क्यों नहीं होता है फसल बीमा ?
पंकज चतुर्वेदीइस बार जब खलिहान में फसल आने का समय आया तो बारिश, ओले, आंधी ने किसानों को खूब रूलाया। सरकार में बैठे लोग किसान को राहत के नाम पर कुछ सौ रूपए या कर्ज बांट कर सोच रहे हैं कि इससे खेती-किसानी का दषा बदल जाएगी, जबकि किसान चाहता है कि उसे उसकी फसल की कीमत की गारंटी मिल जाए। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8 प्रतिशत खेती-बाड़ी में तल्लीन कोई 64 फीसदी लोगों के पसीने से पैदा होता है । यह विडंबना ही है कि देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ कहलाने वाली खेती के विकास के नाम पर बुनियादी सामाजिक सुधारों को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है । पूरी तरह प्रकृति की कृपा पर निर्भर किसान के श्रम की सुरक्षा पर कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं गया । फसल बीमा की कई योजनाएं बनीं, उनका प्रचार हुआ, पर हकीकत में किसान यथावत ठगा जाता रहा- कभी नकली दवा या खाद के फेर में तो कभी मौसम के हाथों ।
खेती एक चुनौती वाला कार्य है । कभी सूखा पड़ गया तो कभी इंद्र की कृपा जरूरत से ज्यादा हो गई । कहीं ओलों की मार तो कभी आंधी या चक्रवात । पलक झपकते ही महीनों की हाड़ तोड़ मेहनत व खाद-बीज पर हुआ खर्चा मिट्टी होता दिखता है । भारतीय कृषि में बहुत विविधता है । एक तरफ पूरी तरह सिंचित खेती तो दूसरी ओर बारिश पर निर्भर किसान । तभी एक तरफ बढि़या फसल लहलहाती है तो दूसरी तरफ बाढ़ या सूखे से किसान रोता दिखता है । ऐसी स्थिति में बार-बार फसलों के विशेषकर बारानी, सूखा या बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में नष्ट होने से किसानों की उत्पादन के स्तर में अनिश्चितता तथा मूल्यों के उतार-चढ़ाव की स्थिति से निबटने की क्षमता बहुत कम हो गई है । इसके साथ ही कर्जे की वापिसी और वित्तीय संस्थाओं द्वारा कृषि में निवेश भी बहुत कम रहा है। इसी दर्द के चलते बीते कुछ सालों में हजारों किसानों की खुदकुशी करने की मार्मिक घटनाएं राजनेताओं की आपसी बहस का मुख्य मुद्दा रही हैं। इसके बावजूद खेती-किसानी के बीमा के मामले में सरकार का नजरिया सदैव लापरवाही वाला रहा है ।
जब कहीं से फसल चैपट होने की खबरें आती हैं सियासती जमातें खुद को किसानों का रहनुमा सिद्ध करने के लिए बयानों के तीर चलाने लगती हैं। तत्काल ही नगदी, अनाज या कर्ज माफी की मांगे व घोषणाएं की जाती हैं, । वोट बैंक बचाने के लिए राज्य सरकारें मुआवजों की घोषणा कर देती हैं जो कि हकीकत में किसान को तो कोई राहत देता नहीं है ; हां, नेताओं-दलालों की लाटरी लग जाती हैं । मुआवजा देना कोई गलत बात नहीं हैं, लेकिन इस तरह का ‘तदर्थ पुनर्वास’’ के इस सरकारी खजाने पर तो बुरा असर डालता ही है, किसानों को भी कोई ठोस विकल्प नहीं प्रदान करता है । ऐसे खर्चे किसी दूरगामी योजना के अनुरूप ना हो कर भावनात्मक दवाबों में अधिक किए जाते हैं । तभी मुआवजा-राहत में भ्रष्टाचार , जरूरतमंदों तक मदद नहीं पहुंच पाना सरीखे आरोप लगते रहते हैं । यदि यह राहत राशि किसी नियोजित बीमा योजना के तहत बांटी जाए तो वास्तव में पीडि़त लोगों को माकूल फायदा होगा ।
देश की आजादी के साथ ही किसानों को सुरक्षित भविष्य के सपने दिखाए जाने लगे थे । 1947 में डा. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा प्रस्तुत किए गए केंद्रीय विधान में फसल बीमा पर राष्ट्र व्यापी बहस की जरूरत का उल्लेख किया गया था । इस बाबत मर्सादा तैयार करने में पूरे 18 साल लगे । 1965 में केंद्र सरकार ने फसल बीमा पर पहला बिल पेश किया । इसे लागू करने के तरीके खोजने की बात पर फिर से लंबा सन्नाटा छा गया । 1970 में धरमनारायण कमेटी ने भारत में खेती के असमान और जटिल हालातों के मद्देनजर, फसल का उसकी वास्तविक कीमत के अनुरूप बीमा करने की किसी योजना के क्रियान्वयन को असंभव बताया था । इसके जवाब में प्रो. वीएम दांडेकर ने फसल बीमा योजना को व्यावहारिक रूप देने की एक विस्तृत रिपोर्ट बनाई थी । धरमनारायण कमेटी ने जहां ‘‘ व्यक्तिगत बीमा योजना’’ को आधार बना कर इसे फ्लाप बताया था, वहीं प्रो. दांडेकर ने एकसमान जलवायु व मौसम के क्षेत्रों को आधार बना कर योजना बनाई थी । किसान को व्यक्तिगत रूप से हितग्राही लक्षित कर बीमा करने की योजना में हर किसान के नुकसान का जायजा अलग-अलग करना होता है, जबकि प्रीमियम का भुगतान ‘‘सामूहिक संभावनाओं’’ पर आधारित था । हर किसान का अलग-अलग हिसाब-किताब रखना निश्चित ही भारी-भरकम काम था । जाहिर है कि (उस समय) दस करोड़ किसानों का यह लेखा रखना संभव नहीं था और ऐसे में अनियमितताओं पर नजर रख पाना नामुमकिन था । धरमनारायण कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में इन्हीं बातों को आधार बनाया था ।
इसके विपरीत प्रो. दांडेकर ने एकसमान प्राकृतिक परिस्थितियों(मौसम, जमीन, पानी आदि) वाले क्षेत्रों में ब्लाक या तहसील स्तर पर हानि के मूल्यांकन और उसी स्तर पर प्रीमियम निर्धारण का फार्मूला दिया था । उन्का सुझाव था कि फसल की हानि के आकलन के लिए बीते दस सालों में पैदा हुई औसत पैदावार को गणना का आधार बनाया जाए । इस योजना पर प्रशासनिक नियंत्रण के लिए प्रो. दांडेकर ने सुझाव दिया था कि केवल किसी सरकारी संस्थान से खेती के लिए कर्ज लेने वालों को ही इस योजना के दायरे में रखा जाए । तब से अब तक फसल बीमा योजना के कई छलावे किसानों को दिखाए गए, लेकिन सभी के मूल में सरकारी कर्ज का पैसा ना डूबने की भावना अधिक थी ।
जैसे तैसे सन 1979 में फसल बीमा की शुरूआत हो सकी । इसमें प्रो. दांडेकर के ‘समान जलवायु’’ वाले इलाकों को आधार बनाया गया । इसमें महज कर्जा लेने वाले किसानों को शामिल किया गया । वास्तव में यह योजना किसानों के लिए तो कोई राहत देती ही नहीं थी । यदि किसी किसान की फसल आपदा की चपेट में आ कर चैपट हो जाए तो किसान की गांठ से लगी पूंजी का कोई हर्जाना इसमें नहीं मिलना था । हां, किसान द्वारा लिए गए कर्ज की भुगतान सीधे ही बैंक को करने का प्रावधन अवश्य था । यह योजना किसानों को कतई आकर्षित नहीं कर पाई ।
सन 1985 में इस योजना को खेती के लिए कर्जा लेने वालों के लिए अनिवार्य कर दिया गया । इसमें बीमा राशि को कर्ज का तीन गुना कर दिया गया, ताकि नुकसान होने पर किसान के पल्ले भी कुछ पड़े । यह योजना ‘‘केंद्रीय फसल बीमा फंड’’ की मदद से शुरू की गई थी । जनरल इंश्योरेंस कारपोरेशन आफ इंडिया द्वारा संचालित उस योजना में सहकारी संस्थाओं, राष्ट्रीकृत व क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों से लिए गए कृषि कर्ज की सुरक्षा की जाती थी । प्रति हेक्टर औसत फसल के 60 से 90 प्रतिशत का बीमा करने वाली यह योजना जितनी लुभावनी नजर आती थी, वास्तविकता के धरातल पर यह किसानों के लिए बंजर ही साबित हुई । कहा तो यह भी गया था कि सभी छोटे व सीमांत किसानों को प्रीमियम राशि पर 50 फीसदी की सबसिडी का भी प्रावधान था । इसके लिए कुछ राज्यों ने अलग से ‘‘फसल बीमा फंड’’की व्यवस्था भी की थी । परंतु उस योजना में आम किसान की भागीदारी, कर्ज लेते समय दस्तखत या अंगूठा लगाने के लिए एक फार्म की बढ़ौतरी से अधिक नहीं थी । हकीकत में किसान को मालूम ही नहीं चलता था कि उसकी फसल का बीमा हुआ है । हां, किसी प्राकृतिक विपदा के समय कर्जा माफ होने पर कुछ राहत जरूर महसूस होती थी ।
जून-1999 में तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नए सपनों के साथ ‘‘ राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना ’’ राष्ट्र को समर्पित की थी । इस बार योजना को सारे देश में एक साथ लागू किया गया । इसमें अनाज, तिलहन और व्यावसायिक फसलों को तो शामिल किया ही गया ; कर्ज ना लेने वाले किसानों को भी इसके दायरे में शामिल किया गया । छोटे किसानों को प्रीमियम भुगतान में आधी सबसिडी की पुरानी स्कीम इसमें भी रखी गई । यदि दावा राशि 150 फीसदी तक हो तो उसके भुगतान का जिम्मा बीमा कंपनी का है । दावा राशि इससे अधिक होने पर ऊपर की राशि का भुगतान सरकार के राहत फंड से करने की बात इस योजना में कही गई है । इस योजना का क्रियान्वयन सितंबर-99 में शुरू हुआ । तब इसकी चर्चा देशभर के विभिन्न मंचों पर हुई, योजना की व्यावहारिक कमियों पर कई ठोस सुझाव भी आए । पर लगता है कि हमारी नौकरशाही किसानों के भले के लिए कुछ ना करने के लिए कमर कसे हुए है ।
विशेषज्ञों ने पहले ही चेता दिया था कि पूर्व की पिटी हुई योजनाओं की महत्वपूर्ण कमियों को दूर करने पर इसमें ध्यान नहीं दिया गया है । फसल के नुकसान के आकलन व गणना का काम राज्य सरकार के सहयोग से बीमा कंपनियों के भरोसे छोड़ दिया गया है । अभी तक फसल बीमा योजनाओं की असफलता का कारण नुकसान का जायजा लेने की दोषपूर्ण प्रक्रिया रही है । विडंबना है कि अभी तक फसल नुकसान के आकलन का कोई मानक तय ही नहीं हुआ है । तभी भुगतान की प्रक्रिया में सालों लग जाते हैं । इसी प्रकार फसल बीमा योजना को सामूहिक के बनिस्पत व्यक्तिगत रूप से लागू किया गया है । यदि इसे समूह में लागू किया जाए तो प्रीमियम के भुगतान व दावों के निराकरण में कम समय लगेगा ।
वैसे भी यह योजना किसानों के लिए अनिवार्य नहीं है । हमारे देश के किसानों में निरक्षरता का प्रतिशत बेहद अधिक है , गांवों तक संचार व सड़क का टोटा है ; यानी जागरूकता का अभाव है । ऐसे में दूरस्थ गांवों तक किसानों को इसका लाभ मिलना संदिग्ध ही रहा है । आज देश में कोई 25 लाख किसान ऐसे हैं जिनकी जोत का रकबा एक हेक्टर से कम है । ये लोग कुल संभावित उत्पादन के दो फीसदी के बराबर प्रीमियम भुगतान करने में असमर्थ हैं । काश, बहुत छोटे किसानों के लिए प्रीमियम व उस पर सबसिडी की अलग से व्यवस्था होती । पुराने अनुभव बताते हैं कि किसी प्राकृतिक विपदा के समय बहुत छोटे किसानोें को सबसे अधिक भोगना पड़ता है । यदि बीमित किसान , भुगतान किए गए प्रीमियम, दावा राशि जैसे आंकड़े कम्प्यूटर पर तैयार रखे जाएं तो विषम परिस्थितियों में पीडि़त को तत्काल राहत दी जा सकती है ।
किसानो ंको रिझाने के नाटक यहीं नहीं थें, जुलाई 2000 में तत्कालीन कृषि मंत्री नीतिश कुमार ने संसद में ‘‘राष्ट्रीय कृषि नीति’’ का नया शिगूफा छोड़ा था। इसमें खेती के जोखिम प्रबंधन के तहत देश के हरेक किसान को फसल बीमा योजना के दायरे में लाने की बात कही गई थी । चूंकि खेती को लाभकारी धंधा माना नहीें जाता है, सो बहुराष्ट्रीय वित्त कंपनियों के दवाब में ऐसी कल्याणकारी योजनाएं साकार नहीं हो पा रही हैं और फिर यदि देशी किसान संपन्न हो गया तो विदेशी कंपनियों के सामने वह समर्पण कैसे करेगा ?
वोट बैंक को मृगमरिचिका की तरह भ्रमित करी राष्ट्रीय फसल बीमा योजना से किसान किस तरह लाभान्वित हुआ है, इसकी हकीकत जानने के लिए बीते कुछ सालों के दौरान कर्ज से बेहाल किसानों की आत्महत्या के आंकड़े बानगी हैं । साफ जाहिर होता है कि इस योजना का मुख्य लक्ष्य देश का बेहाल किसान ना हो कर वे बहुराश्ट्रीय वित्तीय व खाद-दवाई कंपनियां हैं, जोकि तेजी से देश की खेती-किसानी और अर्थ-तंत्र पर अपनी पकड़ बना रही हैं । आजादी के 65 साल बाद भी देश के सबसे बड़े व सर्वाधिक विपन्न वर्ग के सिर पर मौसम की मार से बचने के लिए कोई सुरक्षा छतरी ना मुहैया करवा पाना, क्या लोकतंत्र के लिए शर्मनाक धब्बा नहीं है ?
पंकज चतुर्वेदी
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