My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

सोमवार, 26 मई 2014

It is too ealrly to say some thing about modi ji

मोदीजी को वक्त देना होगा आकलन के लिए
पंकज चतुर्वेदी
कुल पडे मतों के एक तिहाई से भी कम पाने के बावजूद बंपर  बहुमत के साथ सरकार बनाने वाले नरेन्द्र मोदी के विरोधी और समर्थक दोनेां ही अपने-अपने तरीके से गुणगान या अवगुण् बखान कर आपस में भिड़े हुए हैं। हालांकि अभी सरकार का गठन प्रारंभिक प्रक्रिया में है और अभी औपचारिक तौर पर मोदीजी कोई फैसला लेने की स्थिति में आए नहीं है, इसके बावजूद अपने-अपने तरह के पूर्वागृह सुनने, पढन्े को मिल रहे हैं। ‘अतिसर्वत्र वर्जते’- दोनों ही पक्ष फिलहाल अतीत-विलाप से ग्रस्त हैं और अभी केवल संभावनाओं, आषंकाओं पर ही आकलन, मूल्यांकन की होड़ लग गई है। इसमें कोई षक नहीं है कि यह चुनाव भारतीय राजनीति की दषा और दिषा बदलने का निर्णायक बिंदु है, इसमें नीतियां, चुनाव लड़ने की प्रक्रिया, सरकार चलाने के तरीके, जनभावनाओं का सम्मान, षासक वर्ग की मनसिकता में बदलाव जैसे कई महत्वपूर्ण बिदू उभर रहे हैं , सो जाहिर है कि सरकार या नेता को काम करने व अपनी नीति  को जाहिरा करने के लिए भी वक्त लगेगा।
कहते हैं अतीत इंसान का पीछा बामुष्किल छोड़ता है, बीता हुआ कल आने वाले कल के लिए मार्गदर्षक भी होता है- कुछ लोग अपने पुराने कामों की आलोचना- तारीफ से कुछ सीख कर संषोधन करते हैं तो वे आगे बढते हैं जो अपने अनुभवों से कुछ सीखने की जगह दंभ में डूुबे रहते है वे ‘कांग्रेस’ हो जाते हैं। जो अतीत को भुलाने का प्रयास करता है उसे अतीत में लोग भूल जाते हैं ।
जनसंदेश टाईम्स यू पी २७ मई २०१४ http://www.jansandeshtimes.in/index.php?spgmGal=Uttar_Pradesh/Lucknow/Lucknow/27-05-2014&spgmPic=9
मोदीजी के प्रषंसकों और विरोधियों दोनों के सामने उनका अतीत हे। असल में यह अनूठा संयोग है कि इंदिराजी के बाद कोई ऐस प्रधानमंत्री बना है, जिसने पहले से तय कर रखा थ कि उसे प्रधानमंत्री बनना ह, वरना जो भी इस ओहदे तक आए, वे अचानक, दुर्घनाग्रस्त या हालात के जोर से इस पद तक पहुेच। जाहिर है कि ऐसे लोगों को काफी समय इस जिम्मेदारी के अनुरूप खुद को ढालने में लगा होगा। मोदीजी के लिए उनकी पार्टी व उन्होनें खुद ने पहले से अपनी मंजिल तय कर रखी थी, फिर वे एक राजय के लंबे समय से मुख्यमंत्री रहे हैं, सो प्रषासन, नीति, जनभावना को समझना उनके लिए स्वाभाविक प्रक्रिया बन गया है। उनके दल में पद को ले कर फिलहाल कोई खंीचातान भी नहीं है, ना ही सहयोगी दलों के एजेंडे पर झुकने का दवाब।
RAAJ EXPRESS BOPAL 28-5-14 http://epaper.rajexpress.in/Details.aspx?id=216313&boxid=75043437

मोदीजी के विरोधियों का सबसे बडा सवाल 2002 के गुजरात दंगे हैं, और यह भय है कि राश्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कहीं सरकार का रिमोट ना बन जाए। यहां गौर करना होगा कि सन 1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद कोई सिख कांग्रेस का समर्थन करने की सोच भी नहीं सकता था, लेकिन उसके बाद पंजाब में उनकी कई दफे सरकार रही और और आज कांग्रेस के सिख समर्थक भाजपा से कम नहीं हैं। जहां तक धार्मिक आधार पर मतों के ध्रुवीकरण की बात रही, सभी राजनीतिक दल इस कीचड़ को अपने में मलते रहे है। केवल आषंका के आधार पर विरोध करने के बनिस्पत आगे की ओर देखना होगा। यदि वे इस मोर्चै पर असफल होते हैं तो आंकउे गवाह हैं कि मुल्क के 67 फीसदी लोगों ने उन्हें वोट नहीं दिया है और भारत का समाज कोई सोया हुआ, उनींदा समाज नहीं है, वह वक्त आने पर मुखर हो कर प्रतिक्रिया देता है। हां, अब इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार रहना होगा कि देष में गांधी-नेहरू युग अब समाप्ति पर है और इसके परिणामस्वरूप कुछ बदली हुई नीतियां षुरूआत में बेहद असहज होंगी और वे सफल हैं कि नहीं इसके लिए कम से कम एक साल का समय देना ही होगा। यहां यह भी याद रखना होगा कि मोदीजी ने अपने कार्यकाल में आपे राज्य में विó हिंदू परिशद , आरएसएस आदि संगठनों को कभी सत्ता में दखल देने की अनुमति नहीं दी। अब डर दोनो तरफ से है - कहीं बड़ा लक्ष्य पाने के लिए छोट हितों को भूला गया और अब असली चेहरा सामने आएगा ? या फिर जिस हिंदू राश्ट्र के सपने के साथ उत्साह दिखाया गया, वह सत्ता पर लंबे समय तक रहने की चाहत में दफन हो जाएगा ? बेहद जटिल है कुछ समय दिए बगैर इसका आकलन करना।
विरोधियों को दूसरा खतरा औद्योगिकीकरण, पूंजीपति घरानों को ले कर है। बीती सरकार के पंाच साल खाने, रोजगार, सूचना के अधिकर जैसे नारेां में बीता। विडबना थी कि जिस वर्ग के लिए नीतियां बनीं, या तो उन तक पहुंची नहीं या फिर उसका श्रैय नहीं पहूंचा। वहीं इन कल्याणकारी योजनाओं के लिए पैसा जुटाने के लिए जिस मध्य, युवा वर्ग को महंगाई, बेरोजगारी से जूझना पड़ा, उसके लिए ऐसी सभी योजनाएं बेमानी थीं। गंभीरता से देखें तो 1991 में मुक् वयापार और वैóीकरण के दौर की षुरूआत होने के बाद देष-दुनिया की कोई भी सरकार हो , उसकी नीतियां सबसिडी खतम करने, मूलभूत सुविधंए बढाने, बउ़े कारखाने और निवेष की ही रही है। और आज हालात ऐसे नहीं है कि उस नीति में कुछ बदलाव होगा। कुछ राजय की सरकारें इस लिए लोप्रिय है कि उनहोंने गरीब लोगों को बेहद कम दाम में अनाज, गाय, साईकिल, रेडियो सब बांट दिया है। जबकि इसका परिणाम यह हुआ कि हमोर मुल्क की ताकत हमारा मानव संसाधन अब निकम्मा हो गया और इसका खामियाजा जल्द ही हम भेागेगें, जब खेत ेमंे काम करने वाले तेुदू पत्ता, महुआ तोड़ने वाले नहीं मिलेेंगे। इस वाकियो को साझाा करने का इरादा यह है कि कई बार सामने से लोककल्याणकारी दिखने वाले सरकारी कदम दूरगामी तौर पर विध्वंसक होते हैं। अब देखना यह है कि मोदीजी की नीतियां किस तरह से लोककल्याणकारी रहती है और इसकी दिषा तय करने में दो साल लगना लाजिमी है और इस पर इतंजार करना ही विकल्प है, क्योंकि लोकसभा में विपक्ष बेहद कमजोर है।
इस बात का दवाब बना रहना जरूरी है कि जनता सब कुछ देख रही है और उसका दवाब है। इस बात की इंतजार भी जरूरी है कि इतना बड़ा बहुमत लाने वाला कोई ‘सर्वषक्तिमान’ नहीं है कि उसके द्वारा चुनाव सभा में किए गए सभी वायदे चुटकी बजाते पूरे हो जाएंगे। संयम की जरूरत सभी पक्षों को है - अतिमहत्वाकांक्षियों को, घोर  विरोधियों को  और स्वयं सरकार चलाने वाले मोदीजी को भी।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Keep Katchatheevu away from electoral politics.

  कच्चातिवु को परे   रखो चुनावी सियासत से पंकज चतुर्वेदी सन 1974 की सरकार का एक फैसला, जिसके बाद लगभग आधे समय गैरकान्ग्रेसी सरकार सत्ता ...