गांवो से बढ़ते पलायन के कारण बढ़ते ‘‘अरबन स्लम’’
prabhat, meerut, 31-5-15 |
पंकज चतुर्वेदी
‘आजादी के बाद भारत की सबसे बड़ी त्रासदी किसको कहा जा सकता है ?’ यदि इस सवाल का जवाब ईमानदारी से खोजा जाए तो वह होगा -कोई पचास करोड़ लोगों का अपने पुष्तैनी घर, गांव, रोजगार से पलायन। और ‘आने वाले दिनों की सबसे भीशण त्रासदी क्या होगी ?’ आर्थिक-सामाजिक ढ़ांचे में बदलाव का अध्ययन करें तो जवाब होगा- पलायन से उपजे षहरों का --अरबन-स्लम’ में बदलना। देष की लगभग एक तिहाई आबादी 31.16 प्रतिषत अब षहरों में रह रही हैं। 2011 की जनगणना के आंकड़े गवाह हैं कि गांव छोड़ कर षहर की ओर जाने वालों की संख्या बढ़ रही है और अब 37 करोड 70 लाख लोग षहरों के बाषिंदे हैं । सन 2001 और 2011 के आंकड़ों की तुलना करें तो पाएंगे कि इस अवधि में षहरों की आबादी में नौ करोड़ दस लाख का इजाफा हुआ जबकि गांवंों की आबादी नौ करोड़ पांच लाख ही बढ़ी। और अब 16वीं लोकसभा के चुनाव में दोनों बड़े दलों ने अपने घोशणा पत्रों में कहीं ना कहीं नए षहर बसाने की बात कही है।
देष के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में सेवा क्षेत्र का योगदान 60 फीसदी पहंुच गया है जबकि खेती की भूमिका दिनो-दिन घटते हुए 15 प्रतिषत रह गई है। जबकि गांवोे की आबादी अभी भी कोई 68.84 करोड़ है यानी देष की कुल आबादी का दो-तिहाई। यदि आंकड़ों को गौर से देखें तो पाएंगे कि देष की अधिकांष आबादी अभी भी उस क्षेत्र में रह रही है जहां का जीडीपी षहरों की तुलना में छठा हिस्सा भी नहीं है। यही कारण है कि गांवों में जीवन-स्तर में गिरावट, षिक्षा, स्वास्थ्य, मूलभूत सुविधाओं का अभाव, रोजगार की कमी है और लोगों बेहतर जीवन की तलाष में षहरों की ओर आ रहे हैं। षहर बनने की त्रासदी की बानगी है सबसे ज्यादा सांसद देने वाला राज्य उत्तर प्रदेष । बीती जनगणना में यहां की कुल आबादी का 80 फीसदी गांवों में रहता था और इस बार यह आंकड़ा 77.7 प्रतिषत हो गया। बढ़ते पलायान के चलते 2011 में राज्य की जनसंख्या की वृद्धि 20.02 रही , इसमें गांवों की बढौतरी 18 प्रतिषत है तो षहरों की 28.8। सनद रहे पूरे देष में षहरों में रहने वाले कुल 7.89 करोड परिवारों में से 1.37 करोड झोपड़-झुग्गी में रहते हैं और देष के 10 सबसे बड़े षहरी स्लमों में मेरठ व आगरा का षुमार है। मेरठ की कुल आबादी का 40 फीसदी स्लम में रहता है, जबकि आगरा की 29.8 फीसदी आबादी झोपड-झुग्गी में रहती है।
राजधानी दिल्ली में जन सुविधाएं, सार्वजनिक परिवहन और सामाजिक ढांचा - सब कुछ बुरी तरह चरमरा गया है। कुल 1483 वर्ग किमी में फैले इस महानगर की आबादी कोई सवा करोड़ से अधिक हो चुकी है। हर रोज तकरीबन पांच हजार नए लोग यहां बसने आ रहे हैं। अब यहां का माहौल और अधिक भीड को झेलने में कतई समर्थ नहीं हैं। ठीक यही हाल देश के अन्य सात महानगरों, विभिन्न प्रदेश की राजधानियों और औद्योगिक वस्तियों का है। इसके विपरीत गांवों में ताले लगे घरों की संख्या में दिनों-दिन इजाफा हो रहा है। देश की अर्थव्यवस्था का कभी मूल आधार कही जाने वाली खेती और पशु-पालन के व्यवसाय पर अब मशीनधारी बाहरी लोगों का कब्जा हो रहा है। उधर रोजगार की तलाश में गए लोगों के रंगीन सपने तो चूर हो चुके हैं, पर उनकी वापसी के रास्ते जैसे बंद हो चुके हैं। गांवों के टूटने और शहरों के बिगडने से भारत के पारंपरिक सामाजिक और आर्थिक संस्कारों का चेहरा विद्रूप हो गया है। परिणामतः भ्रष्टाचार, अनाचार, अव्यवस्थाओं का बोलबाला है।
षहर भी दिवास्वप्न से ज्यादा नही ंहै, देष के दीगर 9735 षहर भले ही आबादी से लबालब हों, लेकिन उनमें से मात्र 4041 को ही सरकारी दस्तावेज में षहर की मान्यता मिली हे। षेश 3894 षहरों में षहर नियोजन या नगर पालिका तक नहीं है। यहां बस खेतों को उजाड़ कर बेढब अधपक्के मकान खड़े कर दिए गए हैं जहां पानी, सड़क, बिजली आदि गांवों से भी बदतर हे। सरकार कारपोरेट को बीते पांच साल में कोई 21 लाख करोड़ की छूट बांट चुकी है। वहीं हर साल पचास हजार करोड़ कीमत की खाद्य सामग्री हर साल माकूल रखरखाव के अभाव में नश्ट हो जाती है और सरकार को इसकी फिकर तक नहीं होती। बीते साल तो सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका कि यदि गोदामों में रखो अनाज को सहजे नहीं सकते हो तो उसे गरीबों को बांट दो, लेकिन इसके लिए हुक्मरान तैयार नहीं है। विकास और सबसिडी का बड़ा हिस्सा षहरी आबादी के बीच बंटने से विशमता की खाई बड़ी होती जा रही है।
शहरीकरण की त्रासदी केवल वहां के बाशिंदें ही नहीं झेलते हैं, बल्कि उन गांवों को अधिक वेदना सहनी होती है, जिन्हें उदरस्थ कर शहर के सुरसा-मुख का विस्तार होता है। शहर, गांवों की संस्कृति, सभ्यता और पारंपरिक सामाजिक ढांचे के क्षरण के तो जिम्मेदार होते ही हैं, गांव की अर्थनीति के मूल आधार खेती को चैपट भी करते हैं। किसी शहर को बसाने के लिए आस-पास के गांवों के खेतों की बेशकीमती मिट्टी को होम किया जाता है। खेत उजड़ने पर किसान या तो शहरों में मजदूरी करने लगता है या फिर मिट्टी की तात्कालिक अच्छी कीमत हाथ आने पर कुछ दिन तक ऐश करता है। फिर आने वाली पीढियों के लिए दुर्भाग्य के दिन शुरु हो जाते हैं।
कोई एक दषक पहले दिल्ली नगर निगम द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट महान चिंतक कार्ल माक्र्स की उस चर्चित उक्ति की पुष्टि करती है, जिसमें उन्होने कहा था कि अपराथ, वेश्यावृति तथा अनैतिकता का मूल कारण भूख व गरीबी होता है। निगम के स्लम तथा जे जे विभाग की रिपोर्ट में कहा गया है कि राजधानी में अपराधों में ताबडतोड बढ़ौतरी के सात मुख्य कारण हैं - अवांछित पर्यावरण, उपेक्षा तथा गरीबी, खुले आवास, बडा परिवार, अनुशासनहीनता व नई पीढी का बुजुर्गों के साथ अंतर्विरोध और नैतिक मूल्यों में गिरावट। वास्तव में यह रिपोर्ट केवल दिल्ली ही नहीं अन्य महानगरों और शहरों में भी बढ़ते अपराधों के कारणों का खुलासा करती है। ये सभी कारक शहरीकरण की त्रासदी की सौगात हैं।
गांवों में ही उच्च या तकनीकी शिक्षा के संस्थान खोलना, स्थानीय उत्पादों के मद्देनजर ग्रामीण अंचलों में छोटे उद्योगों को बढ़ावा देना, खेती के पारंपरिक बीज खाद और दवाओं को प्रोत्साहित करना, ये कुछ ऐसे उपाय हैं जिनके चलते गांवों से युवाओं के पलायन को रोका जा सकता है । इस राष्ट्रीय समस्या के निदान में पंचायत समितियां अहमं भूमिका निभा सकती हैं । पंचायत संस्थाओं में आरक्षित वर्गो की सक्रिय भागीदारी कुछ हद तक सामंती शोषण पर अंकुश लगा सकती , जबकि पानी ,स्वास्थ्य, सड़क, बिजली सरीखी मूलभूत जरूरतेंा की पूर्ति का जिम्मा स्थानीय प्रशासन को संभालना होगा ।
विकास के नाम पर मानवीय संवेदनाओं में अवांछित दखल से उपजती आर्थिक विषमता, विकास और औद्योगिकीकरण की अनियोजित अवधारणाएं और पारंपरिक जीवकोपार्जन के तौर-तरीकेां में बाहरी दखल- शहरों की ओर पलायन को प्रोत्साहित करने वाले तीन प्रमुख कारण हैं । इसके लिए सरकार और समाज दोनो को साझा तौर पर आज और अभी चेतना होगा ।, अन्यथा कुछ ही वर्षों में ये हालात देश की सबसे बड़ी समस्या का कारक बनेंगें - जब प्रगति की कहानी कहने वाले महानगर बेगार,लाचार और कुंठित लोगों से ठसा-ठस भरे होंगे, जबकि देश का गौरव कहे जाने वाले गांव मानव संसाधन विहीन पंगु होंगे ।
पंकज चतुर्वेदी
यूजी-1, 3/186 ए राजेन्द्र नगर
सेक्टर-2
साहिबाबाद
गाजियाबाद 201005
9891928376, 0120-4241060
‘आजादी के बाद भारत की सबसे बड़ी त्रासदी किसको कहा जा सकता है ?’ यदि इस सवाल का जवाब ईमानदारी से खोजा जाए तो वह होगा -कोई पचास करोड़ लोगों का अपने पुष्तैनी घर, गांव, रोजगार से पलायन। और ‘आने वाले दिनों की सबसे भीशण त्रासदी क्या होगी ?’ आर्थिक-सामाजिक ढ़ांचे में बदलाव का अध्ययन करें तो जवाब होगा- पलायन से उपजे षहरों का --अरबन-स्लम’ में बदलना। देष की लगभग एक तिहाई आबादी 31.16 प्रतिषत अब षहरों में रह रही हैं। 2011 की जनगणना के आंकड़े गवाह हैं कि गांव छोड़ कर षहर की ओर जाने वालों की संख्या बढ़ रही है और अब 37 करोड 70 लाख लोग षहरों के बाषिंदे हैं । सन 2001 और 2011 के आंकड़ों की तुलना करें तो पाएंगे कि इस अवधि में षहरों की आबादी में नौ करोड़ दस लाख का इजाफा हुआ जबकि गांवंों की आबादी नौ करोड़ पांच लाख ही बढ़ी। और अब 16वीं लोकसभा के चुनाव में दोनों बड़े दलों ने अपने घोशणा पत्रों में कहीं ना कहीं नए षहर बसाने की बात कही है।
देष के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में सेवा क्षेत्र का योगदान 60 फीसदी पहंुच गया है जबकि खेती की भूमिका दिनो-दिन घटते हुए 15 प्रतिषत रह गई है। जबकि गांवोे की आबादी अभी भी कोई 68.84 करोड़ है यानी देष की कुल आबादी का दो-तिहाई। यदि आंकड़ों को गौर से देखें तो पाएंगे कि देष की अधिकांष आबादी अभी भी उस क्षेत्र में रह रही है जहां का जीडीपी षहरों की तुलना में छठा हिस्सा भी नहीं है। यही कारण है कि गांवों में जीवन-स्तर में गिरावट, षिक्षा, स्वास्थ्य, मूलभूत सुविधाओं का अभाव, रोजगार की कमी है और लोगों बेहतर जीवन की तलाष में षहरों की ओर आ रहे हैं। षहर बनने की त्रासदी की बानगी है सबसे ज्यादा सांसद देने वाला राज्य उत्तर प्रदेष । बीती जनगणना में यहां की कुल आबादी का 80 फीसदी गांवों में रहता था और इस बार यह आंकड़ा 77.7 प्रतिषत हो गया। बढ़ते पलायान के चलते 2011 में राज्य की जनसंख्या की वृद्धि 20.02 रही , इसमें गांवों की बढौतरी 18 प्रतिषत है तो षहरों की 28.8। सनद रहे पूरे देष में षहरों में रहने वाले कुल 7.89 करोड परिवारों में से 1.37 करोड झोपड़-झुग्गी में रहते हैं और देष के 10 सबसे बड़े षहरी स्लमों में मेरठ व आगरा का षुमार है। मेरठ की कुल आबादी का 40 फीसदी स्लम में रहता है, जबकि आगरा की 29.8 फीसदी आबादी झोपड-झुग्गी में रहती है।
राजधानी दिल्ली में जन सुविधाएं, सार्वजनिक परिवहन और सामाजिक ढांचा - सब कुछ बुरी तरह चरमरा गया है। कुल 1483 वर्ग किमी में फैले इस महानगर की आबादी कोई सवा करोड़ से अधिक हो चुकी है। हर रोज तकरीबन पांच हजार नए लोग यहां बसने आ रहे हैं। अब यहां का माहौल और अधिक भीड को झेलने में कतई समर्थ नहीं हैं। ठीक यही हाल देश के अन्य सात महानगरों, विभिन्न प्रदेश की राजधानियों और औद्योगिक वस्तियों का है। इसके विपरीत गांवों में ताले लगे घरों की संख्या में दिनों-दिन इजाफा हो रहा है। देश की अर्थव्यवस्था का कभी मूल आधार कही जाने वाली खेती और पशु-पालन के व्यवसाय पर अब मशीनधारी बाहरी लोगों का कब्जा हो रहा है। उधर रोजगार की तलाश में गए लोगों के रंगीन सपने तो चूर हो चुके हैं, पर उनकी वापसी के रास्ते जैसे बंद हो चुके हैं। गांवों के टूटने और शहरों के बिगडने से भारत के पारंपरिक सामाजिक और आर्थिक संस्कारों का चेहरा विद्रूप हो गया है। परिणामतः भ्रष्टाचार, अनाचार, अव्यवस्थाओं का बोलबाला है।
षहर भी दिवास्वप्न से ज्यादा नही ंहै, देष के दीगर 9735 षहर भले ही आबादी से लबालब हों, लेकिन उनमें से मात्र 4041 को ही सरकारी दस्तावेज में षहर की मान्यता मिली हे। षेश 3894 षहरों में षहर नियोजन या नगर पालिका तक नहीं है। यहां बस खेतों को उजाड़ कर बेढब अधपक्के मकान खड़े कर दिए गए हैं जहां पानी, सड़क, बिजली आदि गांवों से भी बदतर हे। सरकार कारपोरेट को बीते पांच साल में कोई 21 लाख करोड़ की छूट बांट चुकी है। वहीं हर साल पचास हजार करोड़ कीमत की खाद्य सामग्री हर साल माकूल रखरखाव के अभाव में नश्ट हो जाती है और सरकार को इसकी फिकर तक नहीं होती। बीते साल तो सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका कि यदि गोदामों में रखो अनाज को सहजे नहीं सकते हो तो उसे गरीबों को बांट दो, लेकिन इसके लिए हुक्मरान तैयार नहीं है। विकास और सबसिडी का बड़ा हिस्सा षहरी आबादी के बीच बंटने से विशमता की खाई बड़ी होती जा रही है।
शहरीकरण की त्रासदी केवल वहां के बाशिंदें ही नहीं झेलते हैं, बल्कि उन गांवों को अधिक वेदना सहनी होती है, जिन्हें उदरस्थ कर शहर के सुरसा-मुख का विस्तार होता है। शहर, गांवों की संस्कृति, सभ्यता और पारंपरिक सामाजिक ढांचे के क्षरण के तो जिम्मेदार होते ही हैं, गांव की अर्थनीति के मूल आधार खेती को चैपट भी करते हैं। किसी शहर को बसाने के लिए आस-पास के गांवों के खेतों की बेशकीमती मिट्टी को होम किया जाता है। खेत उजड़ने पर किसान या तो शहरों में मजदूरी करने लगता है या फिर मिट्टी की तात्कालिक अच्छी कीमत हाथ आने पर कुछ दिन तक ऐश करता है। फिर आने वाली पीढियों के लिए दुर्भाग्य के दिन शुरु हो जाते हैं।
कोई एक दषक पहले दिल्ली नगर निगम द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट महान चिंतक कार्ल माक्र्स की उस चर्चित उक्ति की पुष्टि करती है, जिसमें उन्होने कहा था कि अपराथ, वेश्यावृति तथा अनैतिकता का मूल कारण भूख व गरीबी होता है। निगम के स्लम तथा जे जे विभाग की रिपोर्ट में कहा गया है कि राजधानी में अपराधों में ताबडतोड बढ़ौतरी के सात मुख्य कारण हैं - अवांछित पर्यावरण, उपेक्षा तथा गरीबी, खुले आवास, बडा परिवार, अनुशासनहीनता व नई पीढी का बुजुर्गों के साथ अंतर्विरोध और नैतिक मूल्यों में गिरावट। वास्तव में यह रिपोर्ट केवल दिल्ली ही नहीं अन्य महानगरों और शहरों में भी बढ़ते अपराधों के कारणों का खुलासा करती है। ये सभी कारक शहरीकरण की त्रासदी की सौगात हैं।
गांवों में ही उच्च या तकनीकी शिक्षा के संस्थान खोलना, स्थानीय उत्पादों के मद्देनजर ग्रामीण अंचलों में छोटे उद्योगों को बढ़ावा देना, खेती के पारंपरिक बीज खाद और दवाओं को प्रोत्साहित करना, ये कुछ ऐसे उपाय हैं जिनके चलते गांवों से युवाओं के पलायन को रोका जा सकता है । इस राष्ट्रीय समस्या के निदान में पंचायत समितियां अहमं भूमिका निभा सकती हैं । पंचायत संस्थाओं में आरक्षित वर्गो की सक्रिय भागीदारी कुछ हद तक सामंती शोषण पर अंकुश लगा सकती , जबकि पानी ,स्वास्थ्य, सड़क, बिजली सरीखी मूलभूत जरूरतेंा की पूर्ति का जिम्मा स्थानीय प्रशासन को संभालना होगा ।
विकास के नाम पर मानवीय संवेदनाओं में अवांछित दखल से उपजती आर्थिक विषमता, विकास और औद्योगिकीकरण की अनियोजित अवधारणाएं और पारंपरिक जीवकोपार्जन के तौर-तरीकेां में बाहरी दखल- शहरों की ओर पलायन को प्रोत्साहित करने वाले तीन प्रमुख कारण हैं । इसके लिए सरकार और समाज दोनो को साझा तौर पर आज और अभी चेतना होगा ।, अन्यथा कुछ ही वर्षों में ये हालात देश की सबसे बड़ी समस्या का कारक बनेंगें - जब प्रगति की कहानी कहने वाले महानगर बेगार,लाचार और कुंठित लोगों से ठसा-ठस भरे होंगे, जबकि देश का गौरव कहे जाने वाले गांव मानव संसाधन विहीन पंगु होंगे ।
पंकज चतुर्वेदी
यूजी-1, 3/186 ए राजेन्द्र नगर
सेक्टर-2
साहिबाबाद
गाजियाबाद 201005
9891928376, 0120-4241060