पानीदार बुंदेलखंड से प्यास के कारण पलायन
AMAR UJALA 17-11-15 |
मध्यप्रदेश की सरकार ने अभी पांच जिलों की 33 तहसीलों को सूखग्रस्त घोषित कर दिया है जिसमें बुंदेलखंड के टीकमगढ़ जिले की सभी तहसीलें हैं। टीकमगढ जिले के जतारा ब्लाक के जल संसाधन विभाग के तहत आने वाले 26 तालबों में अभी एक फुट पानी भी नहीं है। छतरपुर के हालात भी बदतर हैं।लेकिन हालात छतरपुर व पन्ना के भी कम खतरनाक नहीं है।। गांव-गांव में हैंडपंप सूख गए हैं और कस्बों में पानी के लिए आए रोज झगड़े हो रहे हैं। टीकमगढ़ जिले के आधे से ज्यादा गांव वीरान हो गए है। तो रेलवे स्टेशन से सटे कस्बों- खजुराहो, हरपालपुर, मउरानीपुर, बीना आदि के प्लेटफार्म पूरी गृहस्थी पोटली में बांधे हजारों लोगों से पटे पड़े हैं जो पानी के अभाव में गांव छोड़कर पेट पालने के लिए दिल्ली, पंजाब या लखनउ जा रहे हैं। आमतौर पर ऐसा पलायन दीवाली के बाद होता था, लेकिन इस बार खाली पेट व सूखा गला दोनो ने ही मजबूर कर दिया, अपने पुष्तैनी गांव-घरों से दूर दीवाली के दीये जलाने को। आषाढ़ में जो बरसा बस वही था, लगभग पूरा सावन-भादौ निकल गया है और जो छिटपुट बारिष हुई है, उसने बुंदेलखंड फिर से अकाल -सूखा की और जाता दिख रहा है। यहां सामान्य बारिष का तीस फीसदी भी नहीं बरसा, तीन-चैथाई खेत बुवाई से ही रह गए और कोई पैतीस फीसदी ग्रामीण अपनी पोटलियां ले कर दिल्ली-पंजाब की ओर काम की तलाष में निकल गए हैं। मनरेगा में काम करने वाले मजदूर मिल नहीं रहे है। ग्राम पंचायतों को पिछले छह महीने से किए गए कामों का पैसा नहीं मिला है सो नए काम नहीं हो रहे हैं। सियासतदां इंतजार कर रहे हैं कि कब लोगेंा के पेट से उफन रही भूख-प्यास की आग भड़के और उस पर वे सियासत की हांडी खदबदाएं। हालांकि बुंदेलखंड के लिए यह अप्रत्याषित कतई नहीं है, बीते कई सदियों से यहां हर पांच साल में दो बार अल्प वर्शा होती ही है। गांव का अनपढ़ भले ही इसे जानता हो, लेकिन हमारा पढ़ा-लिखा समाज इस सामाजिक गणित को या तो समझता नहीं है या फिर नासमझाी का फरेब करता है, ताकि हालात बिगड़ने पर ज्यादा बजट की जुगाड़ हो सके। ईमानदारी से तो देश का नेतृत्व बुंदेलखंड की असली समस्या को समझ ही नहीं पा रहे है।
एक स्वयंसेवी संस्था ने पल्स पोलियो व कई ऐसी ही सरकारी संस्थाओं के आंकडज्ञत्रें का विष्लेेशण किया तो पाया कि बीते एक दशक में मप्र व उप्र के बुंदेलखंड के 13 जिलों से 63 लाख से ज्यादा लेाग रोजगार व पानी की कमी से हताश हो कर अपने घर-गांव छोड़ कर सुदूर नगरों को पलायन कर चुके है।। आज बुंदेलखंड के अधिकांश गांवों में केवल बूढे या अक्ष्म लोग ही मिलेंगे। पिछली केंद्र सरकार ने बुंदेलख्ंाड पैकज के नाम पर साढे सात हजार करोड से ज्यादा की राषि दी थी। इसमें जल संसाधन विकसित करने, रोजगार की संभावना बनाने आदि के कार्य थे। दुर्भाग्य से यह पूरा पैसा कुछ जेबों में चला गया व आम बुंदेलखंडी मजदूरी करने को पलायन के विकल्प पर ही मजबूर रहा। उल्ल्ेखनीय है कि गत 10 सालों के दौरान यहां 3500 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। मरने वाले किसान फसल बर्बाद होने, कर्जा ना चुका पाने से निराष थे।
बुंदेलखंड की असली समस्या अल्प वर्शा नहीं है, वह तो यहां सदियों, पीढि़यों से होता रहा है। पहले यहां के बाषिंदे कम पानी में जीवन जीना जानते थे। आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल-प्रबंधन तंत्र नश्ट हो गए और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे षब्दों ने ले ली। अब सूखा भले ही जनता पर भारी पड़ता हो, लेकिन राहत का इंतजार सभी को होता है- अफसरों, नेताओं-- सभी को। इलाके में पानी के पारंपरिक स्त्रोतों का संरक्षण व पानी की बर्बादी को रोकना, लोगो को पलायन के लिए मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देना; महज ये तीन उपचार बुंदेलखंड की तकदीर बदल सकते हैं।
बुंदेलखंड में हीरा से ले कर ग्रेनाईट तक जमीन से उलीचा जाता है, लेकिन उससे जुड़े कोई कारखाने यहां नहीं हैं। जंगल तेंदू पत्ता, आंवला से पटे पड़े हैं, लेकिन इसका लाभ स्थानीय लोगों को नहीं मिलता हैं । दिल्ली, लखनऊ और उससे भी आगे पंजाब तक जितने भी बड़े निर्माण कार्य चल रहे हैं उसमें अधिकांश में ‘‘ गारा-गुम्मा’’(मिट्टी और ईंट)का काम बुंदेलखंडी मजदूर ही करते हैं । शोषण, पलायन और भुखमरी को वे अपनी नियति समझते हैं । जबकि खदानों व अन्य करों के माध्यम से बुंदेलखंड सरकारों को अपेक्ष से अधिक कर उगाह कर देता हैं, लेकिन इलाके के विकास के लिए इस कर का 20 फीसदी भी यहां खर्च नहीं होता हैं ।
बुंदेलखंड के सभी कस्बे, षहर की बसाहट का एक ही पैटर्न रहा है - चारों ओर उंचे-उंचे पहाड, पहाड़ की तलहटी में दर्जनों छोटे-बड़े ताल-तलैयां और उनके किनारों पर बस्ती। टीकमगढ़ जैसे जिले में अभी तीन दषक पहले तक हजार से ज्यादा तालाब थे। पक्के घाटों वाले हरियाली से घिरे व विशाल तालाब बुंदेलखड के हर गांव- कस्बे की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे । ये तालाब भी इस तरह थे कि एक तालाब के पूरा भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था, यानी बारिष की एक-एक बूंद संरक्षित हो जाती थी। उपेक्षा के षिकार शहरी तालाबों को कंक्रीट के जंगल निगल गए । रहे -बचे तालाब शहरांे की गंदगी को ढोनेे वाले नाबदान बन गए । गांवों की अर्थ व्यवस्था का आधार कहलाने वाले चंदेलकालीन तालाब सामंती मानसिकता के शिकार हो गए । आज के अत्याधुनिक सुविधा संपन्न भूवैज्ञानिकों की सरकारी रिपोर्ट के नतीजों को बुंदेलखंड के बुजुर्गवार सदियों पहले जानते थे कि यहां की ग्रेनाईट संरचना के कारण भूगर्भ जल का प्रयोग असफल रहेगा । तभी हजार साल पहले चंदेलकाल में यहां की हर पहाड़ी के बहाव की ओर तालाब तो बनाए गए, ताकि बारिश का अधिक से अधिक पानी उनमें एकत्र हो, साथ ही तालाब की पाल पर कुंए भी खोदे गए । लेकिन तालाबों से दूर या अपने घर-आंगन में कुंआ खोदने से यहां परहेज होता रहा ।
गत् दो दशकों के दौरान भूगर्भ जल को रिचार्ज करने वाले तालाबों को उजाड़ना और अधिक से अधिक टयूब वेल, हैंडपंपों को रोपना ताबड़तोड़ रहा । सो जल त्रासदी का भीषण रूप तो उभरना ही था । साथ ही साथ नलकूप लगाने में सरकार द्वारा खर्च अरबों रूपये भी पानी में गए । क्योंकि इस क्षेत्र में लगे आधेेेेेेे से अधिक हैंडपंप अब महज ‘शो-पीस’ बनकर रह गए हैं । साथ ही जल स्तर कई मीटर नीचे होता जा रहा है । इससे खेतों की तो दूर, कंठ तर करने के लिए पानी का टोटा हो गया है ।
पलायन, यहां के सामाजिक विग्रह का चरम रूप है । मनरेगा भी यहां कारर नहीं रहा है। स्थानीय स्तर पर रोजगार की संभावनाएं बढ़ाने के साथ-साथ गरीबों का षेाशण रोक कर इस पलायन को रोकना बेहद जरूरी है। यह क्षेत्र जल संकट से निबटने के लिए तो स्वयं समर्थ है, जरूरत इस बात की है कि यहां की भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनजर परियोजनाएं तैयार की जाएं । विशेषकर यहां के पारंपरिक जल स्त्रोतों का भव्य अतीत स्वरूप फिर से लौटाया जाए । यदि पानी को सहेजने व उपभोग की पुश्तैनी प्रणालियों को स्थानीय लोगों की भागीदारी से संचालित किया जाए तो बुंदेलखंड का गला कभी रीता नहीं रहेगा ।
यदि बंुदेलखंड के बारे में ईमानदारी से काम करना है तो सबसे पहले यहां के तालाबों का संरक्षण, उनसे अतिक्रमण हटाना, तालाब को सरकार के बनिस्पत समाज की संपत्ति घोशित करना सबसे जरूरी है। नारों और वादों से हट कर इसके लिए ग्रामीण स्तर पर तकनीकी समझ वाले लोगों के साथ स्थाई संगठन बनाने होंगे। दूसरा इलाके पहाड़ों को अवैध खनन से बचाना, पहाड़ों से बह कर आने वाले पानी को तालाब तक निर्बाध पहंुचाने के लिए उसके रास्ते में आए अवरोधों, अतिक्रमणों को हटाना जरूरी है। बुंदेलखंड में केन, केल, धसान जैसी गहरी नदियां हैं जो एक तो उथली हो गई हैं, दूसरा उनका पानी सीधे यमुना जैसी नदियों में जा रहा है। इन नदियों पर छोटे-छोटे बांध बांध कर पानी रोका जा सकता है। हां, केन-धसान नदियों को जोड़ने की अरबों रूपए की योजना पर फिर से विचार भी करना होगा, क्योंकि इस जोड़ से बंुदेलखंड घाटे में रहेगा। सबसे बड़ी बात, स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय लोगों की निर्भरता बढ़ानी होगी।
कुछ जगह हो सकता है कि राहत कार्य चलें, हैंडपंप भी रोपे जाएं, लेकिन हर तीन साल में आने वाले सूखे से निबटने के दीर्घकालीन उपायों के नाम पर सरकार की योजनाएं कंगाल ही नजर आती है। । स्थानीय संसाधनों तथा जनता की क्षमता-वृद्धि, कम पानी की फसलों को बढ़ावा, व्यर्थ जल का संरक्षण जैसे उपायों को ईमानदारी से लागू करे बगैर इस शौर्य-भूमि का तकदीर बदलना नामुमकिन ही है ।
9891928376
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें