यह तो जान लें कि उनकी जरूरत क्या है ?
पंकज चतुर्वेदीयुद्ध हो, भूकंप या बाढ़ या आतंकवादी हमला, भारत के नागरिकों की खासियत है कि ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण अवसरों पर उनके हाथ मदद व सहयेाग के लिए हर समय खुले रहते हैं। छोटे-छोटे गांव-कस्बे तक आम लोंगो ंसे इमदाद जुटाने के कैंप लग जाते हैं, गली-गली लोग झोली फैला कर घूमते हैं, अखबारों में फोटो छपते हैं कि मदद के ट्रक रवाना किऐ गए। फिर कुछ दिनों बाद आपदा ग्रस्त इलाकों के स्थानीय व राज्य प्रषासन की लानत-मनानत करने वाली खबरें भी छपती हैं कि राहत सामग्री लावारिस पड़ी रही व जरूरतमंदों तक पहुंची ही नहीं। हो सकता है कि कुछ जगह ऐसी कोताही भी होती हो, हकीकत तो यह है कि आम लोगों को यही पता नहीं होता है कि किस आपदा में किस समय किस तरह की मदद की जरूरत है। अब तमिलनाडु, विषेशकर चैन्नई के जल प्लावन को ही लें, देषभर में कपड़ा-अनाज जोड़ा जा रहा है, और दीगर वस्तुएं जुटाई जा रही हैं, पैसा भी। भले ही उनकी भावना अच्छी हो लेकिन यह जानने का कोई प्रयास नहीं कर रहा है कि आज वहां तत्काल किस चीज की जरूरत हैं और आने वाले महीनों या साल में कब क्या अनिवार्य होगा।
चैन्नई व उसके आसपास के जिलों के जालाब लबालब हैं, एक तरफ बारिष नहीं थम रही है तो दूसरी ओर सीमा से अधिक हो चुके बांधों के दरवाजे खोलने पड़ रहे हैं। कई हजार वर्ग किलोमीटर का इलाका ऐसा है जहां बीते एक महीने से पानी भरा हुआ है। जब बारिष रूकती है तो उन गलियों-मुहल्लें में भरे पानी को निकालना, कीचड़ हटाना, मरे जानवरों व इंसानों का निस्तारण करना और सफाई करना सबसे बड़ा काम है। इसके लिए तत्काल जरूरत है पानी के बड़े पंपों की, जेसीबी मषीन, टिप्पर व डंपर की, इंधन की, गेती-फावड़ा दस्ताने, गम बूट की। जब तक गंदगी, मलवा, पानी हटेगा नहीं, तब तक जीवन को फिर से पटरी पर लाना मुष्किल है। यह भी तय है कि किसी भी सरकारी सिस्टम में इतनी भारी व महंगी मषीने तत्काल खरीदना संभव नहीं होता। यदि समाज के लोग इस तरह के औजार-उपकरण खरीद कर राज्य सरकार को भेंट दें तो पुनर्वास कार्य सही दिषा में चल पाएंगे।
चालीस दिन से पानी में फंसे लेागों के लिए भोजन तो जरूरी है ही और उसकी व्यवस्था स्थानीय सरकार व कई जन संगठन कर रहे हैं , लेकिन इस बात पर कम ध्यान है कि वहां पीने के लिए साफ पानी की बहुत कमी है। आसपास एकत्र पानी बदबूदार है , षहर के सभी वाटर ट्रीटमेंट प्लांट बंद पड़े हैं और यदि ऐसे में गंदा पानी पिया तो हैजा फैलने का खतरा है। वहां लाखों बोतल पेयजल की रोज की मांग के साथ-साथ तो बगैर बिजली वाले फिल्टर, बड़े आरओ, बैटरी, इन्वर्टर व आम लोगों के लिए मोमबत्तियां व माचिस की वहां बेहद जरूरत है। कारण, वहां बिजली की सप्लाई सामान्य करने में बहुत से अडंगे हैं। बिजली के तार खंभे, इंस्लेटर व उसे स्थापित करने वाला स्टाफ .... महीनों का काम है। ऐसे में छोटे जनरेटर, इन्वर्टर, बेहद महत्वपूर्ण हैं।
ऐसा नहीं है कि बड़ी व्यवस्थाएं जुटाने के लिए आम , पीडि़त लोगों का ध्यान ही नहीं रखा जाए। इन लोगों के लिए पीने के पानी की बोतलें, डेटाल, फिनाईल, नेफथेलीन की गोलियां, क्लोरिन की गोलियां, पेट में संक्रमण, बुखार जैसी बीमारियों की दवाएं, ग्लूकोज पाउडर, सेलाईन, औरतो के लिए सेनेटरी नेपकीन, फिलहाल तत्काल जरूरत की चीजें हैं। अब यदि आम लोग अपने घर के पुराने ऊनी कपडों की गठरियां या गेंहू चावल वहां भेजेेंगे तो तत्काल उसका इस्तेमाल हो नहीं पाएगा। तमिलनाडु में इतना जाड़ा कभी होता नहीं कि ऊनी कपड़े पहनने की नौबत आए। इसकी जगह वहां चादर, हल्के कंबल भेजे जाएं तो तत्काल उपयोग हो सकता है। वरना भेजे गए बंडल लावारिस सड़ते रहेंगे और हरी झंडे दिखा कर फोटो खिंचाने वाले लोग हल्ला करते रहेंगे कि मेहनत से जुटाई गई राहत सामग्री राज्य सरकार इस्तेमाल नहीं कर पाई। यदि हकीकत में ही कोई कुछ भेजना चाहता है तो सीमेंट, लोहा जैसी निर्माण सामग्री के ट्रक भेजने के संकल्प लेना होगा।
चैन्नई की निचली बस्तियों में ढाई लाख लोग अपने घर से विस्थापित हुए हैं। वहां के बाजार बह गए हैं। वाहन नश्ट हो गए हैं। ऐसे में हुए जान-माल के नुकसान के बीमा दावों का तत्काल व सही निबटारा एक बड़ी राहत होता है। चूंंिक राज्य सरकार का बिखरा-लुटा-पिटा अमला अभी खुद को ही संभालने में लगा है और वहां इससे उपज रहे असंतोश को भुनाने में हुरियत के कतिपय षैतान नेता चालें चल रहे हैं। हुए नुकसान के आकलन, दावों को प्रस्तुत करना, बीमा कंपनियों परत त्काल भुगतान के लिए दवाब बनाने आदि कार्यों के लिए बहुत से पढ़े-लिखें लोगों की वहां जरूरत है। ऐसे लोगों की भी जरूरत है जो दूर दराज में हुए माल-असबाब के नुकसान की सूचना, सही मूल्यांकन को सरकार तक पहुंचा सकें व यह सुनिष्चित करंे कि केंद या राज्य सरकार की किन योजनाआंे का लाभ उन्हें मिल सकता है।
एक महीने के भीतर जब हालात कुछ सुध्रेंगे तो स्कूल व षिक्षा की याद आएगी और तब पता चलेगा कि सैलाब में स्कूल, बच्चों के बस्ते, किताबें सब कुछ बह गया है। इस समय कोई साठ हजार बच्चों को बस्ते, कापी-किताबों, पैंसिल, पुस्तकों की जरूरत है। इस बार क्रिसमस में सांता के तोहफो में हर घर से यदि एक-एक बच्चे के लिए बस्ता, कंपास, टिटिन बाक्स, वाटर बोटल, पांच नोट बुक, पेन-पैंसिल का सैट वहां चला जा तो तमिलनाडु के सात जिलों के भविश्य के सामने छाया धुंधलका छंटने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। वहां की पाठ्य पुस्तकों को फिर से छपवाना पड़ेगा, ब्लेक बोर्ड व फर्नीचर बनावाना पड़ेगा, । इसके लिए राज्य के छोटे-छोटे क्लस्टर में , मुहल्लों में संस्थागत या निजी तौर पर बच्चों के लिए काम करने की जरूरत है। इसके साथ उनके पौश्टिक आहार के लिए बिस्किट, सूखे मेवे जैसे खराब ना होने वाले भोज्य पदार्थ की मांग वहां है।
यदि आवष्यकता के अनुरूप दान या मदद ना हो तो यह समय व संसाधन दोनेां का नुकसान ही होता है। यह सही है कि हमारे यहां आज तक इस बात पर कोई दिषा निर्देष बनाए ही नहीं गए कि आपदा की स्थिति में किस तरह की तात्कालिक तथा दीर्घकालिक सहयोग की आवष्यकता होती है। असल में यह कोई दान या मदद नहीं है, हम एक मुल्क का नागरिक होने का अपना फर्ज अदा करने के लिए अपने संकटग्रस्त देषवासियों के साथ खड़े होते हैं। ऐसे में यदि हम जरूरत के मुताबिक काम करें तो हमारा सहयोग सार्थक होगा। विभिन्न मौसमी बदलाव व प्रकृति के साथ छेड़छाड़ से यह तो तय है कि आने वाले दिन कई किसम की प्राकृतिक विपदाओं के हैं, ऐसे में जिस तरह आबदा प्रबंधन के लिए अलग से महकमे बनाए गए हैं, वैसे ही ऐसे हालात के लिए जरूरी सामना के दान की सूची व एकत्र करने का काम सारे साल करना चाहिए।
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