डेंगू के डंक को जहरीला बनाती दवाएं
उम्मीद के मुताबिक इस वर्ष बारिश नहीं हुई है। भादौ में गरमी अपना पूरा रंग दिखा रही है। इतना अधिक जलभराव भी नहीं हुआ, लेकिन उमस, गंदगी और लापरवाही के चलते मच्छर और उससे उपजे डेंगू का असर दिनों-दिन गहरा होता जा रहा है। दिल्ली में एक बच्चे की मौत व उसके गम में उसके माता-पिता द्वारा आत्महत्या करने की घटना ने तो पूरे देश को हिला दिया है। अकेले दिल्ली-एनसीआर में बीते एक हμते में कई मरीज सरकारी अस्पताल तक पहुंचे हैं। यहां डाक्टरों के बैठने के कमरों को भी वार्ड में बदल दिया गया है। राजस्थान के कई जिलों से लेकर बंगाल के दूरस्थ इलाकों तक राऊरकेला जैसे औघेगिक शहर से ले कर महाराष्ट्र के कोकण क्षेत्र तक प्रत्येक क्षेत्र में औसतन हर रोज दस मरीज अस्पताल पहुंच रहे हैं। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन पहले ही चेता चुका था कि इस साल दिल्ली में डेंगू महामारी बन सकता है। स्थानीय प्रशासन व स्वास्थ्य विभाग इंतजार कर रहा है कि कुछ ठंड पड़े तो समस्या अपने आप समाप्त हो जाए।
Peoples samachar 225-9-15 |
अखबारों व विभिन्न प्रचार माध्यमों में भले ही खूब विज्ञापन दिख रहे हों, लेकिन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के हर शहर-गांव, कालोनी में डेंगू के मरीजों की बाढ़ अस्पतालोें की ओर आ रही है। गाजियाबाद जैसे जिलों के अस्पताल तो बुखार-पीड़ितों से पटे पड़े हैं। अब तो इतना खौफ है कि साधारण बुखार का मरीज भी बीस-पच्चीस हजार रूपए दिए बगैर अस्पताल से बाहर नहीं आ रहा है। डॉक्टर जो दवाएं दे रहे हैं उनका असर भगवान-भरोसे है। वहीं डेंगू के मच्छरों से निबटने के लिए दी जा रही दवाएं उलटे उन मच्छरों को ताकतवर बना रही हैं। डेंगू फैलाने वाले ‘एडिस’ मच्छर सन 1953 में अफ्रीका से भारत आए थे। उस समय कोई साढ़े सात करोड़ लोगों को मलेरिया वाला डेंगू हुआ था , जिससे हजारों मौतें हुई थीं। अफ्रीका में इस बुखार को डेंगी कहते हैं। यह तीन प्रकार का होता है। एक वह, जोकि चार-पांच दिनों में अपने आप ठीक हो जाता है, लेकिन इसके बाद मरीज को महीनों तक बेहद कमजोरी रहती है। दूसरे किस्म में मरीज को हेमरेज हो जाता है, जो उसकी मौत का कारण भी बनता है। तीसरे किस्म के डेंगू में हेमरेज के साथ-साथ रोगी का ब्लड प्रेशर बहुत कम हो जाता है, इतना कि उसके मल -द्वार से खून आने लगता है व उसे बचाना मुश्किल हो जाता है। विशेषज्ञों के मुताबिक डेंगू के वायरस भी चार तरह के होते हैं- सीरो-1,2, 3 और 4। यदि किसी मरीज को इनमें से किन्हीं दो तरह के वायरस लग जाएं तो उसकी मौत लगभग तय होती है। ऐसे मरीजों के शरीर पर पहले लाल- लाल दाने पड़ जाते हैं। इसे बचाने के लिए शरीर के पूरे खून को बदलना पड़ता है। सनद रहे कि डेंगू से पीड़ित मरीज को 104 से 107 डिग्री बुखार आता है। इतना तेज बुखार मरीज की मौत का पर्याप्त कारण हो सकता है। डेंगू का पता लगाने के लिए मरीज के खून की जांच करवाई जाती है, जिसकी रिपोर्ट आने में भी दो-तीन दिन लगते हैं। तब तक मरीज की हालत लाइलाज हो जाती है। यदि इस बीच गलती से भी बुखार उतारने की कोई उलटी-सीधी दवा मरीज को दे दी जाए तो उसकी तबीयत और अधिक बिगड़ जाती है। भारतीय उपमहाद्वीप में मच्छरों की मार बढ़ने का बड़ा कारण यहां बढ़ रहे दलदली क्षेत्र को कहा जा रहा है। थार के रेगिस्तान की इंदिरा गांधी नहर और ऐसी ही सिंचाई परियोजनाओं के कारण दलदली क्षेत्र तेजी से बढ़ा है। इन दलदलों में नहरों का साफ पानी भर जाता है और यही ‘एडीस’ मच्छर का आश्रय-स्थल बनते हैं। ठीक यही हालात देश के महानगरों की है जहां, थोड़ी सी बारिश के बाद सड़कें भर जाती हैं। ब्रिटिश गवरमेंट पब्लिक हेल्थ लेबोरेट्री सर्विस(पीएचएलसी) की एक अप्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के गरम होने के कारण भी डेंगूरूपी मलेरिया प्रचंड रूप धारण कर सकता है। जलवायु विशेषज्ञों का कहना है कि गरम और उमस भरा मौसम, खतरनाक और बीमारियों को फैलाने वाले कीटाणुओं और विषाणुओं के लिए संवाहक जीवन-स्थिति का निर्माण कर रहे हैं। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि एशिया में तापमान की अधिकता और अप्रवाही पानी के कारण मलेरिया के परजीवियों को फलनेफू लने का अनुकूल माहौल मिल रहा है। बहरहाल डेंगू के मरीज बढ़ रहे हैं और नगर निगम के कर्मचारी घर-घर जाकर मच्छर के लार्वा चैक करने की औपचारिकता निभा रहे हैं। सरकारी लाल बस्तों में दर्ज है कि हर साल करोड़ों रूपए के डीडीटी, बीएचसी, गेमैक्सिन, वीटेकस और वेटनोवेट पाउडर का छिड़काव हर मुहल्ले में हो रहा है, ताकि डेंगू फैलाने वाले मच्छर ना पनप सकें । हकीकत तो यह है कि मच्छर इन दवाओं को खा-खा कर और अधिक खतरनाक हो चुके हैं। यदि किसी कीट को एक ही दवा लगातार दी जाए तो वह कुछ ही दिनों में स्वयं को उसके अनुरूप ढ़ाल लेता है। हालात इतने बुरे हैं कि ‘पाईलेथाम’और ‘मेलाथियान’ दवाएं फिलहाल तो मच्छरों पर कारगर हैं, लेकिन दो-तीन साल में ही ये मच्छरों को और जहरीला बनाने वाली हो जाएंगी। भले की देश के मच्छरों ने अपनी खुराक बदल दी हो, लेकिन अभी भी हमारा स्वास्थ्य -तंत्र ‘‘क्लोरोक्वीन’’ पर ही निर्भर है। हालांकि यह नए किस्म के मलेरिया यानी डेंगू पर पूरी तरह अप्रभावी है। डेंगू के इलाज में ‘प्राइमाक्वीन’ कुछ हद तक सटीक है, लेकिन इसका इस्तेमाल तभी संभव है, जब रोगी के शरीर में ‘‘जी-6 पी.डी.’’नामक एंजाइम की कमी ना हो। यह दवा रोगी के यकृत में मौजूद परजीवियों का सफाया कर देती है। विदित हो कि एंजाइम परीक्षण की सुविधा देश के कई जिला मुख्यालयों पर भी उपलब्ध नहीं है, अत: इस दवा के इस्तेमाल से डॉक्टर भी परहेज करते हैं। इसके अलावा ‘क्वीनाईन’ नामक एक महंगी दवा भी उपलब्ध है, लेकिन इसकी कीमत आम मरीज की पहुंच के बाहर है। जहां देश का चिकित्सा तंत्र आंख बंद कर एड्स जैसी अंतरराष्ट्रीय प्रायोजित बीमारियों के पीछे भाग रहा है, वहीं मच्छर जैसा साधारण कीट हमारी ही दवाएं खा कर अधिक ताकत के साथ हमले कर रहा है। यह मान लेना चाहिए कि डेंगू से निबटने के लिए सारे साल तैयारी करनी होगी और प्रयास यह करना होगा कि यह बीमारी कम से कम लोगों को अपनी गिरμत में ले। अब डेंगू का मच्छर रात में भी काटने लगा है। कुल मिला कर मच्छर और उससे फैल रहे रोगों से निबटने की सरकारी रणनीति ही दोषपूर्ण है। हम मच्छर को पनपने दे रहे हैं, फिर उसे मारने के लिए दवा का इंतजाम तलाश रहे हैं। उसके बाद जब मरीज आते है। तो उनकी तिमारदारी की व्यवस्था होती है। जबकि जरूरत इस बात की है कि मच्छरों की पैदावार रोकने, उनकी प्रतिरोध क्षमता का आकलन कर नई दवाएं तैयार करने का काम त्वरित गति और प्राथमिकता से होना चाहिए। इसके बाद लोगों को जागरूक बनाने तथा इलाज की व्यवस्था को मजबूत करने की जरूरत है।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं।)
पंकज चतुर्वेदी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें