आजादी को 67 साल हो रहे हैं, हर साल की तरह इस बार भी वक्त है आकलन करने
का कि हमने क्या खोया क्या पाया, सबसे बडी बात हमने अपने लोकत़त्र को
इतना परिपक्व किया कि इतने बडे देश का सत्ता हस्तातंरण इतनी शांति,
सहजता व स्वाभाविक तरीके से लोकतंत्रात्मक तरीके से हो जाता है, ऐसा ही
आकलन करता मेरा लेख , मेरे साप्ताहिक कालम में द सी एक्सप्रेस, आगरा,http://theseaexpress.com/Details.aspx?id=66060&boxid=19651141 इसे मेरे ब्लाग pankajbooks.blogspot.in पर भी पढ सकते हैं
बीते 67 सालों को आजादी की पगडंडी पर पीछे मुड़ कर देखते हुए
पंकज चतुर्वेदी
मुल्क की आजादी के 67 साल पूरे होने पर हमारी सरकार, उसकी कई संस्थाएं, लोग आकलन कर रहे हैं कि हमनें क्या खोया और क्या पाया। उद्योग-ध्ंाधे, कार-मोटर साईकिलों से पटे चैड़े-चैड़े रास्ते, स्कूल, कालेज, बिजली, लोगों की बढ़ी क्रय-क्षमता और तेजी से उपभोग वस्तुओं की ओर बढ़ता निम्न और मध्यम वर्ग। आंकड़ों की कसौटी पर सब कुछ बेहद उजला और चकाचैंध वाला दिखता है। लेकिन क्या वे बुनियादी सवाल, जो आजादी और संविधान की मूल भावना में निहित थे, अपना जवाब या रास्ता पा सके हैं ? लोकतंत्र अभी भी जनता के द्वारा और जनता के लिए कितना रह गया है ? सांख्यिीकी के मनोरम चित्रों में ‘आम आदमी’ की मौजूदगी कितनी है ? ये मन है कि मानने को तैयार नहीं हैं कि हम एक सफल गणतंत्र हैं। हां, इस बात को हमें स्वीकार करना होगा कि हमारे लोकतंत्र की जड़े इतनी ताकतवर जरूर हैंकि इतने बडे देष में सत्ता हस्तांतरण एक वोट के बदौलत बेहद षांति से, सहज तरीके से और स्वतंत्र तरीके से होता है।
हम षुरूआत करते हैं, आम आदमी के स्वास्थ्य से। एक स्वस्थ्य देष के लिए जरूरी है कि उसके हर बाषिंदे को साफ पीने का पानी और हवा मिले। ये आंकड़े कभी जाहिर नहीं किए जाते हैं कि गणतंत्र के बाद इन दोनों पर आम आदमी का नैसर्गिक हक साल-दर-साल कम होता जा रहा है। षहरों में पीने का पानी रू. 15.00 प्रति लीटर खरीदा जा रहा है तो कस्बों तक बाल्टीभर पानी की कीमत दस रूपए हो चली है। बढ़ते कारखानों, वाहनों और घटते पेड़ों ने देष के 65 फीसदी से अधिक हिस्से को पर्यावरणीय संकट के दायरे में खड़ा कर दिया है। जिन नलों की चाह में हमनें कुओं, बावडि़यों,तालाबों को बिसरा दिया था वे अब रीते हैं और जब अपनी गलती का एहसास हुआ, पुराने जल-संसाधनों की ओर लौटना चाहा तो पाया कि सदियों पुराने जल-स्त्रोतों पर कंक्रीट के सपने खड़े हुए हैं। जंगल कम हो गए, खेत कम हो गए, नदियों का पानी कम हो गया, तालाब-बावड़ी गायब हो गए। प्रति एकड़ फसल का रकवा कम हुआ और किसान का मुनाफा तो बढ़ते सालों की तुलना में घटता ही चला जा रहा है। क्या एक सक्षम और सफल देष के ‘गण’ की 67 साला उपलब्धि ऐसी ही होना चाहिए थी ? उस देष में जहां रोजगार के कुल साधन का 72 फीसदी खेतों से और उसमें काम करने वाले मजदूरों की रज-बूंदों से है। भले ही हम गर्व करं की हमारे यहां टीवी और मोबाईल उपभोक्ता के बढ़ते आंकड़े हमें विकसि देष की श्रंखला में खड़े करते हैं, लेकिन षौचालय जैसी मूलभूत सुविधाओं से देष की आधी आबादी महरूम है।
अर्थ व्यवस्था की बेहद चमकीली तस्वीर दुनिया में भारत को आने वाले कल का बादषाह बताती हे। लेकिन हकीकत यह है कि हमारे यहां बेरोजगारी, रोजगार की अनिष्चितता और श्रम का अवमूल्यन बहुत चुपके से भीतर ही भीरत घर कर रहा है। ठेके की नौकरियां का जंजाल तेजी से विस्तार ले रहा है। विडंबना है कि गरीबी और अमीरी के बीच दिनों-दिन बढ़ रही खाई के कारण बढ़ते अपराध, नक्सलवाद व अन्य विघटनकारी तत्वों के ताकतवर होने को सरकार व समाज नजरअंदाज कर रहा है। हम गर्व से बता रहे हैं कि हमारा विदेषी पूंजी का भंडार कितना है, अंबानी के मकान में क्या-क्या है, हमनें फौज और पुलिस के लिए कितने अरब के हथियार खरीदे हैं, लेकिन इस पर षर्म नहंी आ रही कि देष की 60 फीसदी से अधिक आबादी हर दिन बीस रूपए से कम में अपना जीवनयापन करने को मजबूर है।
आजादी के बाद देष की सबसे बड़ी त्रासदी की बात कोई करे तो वह है - विस्थापन। कभी विकास के नाम पर तो कभी पर्यावरण के नाम पर तो कभी जबरिया ही, कोई 65 करोड़ भारतीय बीते 61 सालों के दौरान अपना घर-कुनबा, बिरवा छोड़ कर अंजान संस्कृति, रिवाजों, परंपराओं के बीच रहने पर मजबूर हुए हैं अपनी मिट्टी से बिछुड़े ये बिरवे समय के साथ भी नई जमीन पर अपनी जगह नहीं बना पाए। इनकी बड़ी संख्या षहरों की स्लम बस्तियों के निर्माण का रण बनीं। ये कुंठित, लाचार, गैरजागरूक लोग पूंजीपतियों की तिजोरी का वजन बढ़ाने में सहायक तो हैं, लेकिन कथित‘ सभ्य’ समाज के लिए ये अभी भी बोझ ही हैं। विकास के नाम पर दूरस्थ अंचलों को खोद- कुरेद कर खोखला बना दिया, फिर वहां से भगाए गए लोगों से षहरों को ‘गंदी बस्ती’ या अरबन स्लम बना दिया। संविधान ने तो हमें अपने पसंद की जगह पर अपने पसंद का रोजगार करने की छूट दी थी,विस्थापन ने एक किसान को रिक्षा खींचने और एक संगतराष को भीख मांगने पर मजबूर कर दिया।
हमारी सरकारें एड्स के भूत के पीछे भाग रही हैं और देखें कि आजादी के समय जो बीमारियां आम लोगों के लिए चुनौती बनीं हुई थीें, वे आज भी यथावत हैं- मलेरिया, टीबी, कुपोशण,। ना इनके मरीज घटे और ना ही मरने वाले। भले ही गांवों में सरकारी अस्पतालों के पोस्टर छपते हों, लेकिन हकीकत यही है कि यदि जेब में टका नहीं है तो बीमारियों से जूझना संभव नहीं है। षिक्षा में असमानता की नौटंकी तो इस समय राजधानी दिल्ली में देखा ही जा रही है, पांच सितारा स्कूलों में जबरिया गरीब बच्चों को भर्ती करवाने के लिए सरकार आमदा है, अरे भाई सरकार खुद अपने स्कूलों को प्राईवेट स्कूलों के स्तर का बनाने की प्रयास क्यों नहीं करती है ? जरा विचारिए कि जब दिल्ली का यह हाल है तो दूरस्थ अंचलों में षिक्षा के नाम पर क्या नहीं हो रहा होगा। तभी तो एक एनजीओ ‘प्रथम’ की रिपोर्ट कह रही है कि कक्षा पांच के बच्चे हिंदी का पहला पाठ नहीं पढ़ पाते हैं, चार के बच्चे साधारण जोड़-घटाव में षून्य हैं। समान अवसर का बीत करने वाला संविधान अपनी प्राथमिक कक्षा में ही फेल होता दिखता है। आंकड़ों में तो हम दुनिया में सबसे ज्यादा यूनीवर्सिटी वाले देष हैं, लेकिन इनमें से ‘‘असल में विष्व-विद्यालय’’ स्तर की संस्थाएं गिनी-चुनी हैं। अधिकांष संस्थाएं डिगरी बांट रही हैं और बेरोजगाारों की फौज तैयार कर रही हैं।
विधायी संस्थाओं की बात किए बगैर संविधान का मूल्यांकन अधूरा ही रहेगा, चुनाव लड़ना, जीतना और उसके बाद अपनी मर्जी से काम करवाना, तीनों ही बातें अब धन-बल और बाहु-बल पर निर्भर हो गई हैं। जिस देष की ंससद के 60 फीसदी सदस्य करोड़पति हों, जहां राज्यों की विधान सभा के आधे से अधिक सदस्य अपराधें में लिप्त हों, जहां स्थानीय निकाय के चुनावों में षराब और षबाब का जेार रहता हो, जहां मुख्यमंत्री अदालत की लड़ाई को सड़कों पर हुड़दंग के जरिए लड़ना चाहता हो---- जंहां लोग थप्पड चलाने, जूता फैंकने और ष्याही फैंकने को लेाकतंत्र का अंग मानते हों -- और भी बहुत कुछ है। संविधान की आत्मा बहुत दुख रही होगी--- उसको बनाने वाले बेहद बैचेन होंगे--- काष यह दर्द आम आदमी भी महसूस करे और बदाव के लिए उठ खड़ा हो।
बीते 67 सालों को आजादी की पगडंडी पर पीछे मुड़ कर देखते हुए
पंकज चतुर्वेदी
मुल्क की आजादी के 67 साल पूरे होने पर हमारी सरकार, उसकी कई संस्थाएं, लोग आकलन कर रहे हैं कि हमनें क्या खोया और क्या पाया। उद्योग-ध्ंाधे, कार-मोटर साईकिलों से पटे चैड़े-चैड़े रास्ते, स्कूल, कालेज, बिजली, लोगों की बढ़ी क्रय-क्षमता और तेजी से उपभोग वस्तुओं की ओर बढ़ता निम्न और मध्यम वर्ग। आंकड़ों की कसौटी पर सब कुछ बेहद उजला और चकाचैंध वाला दिखता है। लेकिन क्या वे बुनियादी सवाल, जो आजादी और संविधान की मूल भावना में निहित थे, अपना जवाब या रास्ता पा सके हैं ? लोकतंत्र अभी भी जनता के द्वारा और जनता के लिए कितना रह गया है ? सांख्यिीकी के मनोरम चित्रों में ‘आम आदमी’ की मौजूदगी कितनी है ? ये मन है कि मानने को तैयार नहीं हैं कि हम एक सफल गणतंत्र हैं। हां, इस बात को हमें स्वीकार करना होगा कि हमारे लोकतंत्र की जड़े इतनी ताकतवर जरूर हैंकि इतने बडे देष में सत्ता हस्तांतरण एक वोट के बदौलत बेहद षांति से, सहज तरीके से और स्वतंत्र तरीके से होता है।
राज एक्सपे्स, भोपाल 15 अगस्त 14http://epaper.rajexpress.in/Details.aspx?id=234377&boxid=52824500 |
अर्थ व्यवस्था की बेहद चमकीली तस्वीर दुनिया में भारत को आने वाले कल का बादषाह बताती हे। लेकिन हकीकत यह है कि हमारे यहां बेरोजगारी, रोजगार की अनिष्चितता और श्रम का अवमूल्यन बहुत चुपके से भीतर ही भीरत घर कर रहा है। ठेके की नौकरियां का जंजाल तेजी से विस्तार ले रहा है। विडंबना है कि गरीबी और अमीरी के बीच दिनों-दिन बढ़ रही खाई के कारण बढ़ते अपराध, नक्सलवाद व अन्य विघटनकारी तत्वों के ताकतवर होने को सरकार व समाज नजरअंदाज कर रहा है। हम गर्व से बता रहे हैं कि हमारा विदेषी पूंजी का भंडार कितना है, अंबानी के मकान में क्या-क्या है, हमनें फौज और पुलिस के लिए कितने अरब के हथियार खरीदे हैं, लेकिन इस पर षर्म नहंी आ रही कि देष की 60 फीसदी से अधिक आबादी हर दिन बीस रूपए से कम में अपना जीवनयापन करने को मजबूर है।
आजादी के बाद देष की सबसे बड़ी त्रासदी की बात कोई करे तो वह है - विस्थापन। कभी विकास के नाम पर तो कभी पर्यावरण के नाम पर तो कभी जबरिया ही, कोई 65 करोड़ भारतीय बीते 61 सालों के दौरान अपना घर-कुनबा, बिरवा छोड़ कर अंजान संस्कृति, रिवाजों, परंपराओं के बीच रहने पर मजबूर हुए हैं अपनी मिट्टी से बिछुड़े ये बिरवे समय के साथ भी नई जमीन पर अपनी जगह नहीं बना पाए। इनकी बड़ी संख्या षहरों की स्लम बस्तियों के निर्माण का रण बनीं। ये कुंठित, लाचार, गैरजागरूक लोग पूंजीपतियों की तिजोरी का वजन बढ़ाने में सहायक तो हैं, लेकिन कथित‘ सभ्य’ समाज के लिए ये अभी भी बोझ ही हैं। विकास के नाम पर दूरस्थ अंचलों को खोद- कुरेद कर खोखला बना दिया, फिर वहां से भगाए गए लोगों से षहरों को ‘गंदी बस्ती’ या अरबन स्लम बना दिया। संविधान ने तो हमें अपने पसंद की जगह पर अपने पसंद का रोजगार करने की छूट दी थी,विस्थापन ने एक किसान को रिक्षा खींचने और एक संगतराष को भीख मांगने पर मजबूर कर दिया।
हमारी सरकारें एड्स के भूत के पीछे भाग रही हैं और देखें कि आजादी के समय जो बीमारियां आम लोगों के लिए चुनौती बनीं हुई थीें, वे आज भी यथावत हैं- मलेरिया, टीबी, कुपोशण,। ना इनके मरीज घटे और ना ही मरने वाले। भले ही गांवों में सरकारी अस्पतालों के पोस्टर छपते हों, लेकिन हकीकत यही है कि यदि जेब में टका नहीं है तो बीमारियों से जूझना संभव नहीं है। षिक्षा में असमानता की नौटंकी तो इस समय राजधानी दिल्ली में देखा ही जा रही है, पांच सितारा स्कूलों में जबरिया गरीब बच्चों को भर्ती करवाने के लिए सरकार आमदा है, अरे भाई सरकार खुद अपने स्कूलों को प्राईवेट स्कूलों के स्तर का बनाने की प्रयास क्यों नहीं करती है ? जरा विचारिए कि जब दिल्ली का यह हाल है तो दूरस्थ अंचलों में षिक्षा के नाम पर क्या नहीं हो रहा होगा। तभी तो एक एनजीओ ‘प्रथम’ की रिपोर्ट कह रही है कि कक्षा पांच के बच्चे हिंदी का पहला पाठ नहीं पढ़ पाते हैं, चार के बच्चे साधारण जोड़-घटाव में षून्य हैं। समान अवसर का बीत करने वाला संविधान अपनी प्राथमिक कक्षा में ही फेल होता दिखता है। आंकड़ों में तो हम दुनिया में सबसे ज्यादा यूनीवर्सिटी वाले देष हैं, लेकिन इनमें से ‘‘असल में विष्व-विद्यालय’’ स्तर की संस्थाएं गिनी-चुनी हैं। अधिकांष संस्थाएं डिगरी बांट रही हैं और बेरोजगाारों की फौज तैयार कर रही हैं।
विधायी संस्थाओं की बात किए बगैर संविधान का मूल्यांकन अधूरा ही रहेगा, चुनाव लड़ना, जीतना और उसके बाद अपनी मर्जी से काम करवाना, तीनों ही बातें अब धन-बल और बाहु-बल पर निर्भर हो गई हैं। जिस देष की ंससद के 60 फीसदी सदस्य करोड़पति हों, जहां राज्यों की विधान सभा के आधे से अधिक सदस्य अपराधें में लिप्त हों, जहां स्थानीय निकाय के चुनावों में षराब और षबाब का जेार रहता हो, जहां मुख्यमंत्री अदालत की लड़ाई को सड़कों पर हुड़दंग के जरिए लड़ना चाहता हो---- जंहां लोग थप्पड चलाने, जूता फैंकने और ष्याही फैंकने को लेाकतंत्र का अंग मानते हों -- और भी बहुत कुछ है। संविधान की आत्मा बहुत दुख रही होगी--- उसको बनाने वाले बेहद बैचेन होंगे--- काष यह दर्द आम आदमी भी महसूस करे और बदाव के लिए उठ खड़ा हो।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें