यह तो जान लो कि जरूरत क्या है ?
पंकज चतुर्वेदी
युद्ध हो, भूकंप या बाढ़ या आतंकवादी हमला, भारत के नागरिकों की खासियत है कि ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण अवसरों पर उनके हाथ मदद व सहयेाग के लिए हर समय खुले रहते हैं। छोटे-छोटे गांव-कस्बे तक आम लोंगो ंसे इमदाद जुटाने के कैंप लग जाते हैं, गली-गली लोग झोली फैला कर घूमते हैं, अखबारों में फोटो छपते हैं कि मदद के ट्रक रवाना किऐ गए। फिर कुछ दिनों बाद आपदा ग्रस्त इलाकों के स्थानीय व राज्य प्रशासन की लानत-मनानत करने वाली खबरें भी छपती हैं कि राहत सामग्री लावारिस पड़ी रही व जरूरतमंदों तक पहुंची ही नहीं। हो सकता है कि कुछ जगह ऐसी कोताही भी होती हो, हकीकत तो यह है कि आम लोगों को यही पता नहीं होता है कि किस आपदा में किस समय किस तरह की मदद की जरूरत है। अब श्रीनगर-कश्मीर के जल प्लावन को ही लें, देशभर में कपड़ा-अनाज जोड़ा जा रहा है, और दीगर वस्तुएं जुटाई जा रही हैं, पैसा भी। यह जानने का कोई प्रयास नहीं कर रहा है कि आज वहां तत्काल किस चीज की जरूरत हैं।
श्रीनगर व घाटी की इन दिनों सबसे बड़ी समस्या है, भरे पानी को निकालना, कीचड़ हटाना, मरे जानवरों व इंसानों का निस्तारण करना और सफाई करना। इसके लिए तत्काल जरूरत है पानी के बड़े पंपों की, जेसीबी मशीन, टिप्पर व डंपर की, इंधन की, गेती-फावड़ा दस्ताने, गम बूट की। जब तक गंदगी, मलवा, पानी हटेगा नहीं, तब तक जीव को फिर से पटरी पर लाना मुश्किल है। यह भी तय है कि किसी भी सरकारी सिस्टम में इतनी भारी व महंगी मशीने तत्काल खरीदना संभव नहीं होता। यदि समाज के लोग इस तरह के औजार-उपकरण खरीद कर राज्य सरकार को भेंट दें तो पुनर्वास कार्य सही दिशा में चल पाएंगे। इसके साथ ही वहां जरूरत है साफ पीने के पानी की तो बगैर बिजली वाले फिल्टर, बड़े आरओ, बैटरी, इनवर्टर व आम लोगों के लिए मोमबत्तियां व माचिस की वहां बेहद जरूरत है। कारण, वहां बिजली की सप्लाई सामान्य करने में बहुत से अडंगे हैं। बिजली के तार खंभे, इंस्लेटर व उसे स्थापित करने वाला स्टाफ .... महीनों का काम है। ऐसे में छोटे जनरेटर, इन्वर्टर, बेहद महत्वपूर्ण हैं।
ऐसा नहीं है कि बड़ी व्यवस्थाएं जुटाने के लिए आम , पीडि़त लोगों का ध्यान ही नहीं रखा जाए। इन लोगों के लिए पीने के पानी की बोतलें, डेटाल, फिनाईल, नेफथेलीन की गोलियां, क्लोरिन की गोलियां, पेट में संक्रमण, बुखार जैसी बीमारियों की दवाएं, ग्लूकोज पाउडर, सेलाईन, औरतो के लिए सेनेटरी नेपकीन, फिलहाल तत्काल जरूरत की चीजें हैं। अब यदि आम लोग अपने घर के पुराने ऊनी कपडों की गठरियां या गेंहू चावल वहां भेजेेंगे तो तत्काल उसका इस्तेमाल हो नहीं पाएगा। परिणाम स्वरूप वे लावारिस सड़ते रहेंगे और हरी झंडे दिखा कर फोटो खिंचाने वाले लोग हल्ला करते रहेंगे कि मेहनत से जुटाई गई राहत सामग्री राज्य सरकार इस्तेमाल नहीं कर पाई। यदि हकीकत में ही कोई कुछ भेजना चाहता है तो सीमेंट, लोहा जैसी निर्माण सामग्री के ट्रक भेजने के संकल्प लेना होगा।
कश्मीर में ढाई लाख लोग अपने घर-गांव से विस्थापित हुए हैं। वहां के बाजार बह गए हैं। वाहन नष्ट हो गए हैं। ऐसे में हुए जान-माल के नुकसान के बीमा दावों का तत्काल व सही निबटारा एक बड़ी राहत होता है। चूंंकि राज्य सरकार का बिखरा-लुटा-पिटा अमला अभी खुद को ही संभालने में लगा है और वहां इससे उपज रहे असंतोष को भुनाने में हुरियत के कतिपय शैतान नेता चालें चल रहे हैं। हुए नुकसान के आकलन, दावों को प्रस्तुत करना, बीमा कंपनियों पर तत्काल भुगतान के लिए दवाब बनाने आदि कार्यों के लिए बहुत से पढ़े-लिखें लोगों की वहां जरूरत है। ऐसे लोगों की भी जरूरत है जो दूर दराज में हुए माल-असबाब के नुकसान की सूचना, सही मूल्यांकन को सरकार तक पहुंचा सकें व यह सुनिश्चित करें कि केंद या राज्य सरकार की किन योजनाआें का लाभ उन्हें मिल सकता है।
कश्मीर में स्कूल, बच्चों के बस्ते, किताबें सब कुछ सैलाब में बह गया है। इस समय कोई साठ हजार बच्चों को बस्ते, कापी-किताबों, पैंसिल, पुस्तकों की जरूरत है। इस बार नवरात्रि में कन्या भोज की जगह हर घर से यदि एक-एक बच्चे के लिए बस्ता, कंपास, टिफिन बाक्स, वाटर बोटल, पांच नोट बुक, पेन-पैंसिल का सैट वहां चला जा तो कश्मीर के भविश्य के सामने छाया धुंधलका छंटने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। वहां की पाठ्य पुस्तकों को फिर से छपवाना पड़ेगा, ब्लेक बोर्ड व फर्नीचर बनावाना पड़ेगा, । इसके लिए राज्य के छोटे-छोटे क्लस्टर में , मुहल्लों में संस्थागत या निजी तौर पर बच्चों के लिए काम करने की जरूरत है। इसके साथ उनके पौष्टिक आहार के लिए बिस्किट, सूखे मेवे जैसे खराब ना होने वाले भोज्य पदार्थ की मांग वहां है। सबसे बड़ी बात ठंड सिर पर खड़ी है और वहां 40 दिन बाद तापमान शून्य के नीचे होगा व ऐसे में खुले आसमान के नीचे रातें काटना मौत से मुलाकात के बराबर होगा। ऐसे में वहां वाटर प्रूफ टैंट की बड़ी जरूरत होगी।
यदि आवश्यकता के अनुरूप दान या मदद ना हो तो यह समय व संसाधन दोनेां का नुकसान ही होता है। यह सही है कि हमारे यहां आज तक इस बात पर कोई दिशा निर्देश बनाए ही नहीं गए कि आपदा की स्थिति में किस तरह की तात्कालिक तथा दीर्घकालिक सहयोग की आवश्यकता होती है। असल में यह कोई दान या मदद नहीं है, हम एक मुल्क का नागरिक होने का अपना फर्ज अदा करने के लिए अपने संकटग्रस्त देश
वासियों के साथ खड़े होते हैं। ऐसे में यदि हम जरूरत के मुताबिक काम करें तो हमारा सहयोग सार्थक होगा।
पंकज चतुर्वेदी
युद्ध हो, भूकंप या बाढ़ या आतंकवादी हमला, भारत के नागरिकों की खासियत है कि ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण अवसरों पर उनके हाथ मदद व सहयेाग के लिए हर समय खुले रहते हैं। छोटे-छोटे गांव-कस्बे तक आम लोंगो ंसे इमदाद जुटाने के कैंप लग जाते हैं, गली-गली लोग झोली फैला कर घूमते हैं, अखबारों में फोटो छपते हैं कि मदद के ट्रक रवाना किऐ गए। फिर कुछ दिनों बाद आपदा ग्रस्त इलाकों के स्थानीय व राज्य प्रशासन की लानत-मनानत करने वाली खबरें भी छपती हैं कि राहत सामग्री लावारिस पड़ी रही व जरूरतमंदों तक पहुंची ही नहीं। हो सकता है कि कुछ जगह ऐसी कोताही भी होती हो, हकीकत तो यह है कि आम लोगों को यही पता नहीं होता है कि किस आपदा में किस समय किस तरह की मदद की जरूरत है। अब श्रीनगर-कश्मीर के जल प्लावन को ही लें, देशभर में कपड़ा-अनाज जोड़ा जा रहा है, और दीगर वस्तुएं जुटाई जा रही हैं, पैसा भी। यह जानने का कोई प्रयास नहीं कर रहा है कि आज वहां तत्काल किस चीज की जरूरत हैं।
श्रीनगर व घाटी की इन दिनों सबसे बड़ी समस्या है, भरे पानी को निकालना, कीचड़ हटाना, मरे जानवरों व इंसानों का निस्तारण करना और सफाई करना। इसके लिए तत्काल जरूरत है पानी के बड़े पंपों की, जेसीबी मशीन, टिप्पर व डंपर की, इंधन की, गेती-फावड़ा दस्ताने, गम बूट की। जब तक गंदगी, मलवा, पानी हटेगा नहीं, तब तक जीव को फिर से पटरी पर लाना मुश्किल है। यह भी तय है कि किसी भी सरकारी सिस्टम में इतनी भारी व महंगी मशीने तत्काल खरीदना संभव नहीं होता। यदि समाज के लोग इस तरह के औजार-उपकरण खरीद कर राज्य सरकार को भेंट दें तो पुनर्वास कार्य सही दिशा में चल पाएंगे। इसके साथ ही वहां जरूरत है साफ पीने के पानी की तो बगैर बिजली वाले फिल्टर, बड़े आरओ, बैटरी, इनवर्टर व आम लोगों के लिए मोमबत्तियां व माचिस की वहां बेहद जरूरत है। कारण, वहां बिजली की सप्लाई सामान्य करने में बहुत से अडंगे हैं। बिजली के तार खंभे, इंस्लेटर व उसे स्थापित करने वाला स्टाफ .... महीनों का काम है। ऐसे में छोटे जनरेटर, इन्वर्टर, बेहद महत्वपूर्ण हैं।
ऐसा नहीं है कि बड़ी व्यवस्थाएं जुटाने के लिए आम , पीडि़त लोगों का ध्यान ही नहीं रखा जाए। इन लोगों के लिए पीने के पानी की बोतलें, डेटाल, फिनाईल, नेफथेलीन की गोलियां, क्लोरिन की गोलियां, पेट में संक्रमण, बुखार जैसी बीमारियों की दवाएं, ग्लूकोज पाउडर, सेलाईन, औरतो के लिए सेनेटरी नेपकीन, फिलहाल तत्काल जरूरत की चीजें हैं। अब यदि आम लोग अपने घर के पुराने ऊनी कपडों की गठरियां या गेंहू चावल वहां भेजेेंगे तो तत्काल उसका इस्तेमाल हो नहीं पाएगा। परिणाम स्वरूप वे लावारिस सड़ते रहेंगे और हरी झंडे दिखा कर फोटो खिंचाने वाले लोग हल्ला करते रहेंगे कि मेहनत से जुटाई गई राहत सामग्री राज्य सरकार इस्तेमाल नहीं कर पाई। यदि हकीकत में ही कोई कुछ भेजना चाहता है तो सीमेंट, लोहा जैसी निर्माण सामग्री के ट्रक भेजने के संकल्प लेना होगा।
कश्मीर में ढाई लाख लोग अपने घर-गांव से विस्थापित हुए हैं। वहां के बाजार बह गए हैं। वाहन नष्ट हो गए हैं। ऐसे में हुए जान-माल के नुकसान के बीमा दावों का तत्काल व सही निबटारा एक बड़ी राहत होता है। चूंंकि राज्य सरकार का बिखरा-लुटा-पिटा अमला अभी खुद को ही संभालने में लगा है और वहां इससे उपज रहे असंतोष को भुनाने में हुरियत के कतिपय शैतान नेता चालें चल रहे हैं। हुए नुकसान के आकलन, दावों को प्रस्तुत करना, बीमा कंपनियों पर तत्काल भुगतान के लिए दवाब बनाने आदि कार्यों के लिए बहुत से पढ़े-लिखें लोगों की वहां जरूरत है। ऐसे लोगों की भी जरूरत है जो दूर दराज में हुए माल-असबाब के नुकसान की सूचना, सही मूल्यांकन को सरकार तक पहुंचा सकें व यह सुनिश्चित करें कि केंद या राज्य सरकार की किन योजनाआें का लाभ उन्हें मिल सकता है।
कश्मीर में स्कूल, बच्चों के बस्ते, किताबें सब कुछ सैलाब में बह गया है। इस समय कोई साठ हजार बच्चों को बस्ते, कापी-किताबों, पैंसिल, पुस्तकों की जरूरत है। इस बार नवरात्रि में कन्या भोज की जगह हर घर से यदि एक-एक बच्चे के लिए बस्ता, कंपास, टिफिन बाक्स, वाटर बोटल, पांच नोट बुक, पेन-पैंसिल का सैट वहां चला जा तो कश्मीर के भविश्य के सामने छाया धुंधलका छंटने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। वहां की पाठ्य पुस्तकों को फिर से छपवाना पड़ेगा, ब्लेक बोर्ड व फर्नीचर बनावाना पड़ेगा, । इसके लिए राज्य के छोटे-छोटे क्लस्टर में , मुहल्लों में संस्थागत या निजी तौर पर बच्चों के लिए काम करने की जरूरत है। इसके साथ उनके पौष्टिक आहार के लिए बिस्किट, सूखे मेवे जैसे खराब ना होने वाले भोज्य पदार्थ की मांग वहां है। सबसे बड़ी बात ठंड सिर पर खड़ी है और वहां 40 दिन बाद तापमान शून्य के नीचे होगा व ऐसे में खुले आसमान के नीचे रातें काटना मौत से मुलाकात के बराबर होगा। ऐसे में वहां वाटर प्रूफ टैंट की बड़ी जरूरत होगी।
यदि आवश्यकता के अनुरूप दान या मदद ना हो तो यह समय व संसाधन दोनेां का नुकसान ही होता है। यह सही है कि हमारे यहां आज तक इस बात पर कोई दिशा निर्देश बनाए ही नहीं गए कि आपदा की स्थिति में किस तरह की तात्कालिक तथा दीर्घकालिक सहयोग की आवश्यकता होती है। असल में यह कोई दान या मदद नहीं है, हम एक मुल्क का नागरिक होने का अपना फर्ज अदा करने के लिए अपने संकटग्रस्त देश
जनसंदेश टाईम्स, उप्र 13ञ10ञ14http://www.jansandeshtimes.in/index.php?spgmGal=Uttar_Pradesh/Varanasi/Varanasi/13-10-2014&spgmPic=9 |
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