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रविवार, 8 जून 2014

it is not scaricity of water, lack of managment

RAJ EXPRESS BHOPAL, 9-6-14http://epaper.rajexpress.in/Details.aspx?id=219039&boxid=17262953
कमी पानी की नहीं प्रबंधन की है

पंकज चतुर्वेदी
मध्यप्रदेष में बीते एक महीने से गरमी अपने षबाब पर है और राज्य के 160 नगरीय इलाकों मे हर ारेज पानी की सप्लाई बंद कर दी गई है। इंदौर छिंदवाड़ा, नीमच जैसे दो दर्जन षहरों में तो अभी से पांच दिन में एक बार नल से पानी टपकता है। बुंदेलखंड के सभी जिले जल-संकट ग्रस्त घोशित कर दिए गए हैं। दुख की बात है इनमें से अधिकांष इलाके ‘‘पग-पग नीर’’ के लिए मषहूर मालवा अंचल यानि इंदौर और उज्जैन संभाग के हैं। षिप्रा नदी मंगलनाथ के करीब नदारत हो चुकी है।  सरकार का कहना है कि सार्वजनिक जल वितरण के स्त्रोत भूजल है और राज्य में भूजल स्तर इतना नीचे गिर गया है कि अब बारिष होने पर ही कुछ हो सकता है। यहां गौर करें कि आज पानी बूंद-बूंद को तरस रहे इलाके बीते बारिष के मौसम में अतिवृश्टि से हलाकांत थे। हालांकि मध्यप्रदेष की जल-कुंडली यदि कागजों पर बांचे तो साफ लगेगा कि पानी का संकट मानवजन्य ज्यादा है।
सरकारी आंकडे गवाह हैं कि  यहां रोपे गए पांच लाख 18 हजार 380 हैंड पंपों में से 25 हजार 862 बंद हो चुके है।। इनमें से ग्यारह हजार से अधिक के ठप होने का करण भूजल स्तर  पाताल में जाना है। राज्य में पानी  सप्लाई करने की 11 हजार 927 योजनाओं में से 1443 बंद पड़ी हैं। 498 के तो स्त्रोत ही सूख गए हैं। कुल मिला कर देखें तो सरकार अपनी मजबूरी का ठीकरा भूजल पर फोड़ रही है, जबकि असलियत में तो यह राज्य के ताल-तलैया, नदी-सरिताएं, कुंए-बावड़ी को बिसराने का प्रतिफल है। इंसान को औसतन 55 लीटर पानी हर रोज चाहिए, लेकिन म.प्र. में बामुष्किल 40 लीटर औसत मिल पा रहा है। सूखे कंठ अपने मजरे-टोले में रहना लोगों के लिए संभव नहीं है, सो टीकमगढ़ जैसे जिलोें की 35 फीसदी आबादी पलायन कर चुकी हैं।
षायद अब यह याद भी नहीं होगा कि अस्सी के दषक को विष्व स्वास्थ्य संगठन ने ‘‘ हर गांव में पेयजल’’ के लक्ष्य के साथ प्रचारित किया था। लेकिन आज पग-पग नीर वाले मालवा से ले कर तालाबों से पटे बंुदेलखंड तक और नर्मदा के उद्गम से ले कर कालीसिंध के चंबल तक पूरे प्रदेष में एक-एक बूंद पानी इंसान की जिंदगी से बढ़ कर हो गया है। हजारों गांव ऐसे हैं जहां के बाषिंदे हर रोज से बारह से चैदह घंटे केवल पानी जुटाने में खर्च करते हैं। राज्य सरकार संकट के लाइलाज होने का इंतजार करती रही और अब टैंकर से पानी पहुंचाने के नाम पर तीन सौ करोड के वारे-न्यारे हो गए हैं। इतनी बड़ी धन राषि के बाद भी यह प्यास का कोई स्थाई निदान नहीं हैं। यहां विपदा से निबटने की सरकारी कोषिषें और दायित्व विभिन्न महकमों के कुप्रबंधेां, इंजीनियरों-नेता-ठेकेदारें के निजी स्वार्थों के अंधकूप में डूब कर रह गए हैं। यदि प्रदेष की जल कुडली देखें तो पाएंगे कि यहां मौजूद समृद्ध प्राकृतिक जल संसाधन हर मजरे-टोले का गला तर करने के लिए पर्याप्त हैं।
सन 1986 में तैयार की गई राश्ट्रीय जल नीति में क्रमषः पेय, कृशि, बिजली, जल परिवहन, उद्योग; इस क्रम में पानी की प्राथमिकता तय की गई थी। इसमें दावा किया गया था कि सन 1991 तक देष की सारी आबादी को षुद्ध पेयजल मिल जाएगा। लेकिन देष के दिल पर बसे मध्यप्रदेष में यह जलनीति रद्दी के टुकड़े से अधिक नहीं रही। जैसे-जैसे जल-संकट का मरज बढ़ता गया, पुराने जल-स्त्रोतों को मिट्टी में मिलाना तेज होता गया। कभी ‘सरोवर हमारी धरोहर’ तो कभी ‘जलाभिशेक’ के लुभावने नारों के साथ सरकारी धन पर पानी और जनता की आंखों में ध्ूाल झोंकने में कोई भी सरकार पीछे नहीं रही। कहीं से पानी की चिल्ला-चोट अधिक होती तो वहां गाडि़यां भेज कर नलकूप खुदवा दिए जाते। जनता को यह समझने में बहुत समय लग गया कि धरती के गर्भ में भी पानी का टोटा है और ये नलकूप गागर में पानी के लिए नहीं , जेब में सिक्कों के लिए रोपे जा रहे हैं। प्रदेष में हर पांच साल में दो बार अल्प वर्शा होना कोई नई बात नहीं है। पहले लोग पानी की एक-एक बूंद सहेज कर रखते थे, आज बारिष की बूदों को नारों के अलावा कहीं समेटा नहीं जाता है। राज्य का लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग इस बात से सहमत है कि प्रदेष का साठ फीसदी हिस्सा भूगर्भ जल के दोहन के लिए अप्रयुक्त ह। इन इलाकों की भूगर्भ संरचना इतनी जटिल है कि वहां जमीन से निकाला जा रहा पानी वास्तव में ‘सीपेज’ है, न कि भूजल। राज्य के मालवा जैसे सदानीरा क्षेत्र में पानी का स्तर 400-600 फुट नीचे खिसक गया है। उज्जैन के पास षिप्रा नदी नदारत हो चुकी है। ैनर्मदा का प्रवाह निमाड़-मालवा में बेहद क्षीण हो गया है। बुदेलखंड व विंध्य तो पानी की कमी के लिए जगजाहिर है।
मध्यप्रदेष के विज्ञान और प्रौद्योगिकी परिशद द्वारा कुछ साल पहले सैटेलाईट के माध्यम से तैयार किए गए नक्षें बताते हैं कि प्रदेष में 56.25 एकड़ से अधिक माप के 407 जलाषय मौजूद है। 1476 ऐसे जलाषय हैं जिनका माप 56 एकड़ से कुछ कम है।  खाली पड़े जलषयों का क्षेत्र फल जहां एक लाख दस हजार हैक्टर से अधिक है तो पानी भरने के बाद इनका जल विस्तार दो लाख सैंतीस हजार सात सौ हैक्टर को पार कर जाता है। ये आंकड़े प्रदेष की सषक्त जल-क्षमता की बानगी है। पानी की कमी के कारण सबसे विशम हालात झेल रहे टीकमगढ़ जिले में साठ के दषक तक 1200 से अधिक चंदेलकालीन तालाब हुआ करते थे। कभी प्रदेष में सबसे अधिक गेंहूं पैदा करने वाले जिले में साल दर साल तालाब से सिंचाई का रकवा घटना षुरू हुआ तो नलकूप के नषे में मस्त समाज ने इस पर गौर नहीं किया। तालाब फोड़ कर पहले खेत और फिर कालोनियां बन गई। जब होष आया तो पानी के कारण्र पलायन के हालात बन गए थे। दतिया, पन्ना, छतरपुर में भी ऐसी ही कहानियां दुहराई गईं। भोपाल  और सागर जैसे षहरों की झीलें भी आधुनिकता की चपेट में पानी का संकट साथ लाईं।
सन 1944 में अकाल के समय तत्कालीन अंग्रेज सरकार द्वारा गठित फेमिन इन्क्वारी कमीषन ने अपनी रिपोर्ट में साफ लिखा था कि आने वाले दिनों में संभावित पेयजल संकट का सामना करने के लिए अधिक से अधिक तालाबों की ख्ुदाई करना होगा।  इंटरनेषल क्राप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फार दी सेमीएरिडट्रापिक्स के विषेशज्ञों का ‘‘भारतीय तालाब प्राधिकरण’’ गठित करने का सुझाव हो या फिर पूर्व कृशि आयुक्त डी आर भूंबला के निश्कर्श; मध्यप्रदेष की नौकरषाही ने सभी को बिसरा दिया। अमदाबाद फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी के डा. पी.आर. पिषरोटी ने कई सालों पहले सलाह दी थी कि भारत के उन 300  जिलों, जहां बारिष सालाना 50 सेमी से कम है,10 हेक्टर मीटर क्षेत्रफल के 30 हजार तालाब खोदने चाहिए, तो हर तरीके के जल संकट से निजात मिल जाएगी। सौभाग्य से मध्यप्रदेष में कोई तीन लाख हेक्टर क्षेत्रफल के जलग्रहण क्षेत्र या तालाब मौजूद है।
प्रदेष में लगभग आठ हजार तालाब ऐसे हैं जिनके रखरखाव पर आजादी के बाद ईमानदारी से एक पैसा भी नहीं खर्चा गया। बारिष के कारण समाई मिट्टी, तेज हवा की धूल, करीबी पेड़-पौघों से गिरी पत्तियां और बाषिंदों द्वारा फैंके गए कचरे ने तालाबों में कई-कई फुट गाद पाट दी है। इस बेषकीमती खाद को निकाल कर जहां तालाब की जलग्रहण क्षमता बढत्राई जा सकती है, वहीं खेतों को बेहतरीन खाद भी मिलेगी। यह प्रयोग कर्नाटक में बेहद सफल भी रहा है। एक बात और तालाब में पानी होगा तो राज्य के तीन लाख से अधिक छोटे कुंओं में भी तरावट रहेगी।
मध्यप्रदेष में नर्मदा क्षिप्रा, बेतवा, सोन, केन, जैसी नदियों का उद्गम है। अनुमान है कि प्रदेष के नदियों के संजाल में 1430 लाख एकड़ पानी प्रवाहित होता है। यदि इसका नियोजित इस्तेमाल हो तो 2.30 लाख एकड़ खेत आसानी से सींचे जा सकते हैं। पर संकट यह है कि राज्य की सभी नदियां औद्योगिक व निस्तार प्रदूशण के कारण सीवर में बदल चुकी है। जंगलों की अंधाधंुध कटाई के कारण जहां बारिष कम हुई तो मिट्टी के नदियों में सीधे गिरने से उनका उथला होना भी षुरू हो गया। राज्य के चप्पे-चप्पे पर कुओं और बावडि़यों का जाल है, लेकिन ये सभी आधुनिकता की आंधी में उजड़ गए। पारंपरिक जल संसाधनों के प्रति बेरूखी का ही परिणाम है कि आज राज्य में पानी के लिए खून बह रहा है।  वैसे तो प्रदेष में ‘‘सरेावर हमारी धरोहर’’ और ‘‘जलाभिशेक’’ जैसे लुभावनी योजनाओं के खूब विज्ञापन छपे हैं, कागजों पर करोड़ेां का खर्च भी दर्ज है, लेकिन बढ़ती गरमी ने इनकी पोल खोल दी है। बस पुराने तालाबों, बावडि़यों को सहेजें, नदियों को गंदा होने से बचाएं, हरियाली की दीर्घकालीन योजना बनाएं; किसी बड़े खर्च की जरूरत नहीं है- प्रदेष को फिर से सदानीरा बनाया जा सकता है। जरूरत है तो बस मौजूद संसाधनों के मजबूत इच्छा षक्ति के साथ व्यावहारिक प्रबंधन और पुरानी सिफारिषों के ईमानदार क्रियान्वयन की।

पंकज चतुर्वेदी
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