दो सरकारी योजनाएं, सार्वजनिक वितरण प्रणाली तथा मनरेगा, लंपट लोगों के घर भरने का जरिया बन गई हैं, इसमें कोई शक नहीं कि गरीब लोगों के आर्थिक व सामजिक उत्थान के लिए कुछ किया जाना सरकार व समाज का फर्ज है, लेकिन ऐसी योजनाएं तो गरीबों से ज्यादा अफसरों व दलालों के घर भर रही हैं, इस मुद्रदे पर मेरा लेख राज एक्सप्रेस, भोपाल के संपादकीय पेज पर हैं , इसका लिंक हैhttp://epaper.rajexpress.in/epapermain.aspx?edcode=25&eddate=10%2f22%2f2014 और इसे मेरे ब्लॉग पर भी पढ सकते हैं pankajbooks.blogspot.in
गरीबों से ज्यादा भरे पेट वालों के लिए है खाद्य सुरक्षा योजनाएं
पंकज चतुर्वेदी
छत्तीसगढ़ में हाल ही में राज्यभर में बीपीएल व अन्य राशन कार्डों की जांच हुई तो पता चला कि 66 लाख कार्डों में से 19 फीसदी फर्जी थे जो 63 हजार मेट्रीक टन चावल हड़प कर चुके हैं। अनुमान है कि है कि हर महीने इस तरह 151 करोड का घोटाला हो रहा था। यदि इसमें नमक, दाल, केरोसीन को भी जोड़ लिया जाए तो हर महीने 165 करोड़ का घपला है। विदित हो कि राज्य में बीपीएल परिवारों को 35 किलो अनाज एक या दो रूप्ए किलो पर तथा दो किलो नमक, 1.3 किलो चीनी और चार लीटर केरोसीन इन कार्ड पर मिलता है। यह उस राज्य की हालत है जिसकी सार्वजनिक वितरण प्रणाली को देश में श्रेष्ठतम माना गया था और कहा गहा गया था कि सार्क देश छत्तीसगढ़ से गरीब लोगों को भूखा रहने से बचाने का प्रशिक्षण लेंगे। यह हाल उस राज्य का है जिसकी नजीर दुनियाभर में दी जाती है तो अनुमान लगा लें कि दीगर सूबों में गरीबों का अनाज कहां जा रहा होगा । सनद रहे नई सरकार के नए बजट में खाद्य सुरक्षा के मद में बीते साल के 92 हजार करोड़ की तुला में सवा लाख करोड़ का प्रावधान है।
यदि आजादी के बाद से अभी तक देश में गरीबों के उत्थान के लिए चलाई गई योजनाओं पर व्यय राशि को जोड़े तो इस मद पर इतना धन खर्च हो चुका है कि देश में किसी को भी दस लाख रूपए से कम का मालिक नहीं होना था, हर व्यक्ति के सिर पर छत होना था और अब इस तरह की योजनाओं पर सरकारी इमदाद की जरूरत नहीं पड़नी थी। अब यह किसी से छिपा नहीं है कि ऐसी योजनाओं का असल लाभ हितग्राहियों तक क्यों नहीं पहुंचा और हर साल गरीबों की संख्या व उसी की तुलना में सरकारी इमदाद बढ़ता जा रहा है। यही नहीं ऐसी योजनाओं के चलते देश में काला धन बढ़ रहा है जो अर्थ व्यवस्था व कराधान देानेां के लिए घातक है।
इस बार तो चुनावों के दौरान सुप्रीम कोर्ट व चुनाव आयोग दोनों ने चेताया था कि सभी राजनीतिक दलों को ‘‘मुफ्त उपहार‘‘ जैसे लुभावने वायदों से बचना चाहिए। उ.प्र. में मुफ्त लेपटाप वितरण योजना को अंततः बंद करना पड़ा व अब सरकार को समझ आया कि मूलभूत सुविधाओं के विकास के बगैर लोगों को इस तरह की उपहार योजनाओं से बरगलाया नहीं जा सकता। केंद्र की नई सरकार का पहला बजट बस आने ही वाला है और जनता की उम्मीदों के दवाब के साथ-साथ सरकार यह भी जानती है कि विकास के लिए धन जुटाने के लिए कुछ कड़वे फैसले लेने पड़ सकते हैं। शायद अब वक्त आ गया है कि सरकार वास्तविक जरूरतमंदों तक इमदाद पहुंचाने के लिए कुछ वैकल्पिक व्यवस्था करे और सरकार का खजाना खाली कर कतिपय माफिया का पेट भरने वाली योजनाओं को अलविदा कहे। इसमें अनाज का वितरण भ्रष्टाचार और सरकार की सबसिडी का सबसे बड़ा हिस्सा चट कर रहा है। इस समय हर साल 15 से 16 लाख मेट्रीक टन अनाज ऐसी योजनाओं के जरिए वितरित होता है। खाद्य पदार्थ वितरण के लिए आज चावल की खरीद रू. 14 प्रति किलो सरकार करती है, यह गोडाउन से होते हुए राषन की दुकान तक पहुंचता है तो दाम रू. 24 प्रति किलो हो जाता है। जबकि इसका वितरण एक या दो रूपए किलो में होता है। असली दाम व बिक्री के बीच के अंतर को सरकार उस पैसे से पूरा करती है जिसे विभिन्न टैक्सों द्वारा वसूला जाता है। इस तरह हर साल कोई 1,250 अरब रूपए की सबसिडी का बोझ सरकारी खजाने पर पड़ता है। मंत्रालय की रिपेार्ट स्वीकार करती है कि पीडीएस यानी सार्वजनिक वितरण प्रणाली में लीकेज 40 प्रतिशत है। इसी से अंदाज लगा लें कि इस मद में ही हर साल कितनी बड़ी राषि देष में काले धन को बढ़ा रही है।
उत्तर प्रदेश का तो बड़ा ही विचित्र मामला है- गरीबों व गरीबी की रेखा से नीेचे रहने वालों के लिए सस्ती दर पर अनाज वितरित करने की कई योजनाओं - अन्तोदय, जवाहर रोजगार योजना, स्कूलों में बच्चों को मिडडे मील, बीपीएल कार्ड वालों को वितरण आदि के लिए सन 2001 से 2007 तक राज्य को भेजे गए अनाज की अधिकांष हिस्सा गोदामों से सीधे बाजार में बेच दिया गया। घोटालेबाजों की हिम्मत और पहंुच तो देखो कि कई-कई रेलवे की मालगाडि़यां बाकायदा बुक की गईं और अनाज को बांग्लादेश व नेपाल के सीमावर्ती जिलों तक ढोया गया और वहां से बाकायदा ट्रकों में लाद कर बाहर भेज दिया गया। खबर तो यह भी है कि कुछ लाख टन अनाज तो पानी के जहाजों से सुदूर अफ्रीकी देशों तक गया। ऐसा नहीं कि सरकारों को मालूम नहीं था कि इतना बड़ा घोटाला हो रहा है, फिर भी पूरे सात साल तक सबकुछ चलता रहा। अभी तक इस मामले में पांच हजार एफआईआर दर्ज हो चुकी हैं। हालंाकि कानून के जानकार कहते हैं कि इसे इतना विस्तार इसी लिए दिया गया कि कभी इसका ओर-छोर हाथ मंे ही ना आए।
नवंबर-20074 में उ.प्र. के खाद्य-आपूर्ति विभाग के सचिव ने बांग्ला देश व अन्य देशों को भेजे जा रहे अनाज के बारे में जानकारी मांगी। दिसंबर-2004 में रेलवे ने उन जिलों व स्टेशनों की सूची मुहैया करवाई जहां से अनाज बांग्ला देश भेजने के लिए विशेष गाडि़यां रवाना होने वाली थीं। वर्ष 2005 में लखीमपुरी खीरी के कलेक्टर सहित कई अन्य अफसरों की सूची सरकार को मिली, जिनकी भूमिका अनाज घोटाले मंें थी। सन 2006 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने ई ओ डब्लू को इसकी जांच सौंपी थी और तब अकेले बलिया जिले में 50 मुकदमें दर्ज हुए। राज्य में सरकार बदली व जून-2007 में मायावती ने जांच का काम स्पेशल टास्क फोर्स को सौंपा, जिसकी जांच के दायरे में राज्य के 54 जिले आए और तब कोई पांच हजार मुकदमें कायम किए गए थे। सितंबर-2007 में राज्य सरकार ने घोटाले की बात स्वीकार की और दिसंबर-2007 में मामला सीबीआई को सौंपा गया। पता नहीं क्यों सीबीआई जांच में हीला-हवाली करती रही, उसने महज तीन जिलों में जांच का काम किया।
सन 2010 में इस पर एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई, जिसे बाद में हाई कोर्ट, इलाहबाद भेज दिया गया। 03 दिसंबर 2010 को लखनऊ बैंच ने जांच को छह महीने इसे पूरा करने के आदेश दिए लेकिन अब चार साल हो जाएंगे, कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है। विडंबना है कि जांच एजेंसियां अदालत को सूचित करती रहीं कि यह घोटाला इतना व्यापक है कि उसकी जांच के लिए उनके पास मशीनरी नहीं है। इसमें तीस हजार मुकदमें और कई हजार लोगों की गिरफ्तारी करनी होगी। इसके लिए जांच एजेंसी के पास ना तो स्टाफ है और ना ही दस्तावेज एकत्र करने लायक व्यवस्था। प्रारंभिक जांच में मालूम चला है कि राज्य के कम से कम 31 जिलों में बीते कई सालों से यह नियोजित अपराध चल रहा था। सरकार कागज भर रही थी कि इतने लाख गरीबों को इतने लाख टन अनाज बांटा गया, जबकि असली हितग्राही खाली पेट इस बात से बेखबर थे कि सरकार ने उनके लिए कुछ किया भी है। जब हाई कोर्ट ने आदेश दिया तो सीबीआई ने अनमने मन से छह जिलों में कुछ छापे मारे, कुछ स्थानीय स्तर के नेताओं के नाम उछले। फिर अप्रैल-2011 में राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई और हाई कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दे डाली जिसमें सीबीआई जांच का निर्देष दिया गया था। जाहिर है कि मामला लटक गया, या यों कहें कि लटका दिया गया। छत्तीसगढ़ और उत्तरप्रदेश तो बानगी मात्र हैं, शायद ही देश का कोई ऐसा राज्य हो जहां फर्जी राशनकार्ड व उसके नाम पर अनाज वितरण के घपले ना होते हों।
यह भी सही है कि देष में कई करोड़ लोग दो जून की रोटी नहीं जुटा पा रहे हैं, कुपोषण एक कडवी सच्चाई और उनके लिए कल्याणकारी योजनाएं भी जरूरी हैं। लेकिन वास्तविक हितग्राहियां की पहचान करना, खरीदे गए अनाज को उस तक पहुंचाने के व्यय को यदि नियोजित किया जाए तो इस मद का 25 फीसदी बजट को बचाना बेहद सरल है। एक साल में 25 से 30 लाख करोड़ को माफिया के हाथों में जाने से रेाकने के लिए कुछ तकनीकी, प्रशासनीक व नैतिक कार्यवाही समय की मांग है।
एक तरीका है कि हर साल कुछ लाख लोगों के खातों में पांच-पांच लाख जमा करवाए जाएं और उसके ब्याज से उनका खर्च चले। इस तरह मूल पूंजी बैंक से कमाध्यम से सरकार के पास होगी व गरीब परिवारों को सबसिडी नहीं देना होगी। वैसे हाल ही में केद्र सरकार की प्रत्येक सांसद द्वारा एक गांव को गोद लेने की योजना भी इसमें सकारात्मक भूमिका निभा सकती है।
RAJ EXPRESS BHOPAL 22-10-14 |
पंकज चतुर्वेदी
छत्तीसगढ़ में हाल ही में राज्यभर में बीपीएल व अन्य राशन कार्डों की जांच हुई तो पता चला कि 66 लाख कार्डों में से 19 फीसदी फर्जी थे जो 63 हजार मेट्रीक टन चावल हड़प कर चुके हैं। अनुमान है कि है कि हर महीने इस तरह 151 करोड का घोटाला हो रहा था। यदि इसमें नमक, दाल, केरोसीन को भी जोड़ लिया जाए तो हर महीने 165 करोड़ का घपला है। विदित हो कि राज्य में बीपीएल परिवारों को 35 किलो अनाज एक या दो रूप्ए किलो पर तथा दो किलो नमक, 1.3 किलो चीनी और चार लीटर केरोसीन इन कार्ड पर मिलता है। यह उस राज्य की हालत है जिसकी सार्वजनिक वितरण प्रणाली को देश में श्रेष्ठतम माना गया था और कहा गहा गया था कि सार्क देश छत्तीसगढ़ से गरीब लोगों को भूखा रहने से बचाने का प्रशिक्षण लेंगे। यह हाल उस राज्य का है जिसकी नजीर दुनियाभर में दी जाती है तो अनुमान लगा लें कि दीगर सूबों में गरीबों का अनाज कहां जा रहा होगा । सनद रहे नई सरकार के नए बजट में खाद्य सुरक्षा के मद में बीते साल के 92 हजार करोड़ की तुला में सवा लाख करोड़ का प्रावधान है।
यदि आजादी के बाद से अभी तक देश में गरीबों के उत्थान के लिए चलाई गई योजनाओं पर व्यय राशि को जोड़े तो इस मद पर इतना धन खर्च हो चुका है कि देश में किसी को भी दस लाख रूपए से कम का मालिक नहीं होना था, हर व्यक्ति के सिर पर छत होना था और अब इस तरह की योजनाओं पर सरकारी इमदाद की जरूरत नहीं पड़नी थी। अब यह किसी से छिपा नहीं है कि ऐसी योजनाओं का असल लाभ हितग्राहियों तक क्यों नहीं पहुंचा और हर साल गरीबों की संख्या व उसी की तुलना में सरकारी इमदाद बढ़ता जा रहा है। यही नहीं ऐसी योजनाओं के चलते देश में काला धन बढ़ रहा है जो अर्थ व्यवस्था व कराधान देानेां के लिए घातक है।
इस बार तो चुनावों के दौरान सुप्रीम कोर्ट व चुनाव आयोग दोनों ने चेताया था कि सभी राजनीतिक दलों को ‘‘मुफ्त उपहार‘‘ जैसे लुभावने वायदों से बचना चाहिए। उ.प्र. में मुफ्त लेपटाप वितरण योजना को अंततः बंद करना पड़ा व अब सरकार को समझ आया कि मूलभूत सुविधाओं के विकास के बगैर लोगों को इस तरह की उपहार योजनाओं से बरगलाया नहीं जा सकता। केंद्र की नई सरकार का पहला बजट बस आने ही वाला है और जनता की उम्मीदों के दवाब के साथ-साथ सरकार यह भी जानती है कि विकास के लिए धन जुटाने के लिए कुछ कड़वे फैसले लेने पड़ सकते हैं। शायद अब वक्त आ गया है कि सरकार वास्तविक जरूरतमंदों तक इमदाद पहुंचाने के लिए कुछ वैकल्पिक व्यवस्था करे और सरकार का खजाना खाली कर कतिपय माफिया का पेट भरने वाली योजनाओं को अलविदा कहे। इसमें अनाज का वितरण भ्रष्टाचार और सरकार की सबसिडी का सबसे बड़ा हिस्सा चट कर रहा है। इस समय हर साल 15 से 16 लाख मेट्रीक टन अनाज ऐसी योजनाओं के जरिए वितरित होता है। खाद्य पदार्थ वितरण के लिए आज चावल की खरीद रू. 14 प्रति किलो सरकार करती है, यह गोडाउन से होते हुए राषन की दुकान तक पहुंचता है तो दाम रू. 24 प्रति किलो हो जाता है। जबकि इसका वितरण एक या दो रूपए किलो में होता है। असली दाम व बिक्री के बीच के अंतर को सरकार उस पैसे से पूरा करती है जिसे विभिन्न टैक्सों द्वारा वसूला जाता है। इस तरह हर साल कोई 1,250 अरब रूपए की सबसिडी का बोझ सरकारी खजाने पर पड़ता है। मंत्रालय की रिपेार्ट स्वीकार करती है कि पीडीएस यानी सार्वजनिक वितरण प्रणाली में लीकेज 40 प्रतिशत है। इसी से अंदाज लगा लें कि इस मद में ही हर साल कितनी बड़ी राषि देष में काले धन को बढ़ा रही है।
उत्तर प्रदेश का तो बड़ा ही विचित्र मामला है- गरीबों व गरीबी की रेखा से नीेचे रहने वालों के लिए सस्ती दर पर अनाज वितरित करने की कई योजनाओं - अन्तोदय, जवाहर रोजगार योजना, स्कूलों में बच्चों को मिडडे मील, बीपीएल कार्ड वालों को वितरण आदि के लिए सन 2001 से 2007 तक राज्य को भेजे गए अनाज की अधिकांष हिस्सा गोदामों से सीधे बाजार में बेच दिया गया। घोटालेबाजों की हिम्मत और पहंुच तो देखो कि कई-कई रेलवे की मालगाडि़यां बाकायदा बुक की गईं और अनाज को बांग्लादेश व नेपाल के सीमावर्ती जिलों तक ढोया गया और वहां से बाकायदा ट्रकों में लाद कर बाहर भेज दिया गया। खबर तो यह भी है कि कुछ लाख टन अनाज तो पानी के जहाजों से सुदूर अफ्रीकी देशों तक गया। ऐसा नहीं कि सरकारों को मालूम नहीं था कि इतना बड़ा घोटाला हो रहा है, फिर भी पूरे सात साल तक सबकुछ चलता रहा। अभी तक इस मामले में पांच हजार एफआईआर दर्ज हो चुकी हैं। हालंाकि कानून के जानकार कहते हैं कि इसे इतना विस्तार इसी लिए दिया गया कि कभी इसका ओर-छोर हाथ मंे ही ना आए।
नवंबर-20074 में उ.प्र. के खाद्य-आपूर्ति विभाग के सचिव ने बांग्ला देश व अन्य देशों को भेजे जा रहे अनाज के बारे में जानकारी मांगी। दिसंबर-2004 में रेलवे ने उन जिलों व स्टेशनों की सूची मुहैया करवाई जहां से अनाज बांग्ला देश भेजने के लिए विशेष गाडि़यां रवाना होने वाली थीं। वर्ष 2005 में लखीमपुरी खीरी के कलेक्टर सहित कई अन्य अफसरों की सूची सरकार को मिली, जिनकी भूमिका अनाज घोटाले मंें थी। सन 2006 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने ई ओ डब्लू को इसकी जांच सौंपी थी और तब अकेले बलिया जिले में 50 मुकदमें दर्ज हुए। राज्य में सरकार बदली व जून-2007 में मायावती ने जांच का काम स्पेशल टास्क फोर्स को सौंपा, जिसकी जांच के दायरे में राज्य के 54 जिले आए और तब कोई पांच हजार मुकदमें कायम किए गए थे। सितंबर-2007 में राज्य सरकार ने घोटाले की बात स्वीकार की और दिसंबर-2007 में मामला सीबीआई को सौंपा गया। पता नहीं क्यों सीबीआई जांच में हीला-हवाली करती रही, उसने महज तीन जिलों में जांच का काम किया।
सन 2010 में इस पर एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई, जिसे बाद में हाई कोर्ट, इलाहबाद भेज दिया गया। 03 दिसंबर 2010 को लखनऊ बैंच ने जांच को छह महीने इसे पूरा करने के आदेश दिए लेकिन अब चार साल हो जाएंगे, कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है। विडंबना है कि जांच एजेंसियां अदालत को सूचित करती रहीं कि यह घोटाला इतना व्यापक है कि उसकी जांच के लिए उनके पास मशीनरी नहीं है। इसमें तीस हजार मुकदमें और कई हजार लोगों की गिरफ्तारी करनी होगी। इसके लिए जांच एजेंसी के पास ना तो स्टाफ है और ना ही दस्तावेज एकत्र करने लायक व्यवस्था। प्रारंभिक जांच में मालूम चला है कि राज्य के कम से कम 31 जिलों में बीते कई सालों से यह नियोजित अपराध चल रहा था। सरकार कागज भर रही थी कि इतने लाख गरीबों को इतने लाख टन अनाज बांटा गया, जबकि असली हितग्राही खाली पेट इस बात से बेखबर थे कि सरकार ने उनके लिए कुछ किया भी है। जब हाई कोर्ट ने आदेश दिया तो सीबीआई ने अनमने मन से छह जिलों में कुछ छापे मारे, कुछ स्थानीय स्तर के नेताओं के नाम उछले। फिर अप्रैल-2011 में राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई और हाई कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दे डाली जिसमें सीबीआई जांच का निर्देष दिया गया था। जाहिर है कि मामला लटक गया, या यों कहें कि लटका दिया गया। छत्तीसगढ़ और उत्तरप्रदेश तो बानगी मात्र हैं, शायद ही देश का कोई ऐसा राज्य हो जहां फर्जी राशनकार्ड व उसके नाम पर अनाज वितरण के घपले ना होते हों।
यह भी सही है कि देष में कई करोड़ लोग दो जून की रोटी नहीं जुटा पा रहे हैं, कुपोषण एक कडवी सच्चाई और उनके लिए कल्याणकारी योजनाएं भी जरूरी हैं। लेकिन वास्तविक हितग्राहियां की पहचान करना, खरीदे गए अनाज को उस तक पहुंचाने के व्यय को यदि नियोजित किया जाए तो इस मद का 25 फीसदी बजट को बचाना बेहद सरल है। एक साल में 25 से 30 लाख करोड़ को माफिया के हाथों में जाने से रेाकने के लिए कुछ तकनीकी, प्रशासनीक व नैतिक कार्यवाही समय की मांग है।
एक तरीका है कि हर साल कुछ लाख लोगों के खातों में पांच-पांच लाख जमा करवाए जाएं और उसके ब्याज से उनका खर्च चले। इस तरह मूल पूंजी बैंक से कमाध्यम से सरकार के पास होगी व गरीब परिवारों को सबसिडी नहीं देना होगी। वैसे हाल ही में केद्र सरकार की प्रत्येक सांसद द्वारा एक गांव को गोद लेने की योजना भी इसमें सकारात्मक भूमिका निभा सकती है।
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