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शनिवार, 5 सितंबर 2015

How can Hindu become minority in India ?

क्या भारत में मुस्लिम आबादी वास्तव में बहुसंख्यक हो जाएगी ?

MP JANSANDESH SATNA 6-9-15
                                                                     पंकज चतुर्वेदी
बीते दिनों सरकार ने जनगणना के ताजा आंकड़े जारी कर उन लोगों को हल्ला-गुल्ल करने का एक अवसर दे दिया है जो दावा करते रहे हैं कि मुसलमानों की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है और जल्दी ही वे हिंदुओं से अधिक हो जाएगी इसलिए हर हिंदु पांच-पांच बच्चे पैदा करे।’’ एक सांसद महोदय तो बगैर किसी सिर पैर के यह तक कह दिया कि आने वाले 80 साल में हिंदू समाप्त हो जाएगे। कुछ एक ने चार से ज्यादा बच्चे पैदा करने वालों को पारितोशिक देने की घोशणा कर डाली। यह एक ऐसा मिथक है जिसका भय कई-पढ़े लिखे शहरियों को भी है। यह एक बेहद प्रचारित जुमला है कि मुसलमान जानबूझ कर कई-कई शादी करते हैं और साजिशन देश की आबादी बढ़ाते हैं। यदि पिछली कुछ जनगणनाओं के अंाकड़ों पर नजर डालें तो हकीकत सामने आ जाती है। यही नहीं यदि इस्लाम के मूल सिद्धांतों को ठीक से समझा-पढ़ा जाए तो स्पश्ष्ट हो जाता है कि बच्चों की अनियंत्रित संख्या इसकी की मूल भावना के विपरीत है। यह विडंबना है कि समाज को तोड़ने वाले लोग, जो दोनों फिरकों में हैं, ऐसे मिथकों को हवा देते हैं, जबकि कतिपय लोग इस्लाम के नाम  पर ऐसी भ्रांतियों को हवा देते हैं। इसमें कुछ मुल्ला-मौलवी का अधकचरा ज्ञान भी कम दोशी नहीं है।
2011 की जनगणना के मुताबिक देश की आबादी में  मुसलमानों का हिस्सा बढ. गया है। 2001 में कुल आबादी में मुसलमान 13.4 प्रतिशत थे, जो 2011 में बढ. कर 14.2 प्रतिशत हो गए! असम, पश्चिम बंगाल, जम्मू-कश्मीर, केरल, उत्तराखंड, हरियाणा और यहां तक कि दिल्ली की आबादी में भी मुसलमानों का हिस्सा पिछले दस सालों में काफी बढ़ा है। असम में 2001 में करीब 31 प्रतिशत मुसलमान थे, जो 2011 में बढ. कर 34 प्रतिशत के पार हो गए, पश्चिम बंगाल में 25.2 प्रतिशत से बढ. कर 27, केरल में 24.7 प्रतिशत से बढ. कर 26.6, उत्तराखंड में 11.9 प्रतिशत से बढ. कर 13.9, जम्मू-कश्मीर में 67 प्रतिशत से बढ. कर 68.3, हरियाणा में 5.8 प्रतिशत से बढ. कर 7 और दिल्ली की आबादी में मुसलमानों का हिस्सा 11.7 प्रतिशत से बढ. कर 12.9 प्रतिशत हो गया। सन 1961 से 2011 तक की जनगणना के आकड़े आंकड़े बोलते हैं कि गत 50 वर्षों के दौरान भारत में हिंदुओं की आबादी कुछ कम हुई है, जबकि मुसलमानों की कुछ बढ़ी है। यह भीे तथ्य है कि बीते दस सालों के दौरान मुस्लिम और हिंदू आबादी का प्रतिशत स्थिर है। अगर जनसंख्या वृद्धि की यही रफ्तार रही तो मुसलमानों की आबादी को हिंदुओं के बराबर होने में 3626 साल लग जाएंगे। वैसे भी समाजविज्ञानी यह बता चुके हैं कि सन् 2050 तक भारत की आबादी स्थिर हो जाएगी और उसमें मुसलमानों का प्रतिशत 13-14 से अधिक नहीं बनेगा। इन आंकड़ों मे ंयह भी कहा गया है कि जहां हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट 3.16 प्रतिषत है तो मुसलमानेंा में इस दर की गिरावट 4.90 प्रतिषत है। साफ है कि मुसलमानेां की आबादी बढ़ने से रही।
एक हल्ला यह भी रहता है कि मुसलमान औरते 10-10 बच्चे पैदा करती हैं। सन 2005 में किया गया एक षोध बानगी है कि ( आर. बी. भगत और पुरुजित प्रहराज) इस बवाल में कितनी हकीकत है और कितना फसाना। उस समय मुसलमानों में जनन दर (एक महिला अपने जीवनकाल में जितने बच्चे पैदा करती है) 3.6 और हिंदुओं में 2.8 बच्चा प्रति महिला थी। यानी औसतन एक मुस्लिम महिला एक हिंदू महिला के मुकाबले अधिक से अधिक एक बच्चे को और जन्म देती है। यानि दस बच्चो ंवाला गणित कहीं भी तथ्य के सामने टिकता नहीं है।
    भारत सरकार की जनगणना के आंकड़ों का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि 1971 से 81 के बीच हिंदुओं की जन्मदर में वृद्धि का प्रतिशत 0.45 था, लेकिन मुसलमानों की जन्मदर में 0.64 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। गत् 20 वर्षों के दौरान मुसलमानों में परिवार नियोजन के लिए नसबंदी का प्रचलन लगभग 11.5 प्रतिशत बढ़ा है, जबकि हिंदुओं में यह 10 प्रतिशत के आसपास रहा है। यहां यह भी जानना जरूरी है कि जनसंख्या वृद्धि की दर को सामाजिक-आर्थिक परिस्थितयां सीधे-सीधे प्रभावित करती हैं। शिक्षित व संपन्न समाज में नियोजित परिवार की बानगी हमारे देश में ईसाई जनसंख्या के आंकड़े हैं । सन् 1950 से 60 के बीच भारत में ईसाईयों की जनसंख्या अपेक्षाकृत तेज रफ्तार से बढ़ी थी। भले ही कतिपय लोग इसे धर्माान्तरण के कारण कहें, लेकिन हकीकत यह है कि उस दशक में स्वास्थ्य और शिक्षाओं में सुधार होने के कारण ईसाईयों की मृत्यु दर कम हो गई थी। परंतु जन्म दर उतनी ही थी। 70 के दशक में ईसाईयों की जनसंख्या में बढ़ोतरी का आंकड़ा लगभग स्थिर हो गया, क्योंकि उस समाज को परिवार नियोजन का महत्व समझ में आ गया था। यह प्रक्रिया हिंदुओं में, ईसाईयों की तुलना में थोड़ी देर से शुरू हुई। मुसलमानों में इसे और भी देर से शुरू होना ही था, क्योंकि आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से मुसलमान समाज बेहद पिछड़ा हुआ है।

PRABAHT 6-9-15
एक बात और गौर करने लायक है कि बांग्लादेश  की सीमा से लगे पश्चिम बंगाल के छह, बिहार के चार और असम के 10 जिलों की आबादी के आंकड़ों पर निगाह डालें तो पाएंगे कि गत 30 वर्षों में यहां मुसलमानों की आबादी बहुत तेजी से बढऱ्ी -इतनी तेजी से कि वहां के बहुसंख्यक हिंदू, अब अल्पसंख्यक हो गए। असम और बंगाल के कुछ जिलों में तो मुस्लिम आबादी का उफान 100 फीसदी से अधिक हे। असल में ये अवैध विदेशी घुसपैठिये हैं। जाहिर है कि ये आबादी भी देश की जनगणना में जुड़ी है और यह बात सरकार में बैठे सभी लोग जानते हैं कि इस बढ़ोतरी का कारण गैरकानूनी रूप से हमारे यहां घुस आए बांग्लादेशी हैं। महज वोट की राजनीति और सस्ते श्रम (मजदूरी) के लिए इस घुसपैठ पर रोक नहीं लग पा रही है, और इस बढ़ती आबादी के लिए इस देश के मुसलमानों को कोसा जा रहा है। इस जंनसंख्या में भी स्पश्ट है कि देष में मुस्लिम आबादी की बढ़ोतरी के सबसे ज्यदा जिम्म्ेदार राज्य बंगाल और असम हैं।
एक यह भी खूब हल्ला होता है कि मुसलमान परिवार नियोजन का विरोध करता है - ‘बच्चे तो अल्लाह की नियामत हैं। उन्हें पैदा होने से रोकना अल्लाह की हुक्म उदूली होता है। यह बात इस्लाम  कहता है और तभी मुसलमान खूब-खूब बच्चे पैदा करते हैं।’ इस तरह की धारणा या यकीन देश में बहुत से लोगों को है और वे तथ्यों के बनिस्पत भावनात्मक नारों पर ज्यादा यकीन करने लगते हैं। वैसे तो जनगणना के आंकड़ों का विश्लेषण साक्षी है कि मुसलमानों की आबादी में अप्रत्याशित वृद्धि या उनकी जन्म दर अधिक होने की बात तथ्यों से परे है। साथ ही मुसलमान केवल भारत में तो रहते नहीं है या भारत के मुसलमानों की ‘शरीयत’ या ‘हदीस’ अलग से नहीं है। इंडोनेशिया, इराक, टर्की, पूर्वी यूरोप आदि के मुसलमान नसबंदी और परिवार नियोजन के सभी तरीके अपनाते हैं। भारत में अगर कुछ लोग  इसके खिलाफ है तो इसका कारण धार्मिक नहीं बल्कि अज्ञानता और अशिक्षा है। गांवों में ऐसे हिंदुओं की बड़ी संख्या है जो परिवार नियोजन के पक्ष में नहीं हैं।
यदि धार्मिक आधार पर देखें तो इस्लके का परिवार नियोजन विरोधी होने की बात महज तथ्यों के साथ हेराफेरी है।  फातिमा इमाम गजाली की मशहूर पुस्तक ‘इहया अल उलूम’ में पैगंबर के उस कथन की व्याख्या की है, जिसमें वे छोटे परिवार का संदेश देते हैं। हजरत मुहम्मद की नसीहत र्है -‘छोटा परिवार सुगमता है। उसके बड़े हो जाने का नतीजा र्है -गरीबी।’ दसवीं सदी में रज़ी की किताब ‘हवी’ में गर्भ रोकने के 176 तरीकों का जिक्र है। ये सभी तरीके कोई जादू-टोना नहीं, बल्कि वैज्ञानिक हैं। भारत में सूफियों के चारों इमार्म -हनफी, शाफी, मालिकी और हमबाली समय-समय पर छोटे परिवार की हिमायत पर तकरीर करते रहे हैं।
वैसे तो आज मुसलमानों का बड़ा तबका इस हकीकत को समझने लगा है, लेकिन  दुनियाभर में ‘‘इस्लामिक आतंकवाद’’ के नाम पर खड़े किए गए हौवे ने अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना और उसके कारण संगठत होने को मजबूर किया है। इसका फायदा कट्टरपंथी जमातें उठा रही हैं और इस्लाम की गलत तरीके से व्याख्या कर सीमित परिवार की सामाजिक व धार्मिक व्याख्या के विपरीत तरीके से कर रही हैं। यह तय है कि सीमित परिवर, स्वस्थ्य परिवार और षिक्षित परिवार की नीति को अपनाए बगैर भारत में मुसलमानों की व्यापक हालत में सुधार होने से रहा। लेकिन यह भी तय है कि ना तो मुसलमान कभी बहुसंख्यक हो पाएगा और ना ही इस्लाम सीमित परिवार का विरोध करता है।

पंकज चतुर्वेदी
यू जी-1, 3/186 राजेन्द्र नगर, सेक्टर-2
साहिबाबाद, गाजियाबाद
201005


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