पंकज चतुर्वेदी
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जागरण, राष्ट्रीय संस्करण 14-12-15 |
भारत
ने संयुक्त राष्ट्र को आश्वस्त किया है कि वह 2030 तक कार्बन उत्सर्जन की
मौजूदा मात्र को 33 से 35 फीसद तक घटा देगा, लेकिन असल समस्या तो उन देशों
के साथ है जो मशीनी विकास व आधुनिकीकरण के चक्कर में पूरी दुनिया को कार्बन
उत्सर्जन का दमघोंटू बक्सा बना रहे हैं और अपने आर्थिक प्रगति की गति के
मंथर होने के भय से पर्यावरण के साथ हो रहे अन्याय को थामने को राजी नहीं
हैं। पेरिस में संपन्न जलवायु पविर्तन अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान हर
रोज सम्मेलन स्थल के बाहर हजारों लोग इसीलिए प्रदर्शन भी करते रहे कि कथित
विकसित देश अपनी अर्थव्यवस्था के धीरे होने के भय के चलते अपनी औद्योगिक व
ऊर्जा इस्तेमाल पर नियंत्रण कर नहीं रहे हैं और संतुलन स्थापित करने का
जिम्मा उन देशों के सिर डाल रहे हैं जहां विकास की गति अभी तेजी पकड़ना शेष
है। चूंकि भारत में अभी भी बड़ी संख्या में ऐसे परिवार हैं जो खाना पकाने
के लिए लकड़ी या कोयले के चूल्हे इस्तेमाल कर रहे हैं, सो अंतरराष्ट्रीय
एजेंसियां परंपरागत ईंधन के नाम पर भारत पर दबाव बनाती रहती हैं, जबकि
विकसित देशों में कार्बन उत्सर्जन के अन्य कारण ज्यादा घातक हैं। यह तो सभी
जानते हैं कि वायुमंडल में सभी गैसों की मात्र तय है और 750 अरब टन कार्बन
वातावरण में मौजूद है। कार्बन की मात्र बढ़ने का दुष्परिणाम यह है कि
जलवायु परिवर्तन व धरती के गरम होने जैसे प्रकृतिनाशक बदलाव हम ङोल रहे
हैं। कार्बन की मात्र में इजाफा से दुनिया पर तूफान, कीटों के प्रकोप,
सुनामी या ज्वालामुखी जैसे खतरे मंडरा रहे हैं। दुनिया पर तेजाबी बारिश की
संभावना बढ़ने का कारक भी कार्बन की बेलगाम मात्र है। धरती में कार्बन का
बड़ा भंडार जंगलों में हरियाली के बीच है। पेड़ , प्रकाश संष्लेशण के
माध्यम से हर साल कोई सौ अरब टन यानि पांच फीसद कार्बन वातावरण में सोखते
हैं। आज विश्व में अमेरिका सबसे ज्यादा 1,03,30,000 किलो टन कार्बन
उत्सर्जित करता है जो वहां की आबादी के अनुसार प्रति व्यक्ति 7.4 टन है।
उसके बाद कनाड़ा प्रति व्यक्ति 15.7 टन, फिर रूस 12.6 टन हैं। जापान,
जर्मनी, दक्षिण कोरिया आदि औद्योगिक देशो में भी कार्बन उत्सर्जन 10 टन
प्रति व्यक्ति से ज्यादा ही है। इसकी तुलना में भारत महज 20 लाख सबर हजार
किलो टन या प्रति व्यक्ति महज 1.7 टन कार्बन उत्सर्जित करता है। इसमें कोई
शक नहीं कि प्राकृतिक आपदाएं देशों की भौगोलिक सीमाएं देखकर तो हमला करती
नहीं हैं। चूंकि भारत नदियों का देश है, वह भी अधिकांश ऐसी नदियां जो
पहाड़ों पर बरफ पिघलने से बनती हैं, इसिलए हमें हरसंभव प्रयास करने ही
चाहिए। प्रकृति में कार्बन की मात्र बढ़ने का प्रमुख कारण है बिजली की
बढ़ती खपत। दरअसल ज्यादातर बिजली जीवाश्म ईंधन से बनती है। ईंधनों के जलने
से कार्बन डाइऑक्साइड निकलता है। हम जितनी ज्यादा बिजली का इस्तेमाल
करेंगे, बिजली के उत्पादन के लिए उतने ही ज्यादा ईंधन की खपत होगी और उससे
उतना ही ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होगा। फिर धरती पर बढ़ती आबादी
और उसके द्वारा पेट भरने के लिए उपभेाग किया गया अन्न भी कार्बन बढ़ोतरी
का एक बड़ा कारण है। खासकर तब जब हम तैयार खाद्य पदार्थ खाते हैं या फिर हम
ऐसे पदार्थ खाते हैं जिनका उत्पादन स्थानीय तौर पर नहीं हुआ हो। कार्बन
उत्सर्जन की मात्र कम करने के लिए हमें स्वच्छ ईंधन को बढ़ावा देना होगा।
हमारे देश में रसोई गैस की तो कमी है नहीं, हां सिलेंडर बनाने के लिए जरूरी
स्टील, सिलेंडर वितरण के लिए आंचलिक क्षेत्रों तक नेटवर्क को विकसित करना
और गरीब लोगों को बेहद कम दाम पर गैस उपलक्ध करवाना एक बड़ी चुनौती है।
कार्बन उत्सर्जन घटाने में सबसे बड़ी बाधा वाहनों की बढ़ती संख्या, मिलावटी
पेट्रो पदाथोर्ं की बिक्री, घटिया सड़कें, ऑटो पार्ट्स की बिक्री व छोटे
कस्बों तक यातायात जाम होने की समस्या है। देश में बढ़ता कचरे का ढेर व
उसके निबटान की माकूल व्यवस्था न होना भी कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण में एक
बड़ी बाधा है। सनद रहे कि कूड़ा जब सड़ता है तो उससे बड़ी मात्र में मीथेन,
कार्बन व गैसें निकल कर वायुमंडल में कार्बन के घनत्व को बढ़ाती हैं। साथ
ही बड़े बांध, सिंचाई नहरों के कारण भी बढ़ते दलदल के कारण कार्बन की मात्र
बढ़ती है। अभी तक मान्यता रही है कि पेड़ कार्बन को सोख कर आक्सीजन में
बदलते है, लेकिन यह तभी संभव होता है जब पेड़ों को नाइट्रोजन सहित सभी पोषक
तत्व सही मात्र में मिलते रहें।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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