My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2014

Armed Forces : Ignorance resulting violance


सुरक्षा बल: अनदेखी से उपजता असंतोष
DAINIK JAGRAN 18-10-14http://epaper.jagran.com/epaper/18-oct-2014-262-edition-National-Page-1.html
पंकज चतुर्वेदी
कांचीपुरम(तमिलनाडु)के परमाणु सयंत्र में तैनात सीआईएसएफ के प्रधान आरक्षक  विजय प्रताप सिंह को जैसे ही सुबह ड्यूटी के लिए हथियार मिले, उसने ताबड़तोड़ फायरिंग कर अपने ही तीन साथियों को मार डाला। वह सन 1990 में  साल से फौज में था, उम्र 45 साल ही हुई थी। हालांकि सीआईएसएफ सबसे अनुशासित अर्धसैनकि बलों में से हैं और उनके यहां इस तरह की घटना 10 साल बाद हुई है। आंकड़े गवाह हैं कि बीते एक दशक में अपने ही लोगों के हाथों या आत्महत्या में मरने वाले सुरक्षाकर्मियों की संख्या देषद्रोहियों से मोर्चा लेने में षहीदों से ज्यादा दूसरी तरफ फौज व सुरक्षा बलों में काबिल अफसरों की कमी, लोगों को नौकरी छोड़ कर जाना और क्वाटर गार्ड या फौजी जेलों में आरोपी कर्मियों की संख्या में इजाफा, अदालतों में मुकदमेंबाजी दिनो-दिन बढ़ रही हैं।
लोग भूल गए होंगे कि मई 2001 में एक फौजी सिपाही सुबाराम को फांसी की सजा सुनाई गई थी क्योंकि उसने अपने अफसर को गोली मार दी थी।  असल में सुबाराम  अपने साथियों की हत्या करने वाले आतंकवादियों को पनाह देने वालों को हाथों-हाथ सजा देना चाहता था, जबकि राजनीतिक आदेशों से बंधे अफसरों ने ऐसा करने से रोका था। उसके सब्र का बांध टूटा व उसने खुद के अफसर को ही मार डाला। पिछले कुछ सालों के दौरान सीमावर्ती और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में  ऐसी घटनांए होना आम बात हो गई है जिसमें कोई उन्मादी सिपाही अपने साथियों को मार देता है या फिर खुद की जीवनलीला समाप्त कर लेता है।  इन घटनाओं से आ रही दूरगामी चेतावनी की घंटी को अंग्रेजी कायदेां मे ंरचे-पगे फौजी आलाकमान ने कभी सलीके से सुनने की कोशशि ही नहीं की, जबकि फौजी के शौर्य और बलिदान से छितरे खून को अपना वोट बैंक में बदलने को तत्पर नेता इसे जानबूझ कर अनसुना करते हैं।  सेना  व अर्ध सैनिक बल के आला अफसरों पर लगातार विवाद होना, उन पर घूसखोरी के आरोप,सीमा या उपद्रवग्रस्त इलाकों में जवानों को माकूल सुविधाएं या स्थानीय मदद ना मिलने के कारण उनके साथियों की मौतों, सिपाही स्तर पर भर्ती में घूसखोरी की खबरों आदि के चलते अनुषासन की मिसाल कहे जाने वाले हमारे सुरक्षा बल(जिनमें फौज व अर्ध सैनिक बल शामिल हैं) का मनोबल गिरा है।
INEXT INDORE 21-10-14
 बीते दस सालों में फौज के 1018 जवान व अफसर खुदकुशी कर चुके हैं। थल सेना के 119 जवानों ने सन 119 में खुदकुशी कर ली थी , यह आंकड़ा सन 2010 में 101 था। केंद्रीय आरक्षित पुलिस बल यानी सीआरपीएफ के 42 जवानों ने 2011 में और 28 ने 2010 में आत्म हत्या की थी। बीएसएफ में यह आंकड़ा 39 और 29(क्रमश- 2011 व 2010) रही है। इंडो तिब्बत सीमा बल यानी आईटीबीपी में  3 और पांच लोगों ने क्रमषः सालों में आत्म हत्या की। वहीं अपने साथी को ही मार देने के औसतन बीस मामले हर साल सभी बलों में मिल कर सामने आ रहे हैं। ब्यूरो आफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ने कोई दस साल पहले एक जांच दल बनाया था जिसकी रिपोर्ट जून -2004 में आई थी। इसमें घटिया सामाजिक परिवेष, प्रमोशन की कम संभावनाएं, अधिक काम, तनावग्रस्त कार्य, पर्यावरणीय बदलाव, वेतन-सुविधाएं जैसे मसलों पर कई सिफारिशें की गई थीं । इनमें संगठन स्तर पर 37 सिफारिशें, निजी स्तर पर आठ और सरकारी स्तर पर तीन सिफारिशें थीं। इनमें छुट्टी देने की नीति में सुधार, जवानों से नियमित वार्तालाप , शिकायत निवारण को मजबूत बनाना, मनोरंजन व खेल के अवसर उपलब्ध करवाने जैसे सुझाव थे। इन पर कागजी अमल भी हुआ, लेकिन जैसे-जैसे देष में उपद्रव ग्रस्त इलाका बढ़ता जा रहा है अर्ध सैनिक बलों व फौज के काम का दायरे में विस्तार हो रहा है।
सनद रहे सेना कभी आक्रमण के लिए और अर्धसैनिक बल निगरानी व सुरक्षा के लिए हुआ करते थे, लेकिन आज फौज की तैनाती और आपरेषन में राजनैतिक हितों के हावी होने का परिणाम है कि कश्‍मीर में फौज व अध्र्य सैनिक बल चैबीसों घंटे तनावग्रस्त रहते हें। एक तरफ अफसरों के मौखिक आदेश हैं तो दूसरी ओर बेकाबू आतंकवादी, तीसरी तरफ सियासती दांवपेंच हैं तो चैथी ओर घर-परिवार से लगातार दूर रहने की चिंता। यही नहीं यदि कियी जवान से कुछ गलती या अपराध हो जाए तो उसके साथ न्याय यानी कोर्ट मार्शल की प्रक्रिया भी गौरतलब हैं।  पहले से तय हो जाता हे कि मूुजरिम ने अपराध किया है और उसे कितनी सजा देनी है। इधर फौजी  क्वाटर गार्ड में नारकीय जीवन बिताता है तो दूसरी ओर उसके परिवार वालों को खबर तक नहीं दी जाती। नियमानुसार अरोपी के परिवाजन को ‘चार्ज षीट’ के बारे में सूचित किया जाना चाहिए, ताकि वे उसके बचाव की व्यवस्था कर सकें। लेकिन अधिकांष मामलों में सजा पूरी होने तक घर वालों को सूचना ही नहीं दी जाती है। उल्लेखनीय है कि अधिकांष जवान दूरस्थ ग्रामीण अंचलों से बेहद कम आय वाले परिवारों से आते हैं।
देष में अभी भी फौजी व अर्ध सैनिक बलों की वर्दी के प्रति विष्वास बचा हुआ है , शायद इस लिए के आम फाैजी समाज से ज्यादा घुल-मिल नहीं पाता है और ना ही अपना दर्द बयां कर पाता है। वहां की अंदरूनी कहानी कुछ और है। किसी भी बल की आत्मा कहे जाने वाला सिपाही-वर्ग अपने ही अफसर के हाथों शोषण व उत्पीडन का शिकार होता हे।  देहरादून, महु, पुणे, चंडीगढ़ जैसी  फौजी बस्तियों में  सेना के आला रिटायर्ड अफसरों की कोठियों के निर्माण में रंगरूट यानी नयी भर्ती वाला जवान ईंट-सीमेंट की तगारियों ढोते मिल जाएगा।  जिस सिपाही को देश की चैाकसी के लिए तैयार किया जाता है वह डेढ सौ रूप्ए रोज के मजदूरों की जगह काम करने पर मजबूर होता है।  रक्षा मंत्रालय हर साल कई-कई निर्देश सभी यूनीटों में भेजता है कि फौजी अफसर अपने घरों में सिपाहियों को बतौर बटमेन( घरेलू नौकर) ना लगाएं, फिर भी बीस-पच्चीस हजार का वेतन पाने वाले दो-तीन जवान हर अफसर के घर सब्जी ढोते मिल जाते हैं।
आमतौर पर जवानों को अपने घर-परिवार को साथ रखने की सुविधा नहीं होती हे। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि गैर अधिकारी वर्ग के अस्सी फीसदी सुरक्षाकर्मी छावनी इलाकों में घुटनभरे कमरे में मच्छरदानी लगी एक खटिया, उसके नीचे रखा बड़ा सा बक्सा में ही अपना जीवन काटते हैं उसके ठीक सामने अफसरों की ‘‘पांच सितारा मैस’’ होती है। सेना व अर्ध सैनिक मामलों को राश्ट्रहित का बता कर उसे अतिगोपनीय कह दिया जाता है और ऐसी दिक्कतों पर अफसर व नेता सार्वजनिक बयान देने से बचते हैं। जबकि वहां मानवाधिकारों और सेवा नियमों का जम कर उल्लंघन होता रहता है। आज विभिन्न हाई कोर्ट में सैन्य बलों  से जुड़े आठ हजार से ज्यादा मामले लंबित हैं। अकेले सन 2009 में  सुरक्षा बलों के 44 हजार लोगों द्वारा इस्तीफा देने, जिसमें 36 हजार सीआरपीएफ व बीएसएफ के हैं, संसद में एक सवाल में स्वीकारा गया है। 
साफ दिख रहा है कि जवानों के काम करने के हालात सुधारे बगैर मुल्क के सामने आने वाली सुरक्षा चुनौतियों से सटीक लहजे में निबटना कठिन होता जा रहा है। अब जवान पहले से ज्यादा पढ़ा-लिखा आ रहा है, वह पहले से ज्यादा संवेदनशील और सूचनाओं से परिपूर्ण है; ऐसे में उसके साथ काम करने में अधिक जागरूकता व सतर्कता की जरूरत है। नियमित अवकाश, अफसर से बेहतर संवाद, सुदूर नियुक्त जवान के परिवार की स्थानीय परेषानियों के निराकरण के लिए स्थानीय प्रशासन की प्राथमिकता व तत्परता, जवानों के मनोरजंन के अवसर, उनके लिए पानी , चिकत्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं को पूरा करना आदि ऐसे कदम हैं जो फौज में अनुशासन व कार्य प्रतिबद्धता, देानो को बनाए रख सकते हैं।
पंकज चतुर्वेदी
9891928376

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...