हमारे देश के मानसिक रोग अस्पताल सौ साल पुराने पागलखाने के खौफनाक रूप से ही जाने जाते हैं। ये जर्जर, डरावनी और संदिग्ध इमारतें मानसिक रोगियों की यंत्रणाओं, उनके प्रति समाज के उपेक्षित रवैए और सरकारी उदासीनता की मूक गवाह हैं। मानसिक विक्षिप्त लोगों को समाज से दूर ऊंची चहारदीवारियों में नारकीय जीवन जीने को मजबूर करना क्या मौलिक अधिकारों का हनन नहीं है? अदालत से सजायाफ्ता आजीवन कैदी तो कुछ साल बाद छूट भी जाता है, लेकिन पागलखानों से मुक्ति कतई संभव नहीं है...
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Daily News activist, Lucknow, 16-1-15 |
बढ़ती जरूरतें, जिंदगी में बढ़ती भागदौड़, रिश्तों के बंधन ढीले होना- इस दौर की कुछ ऐसी त्रासदियां हैं, जो इंसान को भीतर ही भीतर खाए जा रही हैं। ये सब ऐसे विकारों को आमंत्रित कर रहा है, जिनके प्रारंभिक लक्षण नजर नहीं आते हैं, जब मर्ज बढ़ जाता है तो बहुत देर हो चुकी होती है। विडंबना है कि सरकार में बैठे नीति-निर्धारक मानसिक बीमारियों को अभी भी गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। इसे हास्यास्पद कहें या शर्म कि ‘जय विज्ञान’ के युग में मनोविकारों को एक रोग के बनिस्पत ऊपरी व्याधा या नियति समझने वालों की संख्या बहुत अधिक है। तभी ऐसे रोगों के इलाज के लिए डाक्टरों के बजाय पीर-फकीरों, मजार-मंदिरों पर अधिक भीड़ होती है। सामान्य डाक्टर मानसिक रोगों को पहचानने और रोगियों को मनोचिकित्सक के पास भेजने में असमर्थ रहते हैं। इसके चलते ओझा, पुरोहित, मौलवी व तथाकथित यौन विशेषज्ञ अवैध रूप से मनोचिकित्सक बन दुष्कार्य कर रहे हैं ।नंग-धड़ंग, सिर पर कचरे का बोझ, जहां कहीं जगह मिली सो गए, कुछ भी खा लिया, किसी ने छेड़ा तो पत्थर चला दिए। भारत के हर शहर-कस्बे में ऐसे महिला या पुरुष चरित्र देखने को मिल जाते हैं। आम लोगों की निगाह में ये भूत-प्रेत के प्रकोपधारी, मजनू, बदमाश या फिर देशी-विदेशी जासूस होते हैं । यह विडंबना है कि वे जो हैं, उसे न तो उनके अपने स्वीकारते हैं और न ही पराए। शरीर के अन्य विकारों की तरह मस्तिष्क अव्यवस्थित होने के कारण बीमार ये मानसिक रोगी! इसी तरह महानगर की सड़कों पर आएदिन छोटी-छोटी बात पर खून-खराबा, गलत निर्णय- ये सब भी मानसिक असंतुलन का ही नतीजा होता है।यह सुखद है कि केंद्र की नई सरकार ने आजादी के बाद पहली बार राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति की घोषणा की है। मानसिक रूप से बीमार लोगों की देखभाल के लिए बनाए गए पूर्व कानून जैसे भारतीय पागलखाना अधिनियम, 1858 और भारतीय पागलपन अधिनियम 1912 में मानवाधिकार के पहलू की उपेक्षा की गई थी और केवल पागलखाने में भर्ती मरीजों पर ही विचार किया गया था। पागलपन कानून 1912 के तहत अदालती प्रमाण पत्र के जरिए रोगियों को केवल पागलखानों में इलाज की सीमा तय की गई थी। लेकिन 1987 में इस कानून में बदलाव किया गया और मरीज को खुद की इच्छा पर भर्ती होने, सामान्य अस्पतालों में भी इलाज कराने जैसी सुविधाएं दी गई हैं। आजादी के बाद भारत में इस संबंध में पहला कानून बनाने में 31 वर्ष का समय लगा और उसके 9 वर्ष के उपरांत मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987 अस्तित्व में आया। परंतु इस अधिनियम में कई खामियां होने के कारण इसे कभी भी किसी राज्य एवं केंद्र शासित प्रदेश में लागू नहीं किया गया। विश्व स्वास्थ संगठन ने ‘स्वास्थ्य’ की परिभाषा में स्पष्ट किया है कि ‘शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से स्वास्थ्य की अनुकूल चेतना। न कि केवल बीमारी की गैर मौजूदगी।’ इस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य, एक स्वस्थ शरीर का जरूरी हिस्सा है। यह हमारे देश की कागजी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में भी दर्ज है। वैसे 1982 में मानसिक स्वास्थ कार्यक्रम शुरू हुआ था । एक दस्तावेज के मुताबिक करीब तेरह करोड़ भारतीयों को किसी न किसी रूप में मानसिक चिकित्सा की जरूरत है। प्रत्येक हजार जनसंख्या में दस से बीस लोग जटिल मानसिक रोगों से ग्रस्त हैं। जबकि दुखदाई और आर्थिक अक्षमता पैदा करने वाले भावुक रोगों के शिकार लोगों की संख्या इसकी तीन से पांच गुना है। आम डाक्टर के पास आने वाले आधे मरीज उदासी, भूख, नींद, और सेक्स इच्छा में कमी आना, हस्त मैथुन, स्वप्न दोष जैसी शिकायतें ले कर आते हैं। वास्तव में वे किसी न किसी मानसिक रोग के शिकार होते हैं। इतने लोगों के इलाज के लिए कोई बत्तीस हजार मनोचिकित्सकों की जरूरत है, जबकि देशभर में इनकी संख्या बमुश्किल साढ़े तीन हजार है और इनमें भी तीन हजार तो चार महानगरों तक ही सिमटे हैं। सन 1795 में पाइनल नामक व्यक्ति ने पेरिस में मानसिक रोगियों का मानवीय संवेदनाओं के साथ इलाज करना शुरू किया था। इससे पहले ऐसे रोगियों को जंजीरों से जकड़ कर रखा जाता था। देखा गया कि ऐसे मरीज उत्तेजित होकर तोड़-फोड़ करते थे। पाइनल का प्रयोग सफल रहा। इसी सामाजिक सुधार से प्रेरित होकर अमेरिका में बेंजामिन रश और ब्रिटेन में कोनोली व ट्यूक ने मनोरोगियों की ‘सामाजिक मनोविकार चिकित्सा’ शुरू की।दिनोंदिन बढ़ रही भौतिक लिप्सा और उससे उपजे तनावों व भागमभाग की जिंदगी के चलते भारत में मानसिक रोगियों की संख्या पश्चिमी देशों से भी ऊपर जा रही है। विशेष रूप से महानगरों में ऐसे रोग कुछ अधिक ही गहराई से पैठ कर चुके हैं। दहशत और भय के इस रूप को फोबिया कहा जाता है। इसकी शुरुआत होती है चिड़चिडे़पन से। बात-बात पर बिगड़ना और फिर जल्द से लाल-पीला हो जाना, ऐसे रोगियों की आदत बन जाती हैं। काम से जी चुराना, बहस करना और खुद को सच्चा साबित करना- इनके प्रारंभिक लक्षण हैं। भय की कल्पनाएं इन लोगों को इतना जकड़ लेती हैं कि उनका व्यवहार बदल जाता है, जल्द ही दिमाग प्रभावित होता है और पनप उठते हैं मानसिक रोग। जहां एक ओर मर्ज बढ़ता जा रहा है, वहीं हमारे देश के मानसिक रोग अस्पताल सौ साल पुराने पागलखाने के खौफनाक रूप से ही जाने जाते हैं। ये जर्जर, डरावनी और संदिग्ध इमारतें मानसिक रोगियों की यंत्रणाओं, उनके प्रति समाज के उपेक्षित रवैए और सरकारी उदासीनता की मूक गवाह हैं। मानसिक विक्षिप्त लोगों को समाज से दूर ऊंची चहारदीवारियों में नारकीय जीवन जीने को मजबूर करना क्या मौलिक अधिकारों का हनन नहीं है? छोटे-छोटे दड़बेनुमा जेल की कोठरियां। वहां जानवरों से भी बदतर भरे मरीज, कहीं पेड़ या खंभों से बंधे महिला-पुरुष। उनकी देखभाल के लिए सरकार से मोटा वेतन पा रहे लोगों के अमानवीय अत्याचार। अधिकांश रोगियों के लिए तो यह ताजिंदगी सजा है। अदालत से सजायाफ्ता आजीवन कैदी तो कुछ साल बाद छूट भी जाता है, लेकिन पागलखानों से मुक्ति कतई संभव नहीं है। अलबत्ता तो वहां का माहौल उन्हें ठीक होने नहीं देता है, यदि कोई ठीक हो जाए समाज उन्हें स्वीकार नहीं करता है। फलस्वरूप एक बार सींखचों के पीछे जाना यानी मौत होने तक शेष दुनिया से कट जाना होता है। चाहे बिल्लोज पुरा, आगरा का पागलखाना हो या बरेली, रांची का या फिर शाहदरा, दिल्ली का मनोरोग अस्पताल- कोई भी अपने रोगियों के हितों व अधिकारों की रक्षा करने में सफल नहीं रहा है। यहां ऐसे रोगियों की संख्या सैंकड़ों में है, जो पिछले 35-40 सालों से कैद हैं। कहीं जमीन-जायदाद पर कब्जा करने के लिए अपने ही रिश्तेदारों को पागल ठहराने की साजिश है तो कहीं सामाजिक रुतबे में ‘पागलखाना रिटर्न’ का धब्बा लगने की हिचक। मरीज ठीक हो गया, लेकिन घर वालों ने अपने पते ही गलत लिखवाए। कई मरीज तो इस त्रासदी के कारण ठीक होने के बाद फिर से अपना मानसिक संतुलन खो देते हैं।देश के मानसिक स्वास्थ कार्यक्रम-1982 में रोगियों के पुनर्वास, इसके कारणों पर नियंत्रण, दूरस्थ अंचलों के डाक्टरों को विशेष ट्रेनिंग सहित न जाने क्या-क्या लुभावने कार्यक्रम दर्ज हैं। लेकिन वास्तविकता के धरातल पर मानसिक रोगी सरकार व समाज दोनों की हेयदृष्टि से आहत हैं। हमारे देश की एक अरब को पार कर गई आबादी के लिए केवल 43 सरकारी मानसिक रोग अस्पताल हैं, इनमें से मनोवैज्ञानिक इलाज की व्यवस्था महज तीन जगह ही है। इन अस्पतालों में 21,000 बिस्तर हैं जो जरूरत का एक फीसदी भी नहीं है। देशभर में महज 2219 मानसिक रोग चिकित्सक उपलब्ध हैं जबकि जरूरत है 9696 की। यहां तक कि जरूरत की पचास फीसदी नर्स भी उपलब्ध नहीं हैं। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ कार्यक्रम की एक रिपोर्ट भी इस बात का प्रमाण है कि ऐसे रोगियों की बड़ी संख्या इलाज का खर्च उठाने में असमर्थ है। सरकारी अस्पतालों के नारकीय माहौल में जाना उनकी मजबूरी होता है। अनुमान है कि भारत में कोई सात करोड़ लोग छोटे-बड़े मानसिक रोग के शिकार हैं जबकि देश के स्वास्थ्य बजट का महज 0.06 फीसदी ही मानसिक रोग के मद में जाता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग मानता रहा है कि देशभर के पागलखानों की हालत बदतर है। इसे सुधारने के लिए कुछ साल पहले बंगलौर के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ और चेतना विज्ञान संस्थान में एक परियोजना शुरू की गई थी। लेकिन उसके किसी सकारात्मक परिणाम की जानकारी नहीं है। यह परियोजना भी नाकाफी संसाधनों का रोना रोते हुए फाइलों में ठंडी हो गई। वैसे तो 1987 में सुप्रीम कोर्ट भी मानसिक अस्पतालों में बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध करवाने के निर्देश दे चुका है। आदेश के बाद दो-चार दिन तो सरकार सक्रिय दिखी, पर स्थितियों में लेशमात्र सुधार नहीं हुआ। बानगी के तौर पर देश के सबसे पुराने आगरा के पागलखाने के हालात को देखें। 40 एकड़ में फैले इस पागलखाने के रखरखाव का सालाना बजट मात्र ढाई लाख है। यहां स्टाफ तो 500 का है, लेकिन डाक्टर व नर्स मिला कर 30 कर्मचारी भी नहीं हैं। अधिकांश डाक्टरों के वहीं पास में निजी क्लानिक हैं। वैसे यहां 400 से अधिक मरीज नहीं रखे जा सकते, पर इनकी संख्या कभी भी 700 से कम नहीं रही है। इतने मरीजों को साल भर खाना देने का बजट मात्र 14 लाख और कपड़ों पर व्यय की सीमा दो लाख रुपए है। साढ़े तीन सौ मुस्टंडे अटेंडेंट, जिनके आतंक से रोगी थर-थर कांपते हैं, की मौजूदगी में मरीजों के तन तक क्या पहुंचता होगा, इसकी कल्पना ही रोंगटे खड़े कर देती है। एक तो अभी तक ऐसा पाठ्यक्रम स्कूली शिक्षा में शामिल नहीं कर पाए हैं, जो कि मानसिक रोगों को अन्य बीमारियों की तरह सामान्य रोग बताने में सफल हो। दूसरा इसके प्रति जागरूकता के लिए सरकार व समाज की सुप्तावस्था भी है। हमारे देश में कुत्ते-बिल्लियों की ठीक तरह से देखभाल के लिए अखबारों में नियमित कालम छपते हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर भी वे प्राथमिकता से हैं। लेकिन मानव योनि में जन्मे, किन्हीं हालातों के शिकार हो कर मानसिक संतुलन खोए लोगों के पशु से भी बदतर जीवन पर न तो सरकार गंभीर है और न ही समाज संवेदनशील!
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