ज ले कर यह कर भी दिया तो आय के लिए कम से कम सात-आठ साल इंतजार करना पड़ेगा, तब तक एजुकेषन लोन पर ब्याज बढ़ने लगेगा। इसके विपरीत यदि कोई इंजीनियरिंग या एमबीए की पढ़ाई में इससे एक-चैथाई खर्च करता है तो पांच साल बाद ही उसकी सुनिष्चित आय होने लगती है।
मेडिकल एजुकेषन के महंगे होने, कठिन होने व अपेक्षा से बहुत कम डाक्टर होने की समस्या से सभी सरकारें वाकिफ हें, इसके बावजूद कई राज्य सरकारों व निजी मेडिकल कालेजों ने कोई 114 रिट लगा कर मेंडिकल कालेज में दाखिले की संयुक्त परीक्षा की व्यवस्था को चुनौती दी थी। विडबंना है कि प्रधान न्यायाधीष अलतमष कबीर की नौकरी के आखिरी दिन उन्होंने जो फैसला सुनाया उसमें अलग-अलग राज्यो ंव संस्थानों की अलहदा प्रवेष परीक्षा और संयुक्त प्रवेष परीक्षा के  गुण-दोश पर कोई चर्चा ही नहीं की, बस मेडिकल काउंसिल के अधिकार क्षेत्र को आधार बना कर फैसला सुना दिया। जरा विचार करें कि क्या मध्यप्रदेष का कोई बच्चा, दक्षिण या पूर्व के किसी राज्य की प्रवेष परीक्षा में षामिल होने की सोच भी सकता है। हालांकि केंद्र सरकार इस पर पुनर्विचार याचिका दायर करने पर विचार कर रही है, लेकिन यह वाकिया गवाह है कि हमारे मुल्क में मेडिकल की पढाई अभी भी आम लोगों से कितना दूर है।
कुछ साल पहले केंद्र के स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने ग्रामीण क्षेत्रों के लिए अलग से डाक्टर तैयार करने के चार साला कोर्स की बात कही थी, लेकिन सरकारी दम पर उसका क्रियान्वयन संभव था हीं नहीं, और प्राईवेट कालेज वाले ऐसी किसी को परवान चढ़ने नहीं देना चाहते।  हाल के वर्शेंा में इंजीनियरिंग और बिजनेस की पढ़ाई के लिए जिस तरह से कालेज खुले, उससे हमारा देष तकनीकी षिक्षा और विषेशज्ञता के क्षेत्र में दुनिया के सामने खड़ा हुआ है। हमारे यहां महंगी मेडिकल की पढ़ाई, उसके बाद समुचित कमाई ना होने के कारण ही डाक्टर लगातार विदेषों की ओर रूख कर रहे हैं। यदि मेडिकल की पढ़ाई सस्ती की जाए, अधिक मेडिकल कालेज खोलने की पहल की जाए, ग्रामीण क्षेत्र में डाक्टरों को समुचित सुविधाएं दी जाएं तो देष के मिजाज को दुरूस्त करना कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन मेडिकल की पढ़ाई में जिस तरह सरकार ने निजी क्षेत्र को विस्तार से रोक रखा है, जिस तरह अंधाधुंध फीस ली जा रही है; उससे तो यही लगता है कि सरकार ही नहीं चाहती कि हमारे यहां डाक्टरों की संख्या बढ़े।

पंकज चतुर्वेदी
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

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