सुरक्षा बलों के लिए मौतघर बनता बस्तर
पंकज चतुर्वेदी17 जून की सुबह, नक्सल प्रभवित बीजापुर में सीआरपीएफ की 168वीं बटालियन के कैंप में गोली चलने से दहशत फैल गई। पता चला कि स्टोर में तैनात हेड कांस्टेबल पवित्र यादव ने एके-47 से खुद को गोली मार ली। प्दिले तीन महीनों के दौरान यह ऐसी चैथी घटना है कि अपने शौर्य व साहस के लिए मशहूर केंद्रीय आरक्षित पुलिस बल यानि सीआरपीएफ के जवान ने हालात से हार कर मौत को गले लगा लिया। दुनिया की सबसे खूबसूरत जगहों में से है बस्तर, हरियाली, झरने, पषु-पक्षी और इंसान भी सभी नैसर्गिक वातावरण में उन्मुक्त । भले ही अखबार की सुर्खिया डराएं कि बस्तर में बारूद की गंध आती है लेकिन हकीकत तो यह है कि किसी भी बाहरी पर्यटक के लिए कभी भी कोई खतरा नहीं है। पूरी रात जगदलपुर से रायपुर तक आने वाली सड़क वाहनों से आबाद रहती है। यहां टकराव है तो बंदूकों का, नक्सलवाद ने यहां गहरी जड़ें जमा ली है। तो जब स्थानीय पुलिस उनके सामने असहाय दिखी तो केंद्रीय सुरक्षा बलों को यहां झोंक दिया गया। विडंबना है कि उनके लिए ना तो माकूल भोजन-पनी है और ना ही स्वास्थ्य सेवाएं, ना ही सड़कें और ना ही संचार। परिणाम सामने हैं कि बीते पांच सालों के दौरान यहां सीने पर गोली खा कर षहीद होने वालों से कहीं बड़ी संख्या सीने की धड़कनें रूकने या मच्छरों के काटने से मरने वालों की है।
सरकरी आंकड़े बताते हैं कि जनवरी-2009 से दिसंबर-2014 के बीच नक्सलियों से जूझते हुए केंद्रीय रिजर्व पुलिस यानि सीआरपीएफ के कुल 323 जवान देष के काम आए। वहीं इस अवधि में 642 सीआरपीएफ कर्मी दिल का दौरा पड़ने से मर गए। आत्म हत्या करने वालों की संख्या 228 है। वहीं मलेरिया से मरने वालों का आंकड़ा भी 100 से पार है। अपने ही साथी या अफसर को गोली मार देने के मामले भी आए रोज सामने आ रहे हैं। कुल मिला कर सीआरपीएफ दुष्मन से नहीं खुद से ही जूढ रही है। सुदूर बाहर से आए केंद्रीय बलों के जवान ना तो स्थानीय भूगोल से परिचित हैं , ना ही उन्हें स्थानीय बोली-भाशा- संस्कार की जानकारी होती है और ना ही उनका कोई अपना इंटेलिजेंस नेटवर्क बन पाया हे। वे तो मूल रूप से स्थानीय पुलिस की सूचना या दिषा-निर्देष पर ही काम करते हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि स्थानीय पुलिस की फर्जी व षोशण की कार्यवाहियों के चलते दूरस्थ अंचलों के ग्रामीण खाकी वर्दी पर भरोसा करते नहीं हैं। अधिकांष मामलों में स्थानीय पुलिस की गलत हरकतों का खामियाजा केंद्रीय बलों को झेलना पड़ता है। बेहद घने जंगलों में लगतार सर्चिग्ंा व पेट्रोलिंग का कार्य बेहद तनावभरा है, यहा दुष्मन अद्ष्य है, हर दूसरे इंसान पर षक होता है, चाहे वह छोटा बच्चा हो या फिर फटेहाल ग्रामीण। पूरी तरह बस अविष्वास, अनजान भय और अंधी गली में मंजिल की तलाष। इस पर भी हाथ बंधे हुए, जिसकी डोर सियासती आकाओं के हाथों मैं। लगातार इस तरह का दवाब कई बार जवानों के लिए जानलेवा हो रहा है।
सड़कें ना होना, महज सुरक्षा के इरादे से ही जवानों को दिक्कत नहीं है, बल्कि इसका असर उनकी निजी जिंदगी पर भी होता है। उनकी पसंद का भेाजन, कपड़े, यहां तक कि पानी भी नहीं मिलता है। बस्तर का भूजल बहुत दूशित है, उसमें लोहे की मात्रा अत्यधिक है और इसी के चलते गरमी षुरू होते ही आम लोगों के साथ-साथ जवान भी उल्टी-दस्त का षिकार होते हैं। यदा-कदा कैंप में टैंकर से पानी सप्लाई होती भी है, लेकिन वह किसी वाटर ट्रीटमेंट प्लांट से षेाधित हो कर नहीं आता है। कहते हैं कि जवान पानी की हर घूट के साथ डायरिया, पीलिया व टाईफाईड के जीवाणू पीता है।बेहद उमस, तेज गरमी यहां के मौसम की विषेश्ता है और इसमें उपजते हैं बड़े वाले मच्छर जोकि हर साल कई जवानों की असामयिक मौत का कारण बनते हैं। हालांकि जवानों को कडा निर्देष है कि वे मच्छरदानी लगा कर सोऐं, लेकिन रात की गरमी और घने जंगलों में चैकसी के चलते यह संभव नहीं हो पाता। यहां तक कि बस्तर का मलेरिया अब पारंपरिक कुनैन से ठीक नहीं होता है। घने जंगलों, प्राकृतिक झरनों और पहाड़ों जैसी नैसर्गिक सुंदरता से भरपूर बस्तर में भी पूरे देष की तरह मौसम बदलते हैं, उनके स्थानीय बोलियों में नाम भी हैं, लेकिन वहां के बाषिंदे इन मौसमों को बीमारियों से चीन्हते हैं। इसके बावजूद केंद्रीय बलों के जवानों के लिए स्वास्थ्य सेवाए बेहद लचर है।। जवान यहां-वहां जा नहीं सकते, जगदलपुर का मेडिकल कालेज बेहद अव्यवस्थित सा है।
मोबाईल नेटवर्क का कमजोर होना भी जवानों के तनाव व मौत का कारण बना हुआ है। सनद रहे कि बस्तर की क्षेत्रफल केरल राजय से ज्यादा है। यहां बेहद घने जंगल हैं और उसकी तुलना में मोबाईल के टावर बेहद कम हैं। आंचलिक क्षेत्रों में नक्सली टावर टिकने नहीं देते तो कस्बाई इलाकों में बिजली ठीक ना मिलने से टावर कमजोर रहते हैं। बेहद तनाव की जिंदगी जीने वाला जवान कभी चाहे कि अपने घर वालों का हालचाल जान ले तो भी वह बड़े तनाव का मसल होता है। कई बार यह भी देखने में आया कि सिग्नल कमजोर मिलने पर जवान फोन पर बात करने कैंप से कुछ बाहर निकला और नक्सलियों न उनका षिकार कर दिया। कई कैंप में जवान ऊंचे एंटिना पर अपना फोन टांग देते हैं व उसमें लंबे तार के साथ ‘इयर फोन‘ लगा कर बात करने का प्रयास करते हैं। सीआरपीएफ की रपट मे ंयह माना गया है कि लंबे समय तक तनाव, असरुक्षा व एकांत के माहौल ने जवानों में दिल के रोग बढ़ाए हैं। वहीं घर वालों का सुख-दुख ना जान पाने की दर्द भी उनको ंभीतर ही भीतर तोड़ता रहता है। तिस पर वहां मनोरंजन के कोई साधन हैं नहीं और ना ही जवान के पास उसके लिए समय है।
साफ दिख रहा है कि जवानों के काम करने के हालात सुधारे बगैर बस्तर के सामने आने वाली सुरक्षा चुनौतियों से सटीक लहजे में निबटना कठिन होता जा रहा है। अब जवान पहले से ज्यादा पढ़ा-लिखा आ रहा है, वह पहले से ज्यादा संवेदनषील और सूचनाओं से परिपूर्ण है; ऐसे में उसके साथ काम करने में अधिक जगरूकता व सतर्कता की जरूरत है। नियमित अवकाष, अफसर से बेहतर संवाद, सुदूर नियुक्त जवान के परिवार की स्थानीय परेषानियों के निराकरण के लिए स्थानीय प्रषासन की प्राथमिकता व तत्परता, जवानों के मनोरजंन के अवसर, उनके लिए पानी , चिििकत्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं को पूरा करना आदि ऐसे कदम हैं जो जवानों में अनुषासन व कार्य प्रतिबद्धता, देानो को बनाए रख सकते हैं।
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