My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2015

International natural diesaster reduction day, 13 October 2015 : special on drought http://hindi.indiawaterportal.org/node/50133

पारम्परिक प्रणालियाँ सक्षम हैं सूखे से निबटने में

इंटरनेशनल नेचुरल डिजास्टर रिडक्शन दिवस, 13 अक्टूबर 2015 पर विशेष


.अब देश से मानसून के बादल विदा हो गए हैं और यह तय है कि भारत का बड़ा हिस्सा सूखा, पानी की कमी और पलायन से जूझने जा रहा है।

बुन्देलखण्ड में तो सैंकड़ों गाँव वीरान होने शुरू भी हो गए हैं। एक सरकारी आँकड़े के मुताबिक देश के लगभग सभी हिस्सों में बड़े जल संचयन स्थलों (जलाशयों) में पिछले साल की तुलना में कम पानी है। बुवाई तो कम हुई है ही।

यही नहीं ऐसे भी इलाके सूखा-सम्भावित की सूची में हैं जहाँ जुलाई के आखिरी दिनों में बाढ़ आ गई थी और उससे भी खेत-सम्पत्ति को नुकसान हुआ था। लगता है यह कहावत गलत नहीं है कि आषाढ़ में जो बरस गया वह ठीक है, सावन-भादो रीते जाएँगे।

सवाल उठता है कि हमारा विज्ञान मंगल पर तो पानी खोज रहा है लेकिन जब कायनात छप्पर फाड़कर पानी देती है उसे सारे साल सहेज कर रखने की तकनीक नहीं। हालांकि हम अभागे हैं कि हमने अपने पुरखों से मिली ऐसे सभी ज्ञान को खुद ही बिसरा दिया।

जरा गौर करें कि यदि पानी की कमी से लोग पलायन करते तो हमारे राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके तो कभी के वीरान हो जाने चाहिए थे, लेकिन वहाँ रंग, लोक, स्वाद, मस्ती, पर्व सभी कुछ है। क्योंकि वहाँ के पुश्तैनी बाशिन्दे कम पानी से बेहतर जीवन जीना जानते थे।

यह आम अदमी भी देख सकता है कि जब एक महीने की बारिश में हमारे भण्डार पूरे भर कर झलकने लगे तो यदि इससे ज्यादा पानी बरसा तो वह बर्बाद ही होगा। फिर भी वर्षा के दिनों में पानी ना बरसे तो लोक व सरकार दोनों ही चिन्तित हो जाते हैं।

यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि ‘औसत से कम’ पानी बरसा या बरसेगा, अब क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिये त्राहि-त्राहि करती है। जो किसान अभी ज्यादा और असमय बारिश की मार से उबर नहीं पाया था, उसके लिये एक नई चिन्ता!

उधर कम बरसात की आशंका होते ही दाल, सब्जी, व अन्य उत्पादों के दाम बाजार में आसमानी हो गए। अभी तक उस अनाज को उगाने वालों को आँकड़ों में दिखाए गए करोड़ों-करोड़ के मुआवजे से एक छदाम भी नहीं मिला है और व्यापारी पर सम्भावित कम बारिश की आमद बढ़ गई।

यह कोई सोच ही नहीं रहा है कि क्या कम बारिश से खेती प्रभावित होगी? या पीने के पानी का संकट होगा या फिर अर्थव्यवस्था में जीडीपी का आँकड़ा गड़बड़ाएगा।

केन्द्र से लेकर राज्य व जिला से लेकर पंचायत तक इस बात का हिसाब-किताब बनानेे में लग गए हैं कि यदि कम बारिश हुई तो राहत कार्य के लिये कितना व कैसे बजट होगा। असल में इस बात को लोग नजरअन्दाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ कम बारिश भी हो और प्रबन्धन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है।

जरा मौसम महकमे की घोषणा के बाद उपजे आतंक की हकीक़त जानने के लिये देश की जल-कुंडली भी बाँच ली जाये। भारत में दुनिया की कुल ज़मीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है।

हमें हर साल बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1122 घन मीटर पानी ही काम आता है। जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं।

हाँ, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी माँगने वाले सोयाबीन व अन्य कैश क्रॉप (नकदी फसल) ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है।

इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थोड़ा भी कम पानी बरसने पर किसान रोता दिखता है। देश के उत्तरी हिस्से में नदियो में पानी का अस्सी फीसदी जून से सितम्बर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में यह आँकड़ा 90 प्रतिशत का है। जाहिर है कि शेष आठ महीनों में पानी की जुगाड़ ना तो बारिश से होती है और ना ही नदियों से।

भारत की अर्थव्यवस्था का आधार खेती-किसानी है। हमारी लगभग तीन-चौथाई खेती बारिश के भरोसे है। जिस साल बादल कम बरसे, आम-आदमी के जीवन का पहिया जैसे पटरी से नीचे उतर जाता है।

एक बार गाड़ी नीचे उतरी तो उसे अपनी पुरानी गति पाने में कई-कई साल लग जाते हैं। मौसम विज्ञान के मुताबिक किसी इलाके की औसत बारिश से यदि 19 फीसदी से भी कम हो तो इसे ‘अनावृष्टि’ कहते हैं। लेकिन जब बारिश इतनी कम हो कि उसकी माप औसत बारिश से 19 फीसदी से भी नीचे रह जाये तो इसको ‘सूखे’ के हालात कहते हैं।

एक बात जानना जरूरी है कि खाद्यान्नों के उत्पादन में कमी और देश में खाद्यान्न की कमी में भारी अन्तर है। यदि देश के पूरे हालात को गम्भीरता से देखा जाये तो हमारे बफर स्टाक में आने वाले तीन सालों का अन्न भरा हुआ है।

यह बात दीगर है कि लापरवाह भण्डारण, भ्रष्टाचारी के श्राप से ग्रस्त वितरण और गैर व्यावसायिक प्रबन्धन के चलते भले ही खेतों में अनाज पर्याप्त हो, हमारे यहाँ कुपोषण व भूख से मौत होती ही रहती हैं। जाहिर है कि इन समस्याओं के लिये इंद्र की कम कृपा की बात करने वाले असल में अपनी नाकामियों का ठीकरा ऊपर वाले पर फोड़ देते हैं।

भारत की अर्थव्यवस्था का आधार खेती-किसानी है। हमारी लगभग तीन-चौथाई खेती बारिश के भरोसे है। जिस साल बादल कम बरसे, आम-आदमी के जीवन का पहिया जैसे पटरी से नीचे उतर जाता है। एक बार गाड़ी नीचे उतरी तो उसे अपनी पुरानी गति पाने में कई-कई साल लग जाते हैं। मौसम विज्ञान के मुताबिक किसी इलाके की औसत बारिश से यदि 19 फीसदी से भी कम हो तो इसे ‘अनावृष्टि’ कहते हैं। लेकिन जब बारिश इतनी कम हो कि उसकी माप औसत बारिश से 19 फीसदी से भी नीचे रह जाये तो इसको ‘सूखे’ के हालात कहते हैं। असल में हमने पानी को लेकर अपनी आदतें खराब कीं। जब कुएँ से रस्सी डाल कर पानी खींचना होता था या चापाकल चलाकर पानी भरना होता था तो जितनी जरूरत होती थी, उतना ही जल उलीचा जाता था। घर में टोंटी वाले नल लगने और उसके बाद बिजली या डीजल पम्प से चलने वाले ट्यूबवेल लगने के बाद तो एक गिलास पानी के लिये बटन दबाते ही दो बाल्टी पानी बर्बाद करने में हमारी आत्मा नहीं काँपती है।

हमारी परम्परा पानी की हर बूँद को स्थानीय स्तर पर सहेजने, नदियों के प्राकृतिक मार्ग में बाँध, रेत निकालने, मलबा डालने, कूड़ा मिलाने जैसी गतिविधियों से बचकर, पारम्परिक जल स्रोतों- तालाब, कुएँ, बावड़ी आदि के हालात सुधार कर, एक महीने की बारिश के साथ साल भर के पानी की कमी से जूझने की रही है। अब कस्बाई लोग बीस रुपए में एक लीटर पानी खरीद कर पीने में संकोच नहीं करते हैं तो समाज का बड़ा वर्ग पानी के अभाव में कई बार शौच व स्नान से भी वंचित रह जाता है।

सूखे के कारण ज़मीन के कड़े होने, या बंजर होने, खेती में सिंचाई की कमी, रोज़गार घटने व पलायन, मवेशियों के लिये चारे या पानी की कमी जैसे संकट उभरते हैं। यहाँ जानना जरूरी है कि भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है जो कि दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है।

यह बात दीगर है कि हम हमारे यहाँ बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं। शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में जाकर मिल जाता है और बेकार हो जाता है। गुजरात के जूनागढ़, भावनगर, अमेरली और राजकोट के 100 गाँवों ने पानी की आत्मनिर्भरता का गुर खुद ही सीखा।

विछियावाड़ा गाँव के लोगों ने डेढ़ लाख व कुछ दिन की मेहनत के साथ 12 रोक बाँध बनाए व एक ही बारिश में 300 एकड़ ज़मीन सींचने के लिये पर्याप्त पानी जुटा लिया। इतने में एक नलकूप भी नहीं लगता।

ऐसे ही प्रयोग मध्य प्रदेश में झाबुआ व देवास में भी हुए। यदि तलाशने चलें तो कर्नाटक से लेकर असम तक और बिहार से लेकर बस्तर तक ऐसे हजारों-हजार सफल प्रयोग सामने आ जाते हैं, जिनमें स्थानीय स्तर पर लोगों ने सुखाड़ को मात दी है। तो ऐसे छोटे प्रयास पूरे देश में करने में कहीं कोई दिक्कत तो होना नहीं चाहिए।

खेती या बागान की घड़ा प्रणाली हमारी परम्परा का वह पारसमणि है जो कम-से-कम बारिश में भी सोना उगा सकता है। बस जमीन में गहराई में मिट्टी का घड़ा दबाना होता है। उसके आसपास कम्पोस्ट, नीम की खाद आदि डाल दें तो बाग में खाद व रासायनिक दवा का खर्च बच जाता है।

घड़े का मुँह खुला ऊपर छोड़ देते हैं व उसमें पानी भर देते हैं। इस तरह एक घड़े के पानी से एक महीने तक पाँच पौधों को सहजता से नमी मिलती है। जबकि नहर या ट्यूबवेल से इतने के लिये सौ लीटर से कम पानी नहीं लगेगा। ऐसी ही कई पारम्परिक प्रणालियाँ हमारे लोक जीवन में उपलब्ध हैं और वे सभी कम पानी में शानदार जीवन के सूत्र हैं।

कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस एक तो हर साल, हर महीने इस बात के लिये तैयारी करना होगा कि पानी की कमी है। दूसरा ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्षा से जुड़ी परेशानियों के निराकरण के लिये सूखे का इन्तजार करने के बनिस्बत इसे नियमित कार्य मानना होगा।

कम पानी में उगने वाली फसलें, कम-से-कम रसायन का इस्तेमाल, पारम्परिक जल संरक्षण प्रणालियों को जिलाना, ग्राम स्तर पर विकास व खेती की योजना तैयार करना आदि ऐसे प्रयास है जो सूखे पर भारी पड़ेंगे।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...