बढ़ते कार्बन उत्सजर्न में हमारा आश्वासन
देश में कार्बन उत्सजर्न की मौजूदा मात्र को 33 से 35 फीसदी तक घटाने की चुनौती बहुत बड़ी है।
HINDUSTAN 5-10-15 |
भारत ने तो संयुक्त राष्ट्र को आश्वस्त कर दिया कि 2030 तक हमारा देश कार्बन उत्सर्जन की मौजूदा मात्र को 33 से 35 फीसदी घटा देगा। लेकिन असल समस्या उन देशों के साथ है, जो मशीनी विकास और आधुनिकीकरण के चक्क्र में पूरी दुनिया को कार्बन उत्सर्जन का दमघोंटू बक्सा बनाए दे रहे हैं। भारत में अब भी बड़ी संख्या में ऐसे परिवार हैं, जो खाना पकाने के लिए लकड़ी या कोयले के चूल्हे इस्तेमाल कर रहे हैं, सो अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां परंपरागत ईंधन के बहाने भारत पर दबाव बनाती हैं, जबकि विकसित देशों में कार्बन उत्सर्जन के अन्य कारण ज्यादा घातक हैं। वायुमंडल में सभी गैसों की मात्र तय है और 750 अरब टन कार्बन कार्बन डाई-ऑक्साइड के रूप में वातावरण में मौजूद है। कार्बन की मात्र बढ़ने के साथ ही धरती के गरम होने का खतरा बढ़ जाता है। दुनिया में अमेरिका सबसे ज्यादा 1,03,30,000 किलो टन कार्बन उत्सर्जित करता है, जो वहां की आबादी के अनुसार प्रति व्यक्ति 17.4 टन है। उसके बाद कनाडा प्रति व्यक्ति 15.7 टन, फिर रूस 12.6 टन। जापान, जर्मनी, दक्षिण कोरिया आदि औद्योगिक देशो में भी कार्बन उत्सर्जन 10 टन प्रति व्यक्ति से ज्यादा है। इनकी तुलना में भारत महज प्रति व्यक्ति 1.7 टन कार्बन उत्सर्जित करता है। अनुमान है कि यह 2030 तक तीन गुणा, यानी अधिकतम पांच टन तक जा सकता है। लेकिन भारत नदियों का देश है, वह भी अधिकांश ऐसी नदियां, जो पहाड़ों पर बर्फ के पिघलने से बनती हैं, सो हमें इसे हरसंभव कम करने के कदम उठाने ही होंगे।इसके लिए हमें एक तो स्वच्छ ईंधन को बढ़ावा देना होगा। हमारे देश में ईंधन गैस की कमी नहीं है। हां, इसे लोगों तक पहुंचाने का नेटवर्क बनाना और सबको गैस उपलब्ध करवाना बड़ी चुनौती है। कार्बन उत्सर्जन घटाने में सबसे बड़ी बाधा वाहनों की बढ़ती संख्या, मिलावटी पेट्रो पदार्थो की बिक्री, घटिया सड़कें व ऑटो पार्ट्स के अलावा यातायात जाम की समस्या है। कचरे का बढ़ता ढेर और उसके निपटान की माकूल व्यवस्था न होना भी एक बड़ी बाधा है। अभी तक यह मान्यता रही है कि पेड़ कार्बन डाई-ऑक्साइड को सोखकर ऑक्सीजन में बदलते रहते हैं। सो, जंगल बढ़ने से कार्बन का असर कम होगा। यह आंशिक तथ्य है। कार्बन डाई-ऑक्साइड पेड़ों की वृद्धि में भी सहायक होती है। लेकिन यह तभी संभव होता है, जब पेड़ों को नाइट्रोजन सहित सभी पोषक तत्व सही मात्र में मिलते रहें। खेतों में बेशुमार रसायनों के इस्तेमाल से बारिश का बहता पानी कई गैर-जरूरी तत्वों को लेकर जंगलों में पेड़ों तक पहुंचाता है और इससे वहां की जमीन में मौजूद नैसर्गिक तत्वों का गणित गड़बड़ा जाता है। ऐसी बहुत सारी समस्याएं हैं, जिनके समाधान हमें जल्द ही खोजने होंगे, संयुक्त राष्ट्र को हमने जो आश्वासन दिया है, उसे पूरा करने के लिए यह जरूरी है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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