देश को पीछे ढकेलता सैलाब
राष्ट्रीय सहारा , 10 सितंबर 15 |
पंकज चतुर्वेदी
पिछले कुछ सालों के आंकड़ें देखें तो पाएंगे कि बारिश की मात्रा भले ही कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। कुछ दशक पहले जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफनने लगी हैं। हालांकि मौसम बीतते ही उन इलाकों में फिर पानी का संकट छा जाता है वर्ष 1995-2005 के दशक के दौरान बाढ़ से हुए नुकसान का सरकारी अनुमान 1805 करोड़ था जो अगले दशक यानी 2005-2015 में 4745 करोड़ हो गया है। यह आंकड़ा ही बानगी है कि बाढ़ किस निर्ममता से हमारी अर्थव्यवस्था को चट कर रही है कड़ों में देखें तो देश के बड़े हिस्से में मानसून नाकाफी रहा है, लेकिन जहां जितना पानी बरसा है, उसने अपनी तबाही का दायरा बढ़ा दिया है। पिछले कुछ सालों के आंकड़ें देखें तो पाएंगे कि बारिश की मात्रा भले कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह इलाके में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। कुछ दशक पहले जिन इलाकों को बाढ़मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफनने लगी हैं। हालांकि मौसम बीतते ही उन इलाकों में पानी का संकट छा जाता है। असल में बाढ़ महज एक प्राकृतिक आपदा नहीं है, बल्कि देश के गंभीर पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक संकट का कारक बन गई है। हमारे पास बाढ़ से निबटने को महज राहत कार्य या यदा-कदा कुछ बांध या जलाशय निर्माण का विकल्प है, जबकि बाढ़ के विकराल होने के पीछे नदियों का उथला होना, जलवायु परिवर्तन, बढ़ती गर्मी, रेत खनन और जमीन का कटाव जैसे कई कारण दिनों-दिन गंभीर होते जा रहे हैं। जिन सड़कों, खेत या इमारतों को बनाने में दशकों लग जाते हैं, उसे बाढ़ का पानी पलक झपकते उजाड़ देता है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1951 में भारत की बाढ़ग्रस्त भूमि की माप एक करोड़ हेक्टेयर थी। 1960 में यह ढ़ाई करोड़ हेक्टेयर हो गई। 1978 में बाढ़ से तबाह जमीन 3.4 करोड़ हेक्टेयर थी। आज देश के कुल 329 मिलियन (दस लाख) हेक्टेयर में से चार करोड़ हेक्टेयर इलाका बाढ़ की चपेट में हर साल बर्बाद होता है। 1995-2005 के दशक के दौरान बाढ़ से हुए नुकसान का सरकारी अनुमान 1805 करोड़ था जो अगल दशक यानी 2005-2015 में 4745 करोड़ हो गया है। यह आंकड़ा ही बानगी है कि बाढ़ किस निर्ममता से हमारी अर्थव्यवस्था चट कर रही है। बिहार का 73 प्रतिशत हिस्सा आधे साल बाढ़ और शेष दिन सुखाड़ का दंश झेलता है और यही वहां के पिछड़ेपन, पलायन और परेशानियों का कारण है। यह विडंबना है कि राज्य का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा नदियों के रौद्र रूप से पस्त रहता है। असम में इन दिनों 18 जिलों के कोई साढ़े सात लाख लोग नदियों के रौद्र रूप के चलते घर-गांव से पलायन कर गए है और ऐसा हर साल होता है। अनुमान है कि यहां सालाना कोई 200 करोड़ का नुकसान होता है जिसमें मकान, सड़क, मवेशी, खेत, पुल, स्कूल, बिजली, संचार आदि शामिल हैं। मूलभूत सुविधाएं खड़ा करने में दस साल लगते हैं, जबकि हर साल औसतन इतना नुकसान हो जाता है। यानी असम हर साल विकास की राह पर 19 साल पिछड़ता जाता है। केंद्र हो या राज्य, सरकारों का ध्यान बाढ़ के बाद राहत कायरे व मुआवजे पर होता है।
lokmat samachar maharashtra |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें