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रविवार, 1 नवंबर 2015

Hiamlaya ecology wants glacior development authority


ग्लैशियर विकास प्राधिकरण का गठन हो

                                                                                                                                                               पंकज चतुर्वेदी


वरिष्ठ पत्रकार 
Lokmat samachar 1-11-15
ग्लो बल वार्मिंग या धरती का गरम होना, कार्बन उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन और इसके दुष्परिणाम स्वरूप स्वयं धरती के शीतलीकरण का काम कर रहे ग्लेशियरों पर आ रहे भयंकर संकट व उसके कारण समूची धरती के अस्तित्व के खतरे की बातें अब महज कुछ पर्यावरण-विशेषज्ञों तक सीमित नहीं रह गई हैं. इसका विर्मश बच्चों की पाठ्यपुस्तकों तक में है. कहा जा रहा है कि जल्द ही हिमालय के ग्लेशियर पिघल जाएंगे, जिसके चलते नदियों में पानी बढे.गा और उसके परिणामस्वरूप जहां एक तरफ कई नगर-गांव जलमग्न हो जाएंगे, वहीं धरती के बढ.ते तापमान को थामने वाली छतरी के नष्ट होने से भयानक सूखा, बाढ. व गरमी पडे.गी और जाहिर है कि ऐसे हालात में मानव-जीवन पर भी संकट होगा. 
हिमालय पर्वत के उत्तराख्ांड वाले हिस्से में छोटे-बडे. कोई 1439 ग्लेशियर हैं. राज्य के कुल क्षेत्रफल का बीस फीसदी इन बर्फ-शिलाओं से आच्छादित है. इन ग्लेशियर से निकलने वाला जल पूरे देश की खेती, पेयजल, उद्योग, बिजली, पर्यटन आदि के लिए जीवनदायी स्रोत है. जाहिर है कि ग्लेशियर के साथ हुई कोई भी छेड.छाड. पूरे देश के पर्यावरणीय, सामाजिक, आर्थिक और सामरिक संकट का कारक बन सकती है. इसीलिए सन् 2010 में उत्तरांचल के तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल 'निशंक' ने राज्य में 'स्नो एंड ग्लेशियर प्राधिकरण' के गठन की पहल की थी. उन्होंने इसरो यानी इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाईजेशन के निर्देशन में स्नो एंड अवेलांश स्टडीज इस्टेब्लिशमेंट, चंडीगढ. व देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालय स्टडीज के सहयोग से ऐसे प्राधिकरण के गठन की प्रक्रिया भी प्रारंभ कर दी थी. दुर्भाग्य से वे उसके बाद कुछ ही दिन मुख्यमंत्री रहे व अगले मुख्यमंत्री ने इस महत्वाकांक्षी परियोजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया. 
हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों पर बर्फ के वे विशाल पिंड जो कि कम-से-कम तीन फुट मोटे व दो किलोमीटर तक लंबे हों, हिमनद, हिमानी या ग्लेशियर कहलाते हैं. ये अपने ही भार के कारण नीचे की ओर सरकते रहते हैं. इनकी गति बेहद धीमी होती है, चौबीस घंटे में बामुश्किल चार या पांच इंच.
कोई एक दशक पहले जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय पैनल (आईपीसीसी) ने दावा किया कि धरती के बढ.ते तापमान के चलते संभव है कि सन् 2035 तक हिमालय के ग्लेशियरों का नामोनिशान मिट जाए. उदाहरण के तौर पर कश्मीर के कौलहाई हिमनद के आंकडे. देकर बताया गया कि वह एक साल में 20 मीटर सिकुड. गया, जबकि एक अन्य छोटा ग्लेशियर लुप्त हो गया. ठीक इसके विपरीत फ्रांस की एक संस्था ने उपग्रह चित्रों के माध्यम से यह सिद्ध कर दिया है कि हिमालय के ग्लेशियरों पर ग्लोबल वार्मिंग का कोई खास असर नहीं पड.ा है. 
इसमें कोई शक नहीं कि ग्लेशियर हमारे लिए उतने ही जरूरी हैं जितना साफ हवा या पानी, लेकिन यह भी सच है कि अभी तक हम ग्लेशियर की दुनिया के अनंत सत्यों को पहचान ही नहीं पाए हैं. कुछ वैज्ञानिकों का तो यह भी कहना है कि गंगा-जमुना जैसी नदी के जनक ग्लेशियरों की गहराई में स्फटिक जैसी ऐसी संरचनाएं हैं जो सामान्य तापमान में भी लंबे समय तक स्वच्छ पानी का स्रोत हैं. ग्लेशियर हमारे देश के अस्तित्व की पहचान हैं और कुछ देश इस संरचना के रहस्यों को जानने में रुचि केवल इसलिए रखते हैं ताकि भारत की किसी कमजोर कड.ी को तैयार किया जा सके. इसी फिराक में ग्लोबल वार्मिंग व ग्लेशियर पिघलने के शोर होते हैं और ऐसे में शोध के नाम पर अन्य हित साधने का भी अंदेशा बना हुआ है. ऐसे अंतर्विरोधों व आशंकाओं के निर्मूलन का एक ही तरीका है कि राज्य में ग्लेशियर अध्ययन के लिए सर्वसुविधा व अधिकार संपन्न प्राधिकारण का गठन किया जाए जिसका संचालन केंद्र के हाथों में हो. ल्ल■ हिमालय पर्वत के उत्तराख्ांड वाले हिस्से में छोटे-बडे. कोई 1439 ग्लेशियर हैं. राज्य के कुल क्षेत्रफल का बीस फीसदी इन बर्फ-शिलाओं से आच्छादित है.

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