भावुकता और नारों से नहीं बचेगी गाय
पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकारFदैनिक हिंदुस्तान ०२ जनवरी २०१५ http://epaper.livehindustan.com/ |
गाय हमारी माता है, गाय को बचाना है, गाय देश की पहचान है- जैसे नारे समय-समय पर सुनाई पड़ते रहते हैं। सड़क पर ट्रकों में लदी गायों को पुलिस से पकड़वा करके, उन गाड़ियों में आग लगाकर व कुछ एक को पीटकर लोग मान लेते हैं कि उन्होंने गौ-सेवा का पुण्य कमा लिया। लेकिन आंकड़े कुछ और बताते हैं। हमारे गांवों में बैल आधारित खेती की जोत तेजी से घटती हुई लगभग खत्म हो रही है। हमारी गाय दुनिया में सबसे कम दूध देने वाली गाय है। लगातार बंट रहे परिवारों के कारण ग्रामीण अंचलों में घर के आकार छोटे हो रहे हैं। ऐसे में, गाय-बैल को रखने की जगह निकालना काफी कठिन होता जा रहा है। जब तक ऐसी व्यावहारिक बातों को सामने रखकर गो-धन संरक्षण की बात नहीं होगी, तब तक यह कार्य किसी कथा-वाचक के भागवत वाचन की ही तरह होगा, जहां कथा सुनते समय तो भक्तगण भाव-विभोर होते हैं। लेकिन वहां से बाहर निकलकर वे अपनी उसी दुनियादारी में वापस लौट जाते हैं, जिससे मुक्ति की खोज के लिए वे उस कथा में गए थे।
सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि हमारे यहां अब भी गाय को ‘दान की बछिया’ ही माना जाता है। जाहिर है कि भारत में गाय पालना बेहद घाटे का सौदा है। जब गाय दूध देती है, तब तो पालक उसे घर रखता है और जब वह सूख जाती है, तो सड़क पर छोड़ देता है। बारिश के दिनों में गायों को कहीं सूखी जगह बैठने को नहीं मिलती, वे मक्खियों व अन्य कीटों से तंग रहती हैं, सो राजमार्गों पर कुनबे सहित बैठी होती हैं। विडंबना है कि हर दिन इस तरह मुख्य सड़क पर बैठी या टहलती गायों की असामयिक मौतें होती हैं और उनकी चपेट में आकर इंसान भी चोटिल होते हैं और इस तरह आवारा गायें आम लोगों की संवेदना खो देती हैं। गायों की रक्षा के लिए धार्मिक उद्धरण देने या इसे भावुक जुमलों में उलझाने की बजाय इसके लिए कई जरूरी कदम उठाए जाने चाहिए। सबसे पहले तो भारतीय गाय की नस्ल सुधारने, उसकी दूध-क्षमता बढ़ाने के वैज्ञानिक प्रयास किए जाने जरूरी हैं।
कुछ हद तक गायों की विदेशी नस्लों पर पाबंदी लगे व देशी नस्ल को विकसित किया जाए। कुछ कार्या, जैसे पूजा, बच्चों के मिल्क पाउडर आदि में गाय के दूध, घी आदि की अनिवार्यता करने से गाय के दूध की मांग बढ़ेगी और इससे गो-पालक भी उत्साहित होंगे। गो-मूत्र व गोबर को अलग से संरक्षित करने व उनसे निर्मित खाद व कीट नाशकों का व्यावसायिक उत्पादन हो, ताकि पशु पालक को इससे भी कुछ आय हो और वे उसे आवारा न छोड़ें। गायों के संरक्षण के साथ हमें बैल का उपयोग बढ़ाने पर भी लगातार सोचना होगा। अगर हम गाय को सचमुच बचाना चाहते हैं, तो हमें इसकी धार्मिकता नहीं, इसकी आर्थिकी को मजबूत बनाना होगा। ग्रामीण और कस्बायी अर्थव्यवस्था में गाय को महत्वपूर्ण स्थान देकर ही उसे बचाया जा सकता है।
सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि हमारे यहां अब भी गाय को ‘दान की बछिया’ ही माना जाता है। जाहिर है कि भारत में गाय पालना बेहद घाटे का सौदा है। जब गाय दूध देती है, तब तो पालक उसे घर रखता है और जब वह सूख जाती है, तो सड़क पर छोड़ देता है। बारिश के दिनों में गायों को कहीं सूखी जगह बैठने को नहीं मिलती, वे मक्खियों व अन्य कीटों से तंग रहती हैं, सो राजमार्गों पर कुनबे सहित बैठी होती हैं। विडंबना है कि हर दिन इस तरह मुख्य सड़क पर बैठी या टहलती गायों की असामयिक मौतें होती हैं और उनकी चपेट में आकर इंसान भी चोटिल होते हैं और इस तरह आवारा गायें आम लोगों की संवेदना खो देती हैं। गायों की रक्षा के लिए धार्मिक उद्धरण देने या इसे भावुक जुमलों में उलझाने की बजाय इसके लिए कई जरूरी कदम उठाए जाने चाहिए। सबसे पहले तो भारतीय गाय की नस्ल सुधारने, उसकी दूध-क्षमता बढ़ाने के वैज्ञानिक प्रयास किए जाने जरूरी हैं।
कुछ हद तक गायों की विदेशी नस्लों पर पाबंदी लगे व देशी नस्ल को विकसित किया जाए। कुछ कार्या, जैसे पूजा, बच्चों के मिल्क पाउडर आदि में गाय के दूध, घी आदि की अनिवार्यता करने से गाय के दूध की मांग बढ़ेगी और इससे गो-पालक भी उत्साहित होंगे। गो-मूत्र व गोबर को अलग से संरक्षित करने व उनसे निर्मित खाद व कीट नाशकों का व्यावसायिक उत्पादन हो, ताकि पशु पालक को इससे भी कुछ आय हो और वे उसे आवारा न छोड़ें। गायों के संरक्षण के साथ हमें बैल का उपयोग बढ़ाने पर भी लगातार सोचना होगा। अगर हम गाय को सचमुच बचाना चाहते हैं, तो हमें इसकी धार्मिकता नहीं, इसकी आर्थिकी को मजबूत बनाना होगा। ग्रामीण और कस्बायी अर्थव्यवस्था में गाय को महत्वपूर्ण स्थान देकर ही उसे बचाया जा सकता है।
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