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सोमवार, 25 अगस्त 2014

grabing agriculture land on name of development

विकास की भेंट चढ़ती उपजाऊ जमीन

मुद्दा पंकज चतुव्रेदी
RASHTRIY SAHARA 26-8-14http://www.rashtriyasahara.com/epapermain.aspx?queryed=9

किसानों की जमीन अधिग्रहण के मामले में हाल में सुप्रीम कोर्ट ने भी कुछ तल्ख टिप्पणी की है। देश के छोटे-बड़े शहरों में जहां अपार्टमेंट्स बन रहे हैं, वहां साल-दो साल पहले तक खेती होती थी। गांव वालों से औद्योगिकीकरण के नाम पर औने-पौने दाम पर जमीन छीनकर हजार गुणा दर पर बिल्डिरों को दे दी गई। गंगा और जमुना के दोआब का इलाका सदियों से देश की खेती की रीढ़ रहा है। यहां की जमीन सोना उगलती है। लेकिन विकास के नाम पर कृषि भूमि पर कंक्रीट के जंगल रोप दिए गए। मुआवजा बांट दिया और हजारों बेरोजगारों की फौज खड़ी कर दी गई। इससे पहले सिंगूर, नंदीग्राम, जैतापुर, भट्टा पारसौल जैसी लंबी सूची है। देश में स्पेशल इकानोमिक जोन बनाए जा रहे है, सड़क, पुल, कालोनी- सभी के लिए जमीन चाहिए, वह जमीन जिस पर किसान का हल चलता हो। सवाल है कि विकास योजनाओं के लिए सरकार को देश की अर्थव्यवस्था का मूल आधार रहे खेत उजाड़ने पर क्यों मजबूर होना पड़ रहा है? किसान के खेत पर सबकी नजर लगी है। उस पर सड़कें, हवाई अड्डे बन रहे हैं, महानगरों की बढ़ती आबादी की जरूरत से अधिक निवेश के नाम पर बनाई जा रही बहुमंजिली इमारतों का ठिकाना भी उर्वर जमीन ही है। तमाम घटनाएं गवाह हैं कि कारखानों के लिए जमीन जुटाने के नाम पर जब खेतों को उजाड़ा जाता है तो लोगों का गुस्सा भड़कता है जबकि नक्शे और आंकड़ों में तस्वीर दूसरा पहलू कुछ और कहता है। देश में बंजर बड़ी लाखों-लाख हेक्टेयर जमीन को विकास का इंतजार है। लेकिन क्योंकि सब पका-पकाया खाना चाहते हैं इसलिए बेकार पड़ी जमीन को लायक बनाने की मेहनत से बचते हुए कृषि भूमि पर ही नजर गड़ जाती है। विदित हो कि देश में कुल 32 करोड़ 90 लाख हेक्टेयर भूमि में से 12 करोड़ 95 लाख 70 हजार हेक्टेयर बंजर है। भारत में बंजर भूमि के ठीक-ठीक आकलन के लिए अब तक कोई विस्तृत सव्रेक्षण तो नहीं हुआ है, फिर भी केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय का अनुमान है कि सर्वाधिक बंजर जमीन (दो करोड़ एक लाख 42 हजार हेक्टेयर) मध्यप्रदेश में है। उसके बाद राजस्थान में एक करोड़ 99 लाख 34 हजार हेक्टेयर, महाराष्ट्र में एक करोड़ 44 लाख एक हजार हेक्टेयर बंजर जमीन है। आंध्रप्रदेश में एक करोड़ 14 लाख 16 हजार, कर्नाटक में 91 लाख 65 हजार, उत्तर प्रदेश में 80 लाख 61 हजार, गुजरात में 98 लाख 36 हजार, ओडिशा में 63 लाख 84 हजार तथा बिहार में 54 लाख 58 हजार हेक्टेयर जमीन बेकार है। पश्चिम बंगाल में 25 लाख 36 हजार, हरियाणा में 24 लाख 78 हजार, असम में 17 लाख 30 हजार, हिमाचल में 19 लाख 78 हजार, जम्मू-कश्मीर में 15 लाख 65 हजार, केरल में 12 लाख 79 हजार हेक्टेयर जमीन, धरती पर बेकार है । पंजाब सरीखे कृषि प्रधान राज्य में 12 लाख 30 हजार हेक्टेयर, उत्तर-पूर्व के मणिपुर, मेघालय और नागालैंड में क्रमश: 14 लाख 38 हजार, 19 लाख 18 हजार और 13 लाख 86 हजार हेक्टेयर भूमि बंजर है। सर्वाधिक बंजर भूमि वाले मध्यप्रदेश में भूमि के क्षरण की रफ्तार भी सर्वाधिक है। यहां गत दो दशकों में बीहड़ बंजर दो गुने होकर 13 हजार हेक्टेयर तक हो गए हैं। धरती पर जब पेड़-पौधों की पकड़ कमजोर होती है तब बरसात के पानी से नंगी की मिट्टी बहने लगती है। जमीन के समतल न होने के कारण पानी को जहां जगह मिलती है, मिट्टी काटते हुए बहता जाता है। इस प्रक्रिया में बनने वाली नालियां कालांतर में बीहड़ का रूप ले लेती हैं। एक बार बीहड़ बन जाए तो हर बारिश में वह और गहरा होता चला जाता है। इस तरह के भूक्षरण से हर साल करीब चार लाख हेक्टेयर जमीन उजड़ रही है। बीहड़ रोकने का काम जिस गति से चल रहा है उसके अनुसार बंजर खत्म होने में 200 वर्ष लगेंगे, लेकिन तब तक बीहड़ ढाई गुना अधिक हो चुके होंगे। बीहड़ों के बाद, धरती के लिए सर्वाधिक जानलेवा, खनन-उद्योग रहा है। पिछले तीस वर्षों में खनिज-उत्पादन 50 गुना बढ़ा लेकिन यह लाखों हेक्टेयर जंगल और खेतों को वीरान बना गया है। नई खदान मिलने पर पहले वहां के जंगल साफ होते हैं फिर खदान में कार्यरत श्रमिकों की दैनिक जलावन की जरूरत पूर्ति हेतु आस-पास की हरियाली होम होती है । तदुपरांत खुदाई की प्रक्रिया में जमीन पर गहरी-गहरी खदानें बनाई जाती है, जिनमें बारिश के दिनों में पानी भर जाता है । वहीं खदानों से निकली धूल- रेत और अयस्क मिशण्रदूर-दूर तक की जमीन की उर्वरा शक्ति हजम कर जाते हैं। खदानों के गैर नियोजित अंधाधुंध उपायोग के कारण जमीन के क्षारीय होने की समस्या भी बढ़ी है। ऐसी जमीन पर कुछ भी उगाना नामुमकिन होता है। हरितक्रांति के नाम पर जिन रासायनिक खादों द्वारा अधिक अनाज पैदा करने का नारा दिया जाता रहा है, वह भी जमीन की कोख उजाड़ने की जिम्मेदार रही हैं। रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल से पहले कुछ साल तो दुगनीतिगुनी पैदावार मिली, पर उसके बाद भूमि बंजर होती जा रही है। जल समस्या के निराकरण के नाम पर मनमाने ढंग से रोपे जा रहे नलकूपों के कारण भी जमीन कटने-फटने की शिकायतें सामने आई हैं। सार्वजनिक चरागाहों के सिमटने के बाद रहे बचे घास के मैदानों में बेतरतीब चराई के कारण भी जमीन के बड़े हिस्से के बंजर होने की घटनाएं मध्य भारत में सामने आई हैं । सिंचाई के लिए बनाई गई कई नहरों और बांधों के आस-पास जल रिसने से भी दल-दल बन रहे हैं ।़ 1985 स्थापित राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम के 16 वें सूत्र के तहत बंजर भूमि पर वनीकरण और वृक्षारोपण का कार्य शुरू किया था। इसके तहत एक करोड़ 17 लाख 15 हजार हेक्टेयर भूमि को हरा- भरा किया गया लेकिन आंकड़ों का खोखलापन सेटेलाइट द्वारा खींचे गए चित्रों से उजागर हो चुका है। कुछ साल पहले बंजर भूमि विकास विभाग द्वारा बंजर भूमि विकास कार्य बल के गठन का भी प्रस्ताव था। कहा गया कि रेगिस्तानी, पर्वतीय, घाटियों, खानों आदि दुर्गम भूमि की गैर वनीय बंजर भूमि को स्थायी उपयोग के लायक बनाने के लिए यह कार्य- बल काम करेगा लेकिन सब कागजों पर ही सिमटा रहा। केंद्र व राज्य सरकार के विभिन्न विभागों के कब्जे में पड़ी अनुत्पादक भूमि के विकास के लिए कोई कवायद न होना विडंबना है। सरकार बड़े औद्योगिक घरानों को तो बंजर भूमि सुधार के लिए आमंत्रित कर रही है, लेकिन छोटे काश्तकारों की भागीदारी के प्रति उदासीन है। विदित हो देश में कोई तीन करोड़ 70 लाख हेक्टेर बंजर भूमि कृषि योग्य समतल है। भूमिहीनों को इसका मालिकाना हक दे उस जमीन को कृषि योग्य बनाना क्रांतिकारी कदम होगा। स्पेशल इकानामिक जोन बनाने के लिए अनुपयोगी, अनुपजाऊ जमीन ली जाए। इससे जमीन का क्षरण रुकेगा, हरी-भरी जमीन पर मंडरा रहे संकट के बादल छंटेंगे। जमीन का मुआवजा बांटने में जो खर्च होता है, उसे बंजर भूमि के समतलीकरण, जल संसाधन जुटाने, सड़किबजली मुहैया करवाने जैसे कामों में खर्च करना चाहिए।
     

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