My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 18 मई 2014

Why not nationalisation of schooling ?

स्कूली शिक्षा के राष्ट्रीयकरण की जरूरत

मुद्दा पंकज चतुव्रेदी
दिल्ली-एनसीआर में नर्सरी स्कूलों में एडमिशन को लेकर बवाल हो रहा है। हालात इतने बदतर हैं कि तीन साल के बच्चे को स्कूल में दाखिल करवाने के लिए कई महीनों से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मुकदमें चल रहे हैं और न तो पालक और न ही स्कूल इससे संतुट हैं। नर्सरी का दाखिला आईआईटी की फीस से भी महंगा हो गया है। कुल मिलाकर देखें तो देश में स्कूली शिक्षा पर सरकार और समाज बेशुमार खर्च कर रहे हैं, फिर भी कोई संतुष्ट नहीं है। देश में आज भी प्राइमरी स्तर के 75 फीसद स्कूल सरकारी हैं और वहां पढ़ाई की गुणवत्ता इतनी खराब है कि 45 फीसद से ज्यादा बच्चे कक्षा पांच के आगे पढ़ने के लायक नहीं होते हैं। राजधानी से सटे गाजियाबाद के कई नामचीन स्कूलों में बढ़ी फीस का झंझट अब थाना-पुलिस तक पहुंच गया है। स्कूल वाले बच्चों को प्रताड़ित कर रहे हैं, तो अभिभावक पुलिस के पास गुहार लगा रहे हैं। 
RASHTRIY SAHARA 18-5- 2014 http://www.rashtriyasahara.com/epapermain.aspx?queryed=9

माहौल ऐसा हो गया है कि बच्चों के मन में स्कूल या शिक्षक के प्रति कोई श्रद्धा नहीं रह गई है। वहीं स्कूल वालों की बच्चों के प्रति न तो संवेदना रह गई है और न ही सहानुभूति। शिक्षा का व्यापारीकरण कितना खतरनाक होगा, इसका अभी किसी को अंदाजा नहीं है। लेकिन मौजूदा पीढ़ी जब संवेदनहीन हो कर अपने ज्ञान को महज पैसा बनाने की मशीन बना कर इस्तेमाल करना शुरू करेगी, तब समाज और सरकार को इस भूल का एहसास होगा। साफ जाहिर होता है कि शिक्षा व्यवस्था अराजकता और अंधेरगर्दी के ऐसे गलियारे में खड़ी है जहां से एक अच्छा नागरिक बनने की उम्मीद करना बेमानी ही होगा। ऐसे में एक ही विकल्प शेष है- सभी को एक समान स्कूली शिक्षा। यह सर्वविदित है कि प्राथमिक शिक्षा किसी बच्चे के भविष्य की बुनियाद है। हमारे देश में प्राथमिक स्तर पर ही शिक्षा लोगों का भविष्य तय कर रही है। एक तरफ कंप्यूटर, एसी और खिलौनों से सज्जित स्कूल हैं, तो दूसरी ओर ब्लैकबोर्ड, शौचालय जैसी मूलभूत जरूरत को तरसते बच्चे। स्थिति यह है कि दो-ढाई साल के बच्चों का प्री- स्कूल प्रवेश चुनाव लड़ने के बराबर कठिन माना जाता हैं। यदि जुगाड़ लगा कर कोई मध्यम वर्ग का बच्चा इन बड़े स्कूलों में पहुंच भी जाए तो वहां के ढकोसले-चोंचले झेलना उसके बूते के बाहर होता है। बच्चे के जन्मदिन पर स्कूल के सभी बच्चों में कुछ वितरित करना या ‘ट्रीट’ देना, सालाना जलसों के लिए स्पेशल ड्रेस बनवाना, साल भर में एक-दो पिकनिक या टूर- ये ऐसे व्यय हैं जिन पर हजारों का खर्च यूं ही हो जाता है। फिर स्कूल की किताबें, वर्दी, जूते आदि भी स्कूल द्वारा तयशुदा दुकानों से खरीदने पर स्कूल संचालकों के वारे-न्यारे होते रहते हैं। कोई 16 साल पहले केंद्र सरकार के कर्मचारियों के पांचवें वेतन आयोग के समय दिल्ली सरकार ने फीस बढ़ोतरी के मुद्दे पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय से अवकाश प्राप्त सचिव जेवी राघवन की अध्यक्षता में नौ सदस्यों की एक कमेटी गठित की थी। इस समिति ने दिल्ली स्कूल एक्ट 1973 में संशोधन की सिफारिश की थी। समिति का सुझाव था कि पब्लिक स्कूलों को बगैर लाभ-हानि के संचालित किया जाना चाहिए। कमेटी ने पाया था कि कई स्कूल प्रबंधन छात्रों से उगाही फीस का इस्तेमाल अपने दूसरे व्यवसायों में कर रहे हैं। राघवन कमेटी ने ऐसे स्कूलों के प्रबंधन के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने की अनुशंसा भी की थी। कमेटी ने सुझाव दिया था कि छात्रों से वसूले धन का इस्तेमाल केवल छात्रों और शिक्षकों की बेहतरी पर ही किया जाए। उसके बाद पांच साल पहले छठें वेतन आयोग के बाद भी सरकार ने बंसल कमेटी गठित की, जिसकी सिफारियों राघवन कमेटी की ही तरह थीं। ये रिपोर्ट बानगी हैं कि स्कूली-शिक्षा अब एक नियोजित धंधा बन चुकी है। बड़े पूंजीपति, औद्योगिक घराने, माफिया, राजनेता अपने धन को काला-गोरा करने के लिए स्कूल खोल रहे हैं। वहां किताबों, वर्दी की खरीद, मौज-मस्ती की पिकनिक या हॉबी क्लास, सब मुनाफे का व्यापार बन चुका है। इसके बावजूद इन अनियमितताओं की अनदेखी केवल इसलिए है क्योंकि इस खेल में नेताओं की सीधी साझेदारी है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि शिक्षा का सरकारी सिस्टम जैसे जाम हो गया है। निर्धारित पाठ्यक्रम की पुस्तकें मांग के अनुसार उपलब्ध कराने में एनसीईआरटी सरीखी सरकारी संस्थाएं बुरी तरह फेल रही हैं। जबकि प्राइवेट या पब्लिक स्कूल अपनी मनमानी किताबें छपवा कर कोर्स में लगा रहे हैं। यह पूरा धंधा इतना मुनाफे वाला बन गया है कि अब छोटे-छोटे गांवों में भी पब्लिक या कान्वेंट स्कूल कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे हैं। कच्ची झोपड़ियों, गंदगी के बीच, बगैर माकूल बैठक व्यवस्था के कुछ बेरोजगार एक बोर्ड लटका कर प्राइमरी स्कूल खोल लेते हैं। इन ग्रामीण स्कूलों के छात्र पहले तो वे लोग होते हैं जिनके पालक पैसे वाले होते हैं और अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजना हेठी समझते हैं। फिर कुछ ऐसे अभिभावक, जो खुद तो अनपढ़ होते हैं लेकिन अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने की महत्वाकांक्षा पाले होते हैं, अपना पेट काट कर ऐसे पब्लिक स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने लगते हैं। कुल मिलाकर दोष जर्जर सरकारी शिक्षा व्यवस्था के सिर पर जाता है जो आम आदमी का विास पूरी तरह खो चुकी है। विश्व बैंक की एक रपट कहती है कि भारत में 6- 10 साल के कोई 3.2 करोड़ बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। रपट में यह भी कहा गया है कि भारत में शिक्षा को लेकर बच्चों-बच्चों में खासा भेदभाव है। लड़कों-लड़कियों, गरीब-अमीर और जातिगत आधार पर बच्चों के लिए पढ़ाई के मायने अलग-अलग हैं। रपट के अनुसार 10 वर्ष तक के सभी बच्चों को स्कूल भेजने के लिए 13 लाख स्कूली कमरे बनवाने होंगे और 740 हजार नए शिक्षकों की जरूरत होगी। सरकार के पास खूब बजट है और उसे निगलने वाले कागजी शेर भी। लेकिन मूल समस्या स्कूली शिक्षा में असमानता की है। प्राथमिक स्तर की शिक्षण संस्थाओं की संख्या बढ़ना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन ‘देश के भविष्य’
की नैतिक शिक्षा का पहला आदर्श शिक्षक जब तीन हजार पर दस्तखत कर बमुश्किल पांच-छह सौ रपए का भुगतान पा रहा हो तो उससे किस स्तर के ज्ञान की उम्मीद की जा सकती है। जब पहली कक्षा के ऐसे बच्चे को, जिसे अक्षर ज्ञान भी बमुश्किल है, उसे कंप्यूटर की ट्रेनिंग दी जाने लगे, महज इसलिए कि पालकों से इस नाम पर अधिक फीस घसीटी जा सकती है, तो किस तरह तकनीकी शिक्षा प्रसार की बात सोची जा सकती है। स्तरीय प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य पाने का केवल एकमात्र तरीका है- स्कूली शिक्षा का राष्ट्रीयकरण। अपने दो या तीन वर्ग किमी के दायरे में आने वाले स्कूल में प्रवेश पाना सभी बच्चों का हक हो, सभी स्कूलों की सुविधाएं, पुस्तकें, फीस एकसमान हो, मिडडे मील सभी को एक जैसा मिले अैार कक्षा आठ तक के सभी स्कूलों में शिक्षा का माध्यम मातृ-भाषा हो। यह सब करने में खर्चा भी अधिक नहीं है, बस जरूरत होगी तो इच्छाशक्ति की।
  

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