My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

Health for all ? not at all?? The sea express Agra

07 अप्रैल विष्व स्वास्थ्य दिवस पर विषेश http://theseaexpress.com/Details.aspx?id=62393&boxid=133657531

संभव नहीं है सबके लिए स्वास्थ्य
पंकज चतुर्वेदी
इस बार कांगेस के घेाशणा पत्र में  सभी के लिए निषुल्क  इलाज का वायदा है। भाजपा ने भी अपने दिल्ली राज्य के अलग से जार किए घोशण्ण पत्र में भी ऐसा ही कुछ वायदा किया गया है। सनद रहे हमारे देष में पहे से ही राश्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना, ईएसआई, सीजीएचएस जैसी कई स्वास्थ्य योजनाएं समाज के विभिन्न वर्गों के लिए हैं व सभी के हितग्राही असंतुश्ट, हताष  हैं। देषभर के सरकारी अस्पताल मषीनरी, डाक्टर तकनीषियनों के स्तर पर कितने कंगाल हैं, उसके किस्से आए रोज हर अखबार में छपते रहते हैं । भले ही केाई कुछ भी दावे कर ले, लेकिन हकीकत तो यह है कि हमारे यहां इतने डाक्टर ही नहीं है कि सभी को इलाज की कोई भी योजना सफल हो। यदि डाक्टर मिल भी जाएं तो आंचलिक क्षेत्र की बात दूर है, जिला स्तर पर जांच-दवा का इस स्तर का मूलभूत ढ़ांचा विकसित करने में दषकों लगेंगे ताकि मरीज महानगर की ओर ना भागे।  इन दिनों जैसे ही 12वीं के इम्तेहान खतम हुए हैं देषभर में मेडिकल में प्रवेष की परीक्षा का आयोजन हो रहा है, जिसमें कई-कई लाख बच्चे षामिल हुए। ये बच्चे उम्मीदें और सपने ले कर परीक्षा हाॅल में गए और भरोसे के साथ बहार भी आए, लेकिन सड़क पर आते ही उन्हें एहसास हुआ कि भले ही उनमें योग्यता हो लेकिन हालात ऐसे नहीं कि वे मेडिकल कालेज तक पहुंच पाएं। दिल्ली में हर परीक्षा सेंटर के बाहर  बच्चों और उनके अभिभावकों को चिकने-चमकीले कागज पर छपे पर्चें बांटे जा रहे थे, जिनमें मेडिकल कालेज की सालाना फीस, डोनेषन आदि का खुलासा बगैर किसी डर के किया गया था। यही नहीं हाल के दिनों में अखबारों में भी ऐसे विज्ञापन छपे, जिनमें मेडिकल कालेज में सीधे प्रवेष की दरें लिखी हुई थीं,  कहने की जरूरत नहीं कि इतना पैसा आम मध्यमवर्गीय के पास होना संभव नहीं है। यह तो बात हुई एमबीबीएस की, यदि डेंटिस्ट, होम्योपेथी, या आयुर्वेद डाक्टर की पढ़ाई की बात करें तो इतना समय और पैसा खर्च कर डिगरी पाने वालों के रोजगार की संभावनाएं बेहद क्षीण दिखती हैं।
गाजियाबाद  दिल्ली से सटा एक विकसित जिला कहलाता है, उसे राजधानी दिल्ली का विस्तार कहना ही उचित होगा। कोई 43 लाख आबादी वाले इस जिले में डाक्टरों की संख्या महज 1800 है, यानी एक डाक्टर के जिम्मे औसतन तीस हजार मरीज। इनका बीस फीसदी भी आम लोगों की पहुंच में नहीं है, क्योंकि अधिकांष डाक्टर उन बड़े-बड़े अस्पतालो में काम कर रहे है, जहां तक औसत आदमी का पहुंचना संभव नहीं होता। राजधानी दिल्ली में ही चालीस फीदी आबादी झोला छाप , नीमहकीमों या छाड़-फूंक वालों के बदौलत अपने स्वास्थ्य की गाड़ी खींचती है। कहने की जरूरत नहीं है कि ग्रामीण स्तर पर स्वास्थ सेवा की बानगी उ.प्र. का ‘‘एन एच आर एम’’ घेाटाला है। विष्व स्वास्थ्य सांख्यिकी संगठन के ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत में 13.3 लाख फीजिषियन यानी सामान्य डाक्टरों की जरूरत है जबकि उपलब्ध हैं महज 6.13 लाख।  सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रति 1667 व्यक्ति पर औसतन एक डाक्टर उपलब्ध है। अब गाजियाबद जैसे षहीरी जिले और सरकार के आंकड़ों को आमने-सामने रखें तो सांख्यिकीय-बाजीगरी उजागर हो जाती है। यहां जानना जरूरी है कि अमेरिका में आबादी और डाक्टर का अनुपात 1ः 375 है, जबकि जर्मनी में प्रति 283 व्यक्ति पर एक डाक्टर उपलब्ध है। भारत में षहरी क्षेत्रों में तो डाक्टर हैं भी, लेकिन गांव जहां 70 फीसदी आबादी रहती है, डाक्टरों का टोटा है। षहरों में भी उच्च आय वर्ग या आला ओहदों पर बैठे लोगों के लिए तो स्वास्थ्य सेवाएं सहज हैं, लेकिन आम लोगों की हालत गांव की ही तरह है।
जब तब संसद में जर्जर स्वास्थ्य सेवाओं की चर्चा होती है तो सरकार डाक्टरों का रोना झींकती है, लेकिन उसे दूर करने के प्रयास कभी ईमानदारी से नहीं हुए। हकीकत में तो कई सांसदों या उनके करीबियों के मेंडिकल कालेज हैं और वे चाहते नहीं हैं कि देष में मेडिकल की पढ़ाई सहज उपलब्ध हो। बकौल मेडिकल कांउसिंल भारत में 335 मेडिकल कालेजों में 40,525 सीटें एमबीबीएस की हैं। इनमें से बड़ी संख्या में प्राईवेट मेडिकल कालेज हैं। पीएमटी परीक्षा के बाहर बंट रहे पर्चों को यदि भरोसे लायक माने तो मेडिकल कालेज में प्रवेष के लिए नौ से बीस लाख रूपए तो डोनेषन या केपिटेषन देना ही होगा। फिर सालाना षिक्षण षुल्क दो लाख तीस हजार से चार लाख बासठ हजार रुपए तक है। बच्चे को हाॅस्टल में रखने की खर्चा एक लाख रुपए, किताबों- काॅपी व मेडिकल यंत्रों का खर्च एक लाख रूपए सालाना। यानी एक साल का कम से कम खर्च पांच लाख रूपए। पांच साल का पच्चीस और डोनेषन मिला कर चालीस लाख। अभी हम मेडिकल में पीजी की बात करते ही नहीं हैं- इसके बाद नौकरी की तो अधिकतम एक लाख रूपए महीने यानी बारह लाख रूपए साल। इनकम टैक्स काट कर हाथ में आए आठ लाख रूपए। यदि प्राईवेट प्रेक्टिस करना हो तो क्लीनिक जमाने, उसके प्रचार-प्रसार में और पांच लाख रूपए। आवक का पता नहीं - कितनी होगी...... कब होगी। अलबत्ता तो सरकारी नौकरी करने वाले एक समूह ए के अफसर जिसकी महीने कर तन्खवाह अस्सी हजार रूपए हो, उसके लिए पढ़ाई का खर्च उठाना ही संभव नहीं है। यदि उसने कर्ज ले कर यह कर भी दिया तो आय के लिए कम से कम सात-आठ साल इंतजार करना पड़ेगा, तब तक एजुकेषन लोन पर ब्याज बढ़ने लगेगा। इसके विपरीत यदि कोई इंजीनियरिंग या एमबीए की पढ़ाई में इससे एक-चैथाई खर्च करता है तो पांच साल बाद ही उसकी सुनिष्चित आय होने लगती है।
कुछ साल पहले केंद्र के स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने ग्रामीण क्षेत्रों के लिए अलग से डाक्टर तैयार करने के चार साला कोर्स की बात कही थी, लेकिन सरकारी दम पर उसका क्रियान्वयन संभव था हीं नहीं, और प्राईवेट कालेज वाले ऐसी किसी को परवान चढ़ने नहीं देना चाहते।  हाल के वर्शेंा में इंजीनियरिंग और बिजनेस की पढ़ाई के लिउ जिस तरह से कालेज खुले, उससे हमारा देष तकनीकी षिक्षा और विषेशज्ञता के क्षेत्र में दुनिया के सामने खड़ा हुआ है। हमारे यहां महंगी मेडिकल की पढ़ाई, उसके बाद समुचित कमाई ना होने के कारण ही डाक्टर लगातार विदेषों की ओर रूख कर रहे हैं। यदि मेडिकल की पढ़ाई सस्ती की जाए, अधिक मेडिकल कालेज खोलने की पहल की जाए, ग्रामीण क्षेत्र में डाक्टरों को समुचित सुविधाएं दी जाएं तो देष के मिजाज को दुरूस्त करना कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन मेडिकल की पढ़ाई में जिस तरह सरकार ने निजी क्षेत्र को विस्तार से रोक रखा है, जिस तरह अंधाधुंध फीस ली जा रही है; उससे तो यही लगता है कि सरकार ही नहीं चाहती कि हमारे यहां डाक्टरों की संख्या बढ़े। और जब तक डाक्टर नहीं बढ़ेंगे सबके लिए स्वास्थ्य की बात महज लफ्फाजी से ज्यादा नहीं होगी।

पंकज चतुर्वेदी
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...