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पंकज चतुर्वेदी
अभी इराक पर युद्ध के बादल मंडरा रहे हेै और अंतरराष्ट्ीय बाजार में तेल के दाम बढ़ने व उसका असर भारत पर होने पर खूब तफ्सरा हो रहे हैं। भले ही आज सरकार ने डीजल-पेट्रोल के दाम बढ़ाने से इंकार कर दिया हो, लेकिन बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी ? बीते आठ साल में 40 बार एक सरीखे विलाप टीवी और अखबारों में दिखे - सरकार कहती रही कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम बढे या फिर डालर के मुकाबले रूपया कमजोर हो गया, सा दाम बढ़ाने पड़े, विपक्ष सरकार की नीतियों को कोसता है, परंपरावादी पब्लिक ट्रांसपोर्ट को प्रोत्साहित करने जैसे सुझाव देते हैं। ऐसा नहीं कि यह सब रूक जाएगा, हालात बताते हैं कि आने वाले दो-तीन महीने में पेट्रोल व डीजल दोनो के दाम बढने पर कोई रोक नहीं लगा सकेगा। नतीजा हर बार शून्य रहता है- प्रमुख विपक्षी दल इसे अपने सत्ता के करीब पहुंचने का एक कदम मानते हैं और सत्ताधारी चुनाव से ऐन पहले कुछ लोकलुभावनी घोषणाओं पर विचार करते हैं पेट्रो पदार्थों के मामले में सरकार खुद को लाचार दिखाती है जबकि हकीकत तो यह है कि हम लोग ईंधन के मामले में लापरवाह और बगैर किसी दूरगाामी योजना के चल रहे हैं। भारत ही नहीं सारी दुनिया पर एक बार फिर मंदी का असर दिख रहा है। गरीब और मध्यम वर्ग के लिए घर खर्च चलाना मुश्किल पड़ रहा है। ऐसे में भारत यदि समझदारी से अपने विदेशी मुद्रा के भंडार का उपयोग करता है तो इस वित्तीय सुनामी सें निबटा जा सकता है, वरना हम संकट में आ सकते है। कैसी विडंबना है कि मंदी के बाजार में भी आटोमोबाईल का बाजार चमका हुआ है। जाहिर है कि इसका सीधा असर ईंधन की मांग पर पड़ रहा है। हमारी विदेशी मुद्रा का बड़ा हिस्सा कच्चे तेल को खरीदने में खर्च हो रहा है। यहां यह भी जानना जरूरी है कि बीते साल भारत सरकार ने पेट्रोल-डीजल व अन्य ईंधन पर 1,03,000करोड़ की सबसिडी दी है।
यह बात सभी स्वीकार कर रहे हैं कि हमें ईंधन की खपत घटाने के तरीके अपनाना चाहिए। केंद्र सरकार समय-समय पर खर्चों में कटौती की अपील भी करती है, लेकिन यह तरीका किसी भी तरह तेल की बढ़ती मांग को थामने में कारगर नहीं है। उ.प्र और बिहार जैसे राज्यों में कुछ मंत्रियों की कार हर महीने ढाई-तीन लाख का तेल पी जाती है। हालांकि कुछ छोटे-छोटे उपाय है जिनका पालन ईमानदारी से करने पर भारत जैसे देश में हर रोज पेट्रोल-डीजल की दो से पांच प्रतिशत बचत की जा सकती है। लेकिन समस्या है कि शुरूआत कौन करे ? निजी कारों के बनिस्पत सार्वजनिक वाहनों को प्रोत्साहन देने की बात एक नारे के रूप में तो कर रही है, लेकिन उसकी शुरूआत अपने घर से ही करने से हिचकिचाती है। दिल्ली में ही आला अफसरों के सरकारी मकान गिनी-चुनी कालेानियों में ही हैं। इसके बावजूद दो हजार से अधिक अफसर अपनी अलग-अलग गाडि़यों में दफ्तर जाते हैं। कभी उनके लिए एक एयरकंडीशंड बस चलाने की बात क्यों नहीं की जाती है। इसी तरह संसद सदस्यों को भी सार्वजनिक वाहन में आ कर लोगों के सामने अनुकरणीय मिसाल पेश करना चाहिए। नए बन रहे सरकारी कार्यालयीन भवनों के करीब ही स्टाफ के रहने की व्यवस्था को अनिवार्य करने से वाहनों का संचालन रोका जा सकता है।
वैसे सरकार पेट्रो-पदार्थों पर जिस तरह का घाटा दिखाती है, वह असल में होता नहीं है। आईल इंडिया या ओ एन जी सी की बीते एक दषक की बैलेंस-शीट उठा कर देख लें, हर बार कई हजार करोड़ का मुनाफा दर्ज है। यदि इन कंपनियों का गैर-योजना मद देखें तो आंखें चकाचैंध हो जाएंगी, । यहां आवभगत, सजावट जैेसे मद में किए गए खर्चें राष्ट्रपति भवन से भी ज्यादा होते हैं। गौरतलब है कि ये कंपनियां अपने खर्चें घटाने के लिए कुछ नहीं करती हैं। यदि केवल विज्ञापन मद में ही व्यय आधा कर दिया जाए तो जनता को बगैर दाम बढ़ाए आसानी से ईंधन मुहैया करवाया जा सकता है। फिर आज जो हम कच्चा तेल खरीद रहे हैं वह आज के दाम पर नहीं है, असल में इस का भुगतान कई साल पहले किया जा चुका होता है और इसे मौजूदा घाटा दिखाना आंखों का धोखा है। यही नहीं चार पेट्रो कंपनियों क ेलेखा रिकार्ड अपने मुनाफे व व्यय को अलग-अलग दिखाते हैं। जब दाम एक हैं, खरीदी की दर समान है, बिक्री का तरीका एक सरीखा है , ऐसे में प्रति बैरल एक कंपनी सात डालर कमाती है तो दूसरी दो डालर का घाटा सहती दिखती है - जाहिर है कि इन कंपनियों की विपणन नीति में कहीं आंकडों की बाजगरी चल रही है और इसका खामियाजा आम लोग भोगते हैं। एक बात और जान लें, जिस कच्चे तेल को मंगवा कर हम उसका परिशोधन करते हैं , उससे केरोसीन, डीजल, पेट्रोल, और गैसे के अलावा नेप्था, ग्लीसरीन, प्लास्टिक दाना, कोलतार जैसे उत्पाद निकलते हैं जो अलग-अलग दाम पर बाजार में बिकते हैं, जबकि सरकार बढ़े कच्च्ेा तेल के दाम के साथ कुछ उत्पादों का ही ढिंढोरा पीटती है। हमारे देश में ईंधन को रिफायनरी से ढो कर डिपो और वहां से पंप तक ले जाने के लिए कई लाख लीटर डीजल हर महीने खर्च होता है। यदि बन रहे हाई वे के साथ-साथ ईंधन की सप्लाई के लिए पाईप लाईन डाल दी जाएं तो इस किस्म की फिजूलखर्ची से बचा जा सकता है।
बिजली उत्पादन के लिए डीजल के जनरेटरों का इस्तेमाल देष के तेल घाटे को कोई एक प्रतिशत की चोट देता है। बिजली उत्पादन के वैकल्पिक स्त्रोतों- सौर, पवन या फिर खपत को घटाना जैसे तरीकों पर विचार किया जाना चाहिए। एक अनुमान है कि अकेले गाजियाबाद और नोएडा जिले में हर साल छोटे-बड़े जनरेटरों पर जितना खर्च होता है उससे एक अच्छा-खासा बिजली घर लगाया जा सकता है।
पेट्रोल बचाने के एक ओर महत्वपूर्ण तरीके की चाबी भी सरकार के हाथों में ही है - सुचारू परिवहन व्यवस्था। इसके लिए सड़कों का अच्छा होना और कम से कम रेड लाईटें होना जरूरी है। यदि कुछ राश्ट्रीय राजमार्गों को छोड़ दें तो पूरे देष में घटिया ंसड़कें वाहनों की सबसे बड़ी दुष्मन हैं। दिल्ली जैसे महानगर में एक बारिश में सड़कों का गड्ढे में बदल जाना, फ्लाईओवर, बीआरटी या मेट्रो के निर्माण, सीवर, पानी की लाईनें डालने जैसे कार्यों के लिए सड़क को खोद देने से हर रोज हजारों लीटर ईंधन बेकार होता है। क्यों ना कम ट्राफिक के समय यानी रात में ऐसे स्थानों पर निर्माण कार्य करवाया जाए ? एक तो काम अबाध होगा, साथ ही यातायात भी प्रभावित नहीं होगा। परिणामतः ईंधन की बचत हेागी ही। इसके अलावा एक ही सड़क पर यांत्रिक व मानव या पषुचालित वाहनों के चलने से भी इंधन का खर्चा बढ़ता है। कुछ सड़कों को केवल साईकल या रिक्षा के लिए आरक्षित करने तथा मुख्य सड़कों पर ऐसे वाहनों की पाबंदी को कड़ाई से लागू करने से वाहन से बरबाद हो रहे ईंधन को बहुत-कुछ बचाया जा सकता है। बगैर वैकल्पिक रास्ता बनाए निर्माण कार्य ना करने, सड़क समय से पहले खराब होने पर संबंधित ठेकेदार व अफसर की जिम्मेदारी तय करने, बिटुमिन के स्थान पर सड़क बनाने में सीमेंट का इस्तेमाल बढ़ाने जैसे प्रयोग से वाहनों को सहज गति तो मिलेगी ही; ईंधन का संरक्षण भी होगा।
वाहनों की बढ़ती संख्या के लिए सरकार की वाहन और बैंक नीति भी काफी कुछ जिम्मेदार है। आटोमोबाईल उद्योग को भारत में अत्यधिक संभावनाएं दिखती है, सो उसने बैंकों को अपने साथ मिला लिया है। बगैर वैध ड्राईविंग लाईसेंस के किसी को भी वाहन का लोन मिल रहा है। नतीजा यह है कि जो लोग सरकार पर दवाब बढ़ा कर बसें या ऐसे ही सार्वजनिक परिवहन की मांग रखते थे, अब वे अपने वाहनों में जा रहे हैं। हो सकता है कि नए वाहनों की बिक्री पर बुरा असर पड़े, हो सकता है कि इससे सरकार की वित्तीय व्यवस्था भी गड़बड़ाए; लेकिन यदि वाहनों के लिए कर्ज बांटने में सख्ती की जाए तो प्रदूषण और ईंधन, दोनों की बचत हो सकती है। घटिया स्पेयर पार्ट , नकली इंजन आईल और मिलावर्टी इंधन के कारण भी ईंधन की खपत बढ़ती है। इन पर रोक भी सरकार को ही लगानी होगी। व्यावसायिक और निजी इस्तेमाल के ईंधनों को अलग करना भी समय की मांग है। इससे सबसिडी के फार्मूले को न्यायोचित बनाने में मदद मिलेगी। उपाय तो और भी सुझाए जा सकते हैं। निजी तौर पर प्रयास भी किए जा सकते हैं, लेकिन जब तक सरकार में बैठै लोगों की इच्छा-षक्ति नहीं होगी, ये सभी बातें किसी मठाधीष के प्रवचन से अधिक नहीं होंगी। हां षुरूआत तो तेल कंपनियो को खुद भी करनी होगी, अपने षाही खर्चों में कटौती कर के।
आज भी अंतरराष्ट्रीय उठापटक से निबटना बहुत सरल है- महज कुछ उपाय करने होंगे- पेट्रोलियम खनिज के अन्य उत्पादों जैसे प्लास्टिक, वैक्स आदि के रेट बढ़ाए जा सकते हैं। पेट्रोलियम ईंधन में ग्रीन-डीजल यानी जटरोफा तेल और एथेनाल की मात्रा बढ़ाना, तेल से चलने वाले जेनरेटर की जगह सोलर जेनरेटरों का प्रचलन बढ़ाना, आॅटो कंपनियों के निर्माण, विपणन और उससे जुड़े वित्तीय प्रबंधन पर लगाम कसना; आदि सामान्य उपाय हैं। इसके अलावा सरकार को अपनी कर-नीति पर तो विचार करना ही होगा, जिसके कारण पेट्रोलियम पदार्थ लगभग दो गुणा महंगे होते हैं।
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