ना अदालत की परवाह है ना जनता की चिंता
पंकज चतुर्वेदी
पिछले दिनों हरियाणा में आरक्षण की मांग को लकर हुए आंदोलन की आड़ में कतिपय असामाजिक तत्वों ने जो कुछ किया , वह असल में देशद्रोह का बेहद गंभीर स्वरूप है। बीस से ज्यादा थाने लूट लिए गए, जिसमें कई सौ एक 47 जैसे हथयार मय कारतूस के लूटे गए। कई हजार करोड़ की सार्वजनिक व निजी संपत्ति फूंक दी गई। अनगिनत ट्रेन व बसें एक सप्ताह तक बंद रहे । जनजीवन को ठप करने के इस कार्य को नाम दे दिया आंदोलन का। इन दिनों विवाह के नाम पर सड़कें जाम हैं तो कोई धार्मिक या सियासती रैली-जलसे निकाल रहा है तो कोई बारात तो कोई धरना-प्रदर्षन । सनद रहे पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के दो माननीय न्यायाधीषों की पीठ ने केंद्र सरकार को तीन हफ्ते का समय देते हुए आए रोज रास्ते रोकने वालों के खिलाफ ठोस कार्यवाही सुनिष्चित करने के लिए कहा था। अदालत ने यह भी कहा था कि रेल-रास्ता रोकने की अपील करने वालों के खिलाफ अनिवार्य अभियोजन हो और तीन महीने के भीतर ऐस प्रकरणों का निबटारा भी हो। कभी तन को झुलसा देने वाली गरमी तो कभी कड़ाके की ठंड; किसी को अस्पताल पहुंचने की अनिवार्यता तो किसी की नौकरी का इंटरव्यू, - इन सबसे लापरवाह ना जाने कब कौन किन मांगों को ले कर सड़क घेर कर खड़ा हो ।
ऐसा नहीं कि अदालतों ने ऐसे बंद- प्रदर्षनों पर पहली बार नाखुषी जताई हो, और सरकार ने उसको गंभीरता से नहीं लिया हो । विडंबना है कि ऐसे कृत्य करने वालों को ना तो नैतिकता की चिंता है और ना ही वैधानिकता की । कथित आंदोलनकारियों को भड़का कर यह अनैतिक काम करने के लिए उकसाने वाले लोग विधानसभा व अन्य सदनांे के सदस्य हैं और उन्हें मालूम है कि इस तरह से जनता को परेषान करेन के अलावा कुछ हाथ नहीं लगेगा। हो सकता है कि उनकी मांग जायज भी हो, लेकिन अपनी मांग के समर्थन में उठाए गए कदम ना तो आम आदमी को जायज लग रहे हैं, और ना ही यह किसी देश के लोकतांत्रिक ढ़ांचे के लिए स्वस्थ परंपरा है। क्या जनता का प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले यह नहीं जानते हैं कि इस तरह का बंद ना केवल गैरकानूनी है,बल्कि इसके दूरगामी परिणाम जनता के विरेाध में ही हैं।
लोकतंत्र में निर्णय जनता के हाथों होता है, इसका यह मतलब कतई नहीं है कि लोकतंत्र जनता के हाथों में खेलता है। चुनाव वह समय होता है जब जनता अपनी अपेक्षाओं पर खरा ना उतरने वालों को कुर्सी से नीचे उतार फैंकती है। लेकिन आज हालात तो अराजकता की ओर इशारा कर रहे हैं, अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए सड़क पर आ जाओ, जाम कर दो, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाओ, प्रशासन तंत्र को बंधक बनाओ। लगभग अपहरणकर्ताओं की तर्ज पर अपनी मांगें मनवाने के लिए दूसरों की असुविधा, कानून की सीमा या फिर विधि की प्रक्रिया को नजरअंदाज किया जाए। वे जन-प्रतिनिध जिन्हे जनता विभिन्न सदनों में इस उम्मीद से चुन कर भेजती है कि वे उनकी दिक्कतों को दूर करने के कानून बनाएंगे; सदन में तो वे चुप बैठे रहते हैं या जाते ही नहीं हैं और झूठी सहानुभूति दिखाने के लिए सड़कों पर उधम करते हैं। जबकि वे भी जानते हैं कि जिन नीतियों, कानूनों के कारण कीमतें बढ़ रही हैं, उन्हें सदन में पास करवाने में उनकी भी समान भागीदारी रही है।
सन 1997 में ही केरल हाईकोर्ट एक मामले में आदेष दे चुकी थी कि इस तरह के बंद- हुड़दंग अवैध होते हैं। पिछले दिनों ही बंबई हाईकोर्ट सन 2004 में भाजपा-षिवसेना द्वारा आयोजित बंद के मामले में सख्त आदेष दिए कि धरना-प्रदर्षन के दौरान यदि अधिकारी अदालत द्वारा निर्धारित दिषा-निर्देषों का पालन करवाने में असफल रहते हैं तो उन्हें भी अदालत की अवमानना का दोश करार दिया जा सकता है। न्यायमूर्ति बिलाल नाजकी और वीके ताहिलरमानी की बैंच ने बंद-धरने के बारे में जारी दिषा-निर्देषों में स्पश्ट किया है कि किसी भी बंद का आव्हान करने पर उस नेता की पूरी जिम्मेदारी होगी। नेता को जनता के जीवन और संपत्ति की क्षति के लिए मुआवजा देना होगा। कोर्ट ने सड़क पर आम लोगों की आवाजाही निरापद रखने के भी निर्देष दिए। इससे पहले कोलकता, मद्रास और दिल्ली की अदालतें भी समय-समय पर ऐसे आदेष देती रही है। लेकिन नेता हैं कि मानते ही नहीं है। अधिकांष मामलेंा में पुलिस और प्रषासन भी हालात बिगड़ने का इंतजार करता रहता है।
सरकारी आंकड़े गवाह हैं कि हमारे देश में हर साल सड़केां पर हंगामें की 56 हजार छोटी-बड़ी घटनाएं होती हैं। इनकी चपेट में आ कर कोई पचास हजार वाहन बर्बाद हो जाते हैं, जिनमें 10 हजार बस या ट्रक होते हैं। अकेले दिल्ली में सालभर में 100 से अधिक तोड़-फोड़, उधम की घटनाएं दर्ज की जाती हैं। इस प्रकार के रोज-रोज के ंबद, धरने, प्रदर्शन, जाम से आम आदमी आजिज आ चुका है। इन अराजकताओं के कारण समय पर इलाज ना मिल पाने के कारण मौत होने, परीक्षा छूट जाने, नौकरी का इंटरव्यू ना दे पाने जैसे किस्से अब आम हो चुके हैं और सरकार इतने गंभीर विषय पर संवेदनहीन बनी हुई है। सड़क रोकने, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने,सार्वजनिक रूप से हंगामा करने को गैरकानूनी व अवैधानिक ठहराने वाली कई धाराएं व उन पर कड़ी सजा के प्रावधान हमारी दंड संहिता में हैं, लेकिन जब कानून बनाने वाले निर्वाचित प्रतिनिधि संसद व विधान सभाओं मे ही ऐसी सड़क-छाप हरकतें करते हैं तो सड़क वालों को यह करने से कौन रोकेगा?
पुलिस का काम कानून-व्यवस्था बनाए रखना है,पुलिस का काम सुचारू यातायात बनाए रखना है , इसके लिए वह वेतन लेती है, जनता की गाढ़ी कमाई से निकले टैक्सों से यह वेतन दिया जाता है। लेकिन जब पच्चीस-पचास लोग नारे लगाते हुए चैराहों पर लेट जाते है। तो पुलिस मूक दर्शक बनी रहती है, इंतजार करती है, लंबे ट्राफिक जाम का या फिर स्थिति बिगउ़ने का और उसके बाइद अपनी चरम-कार्यवाही यानी बल प्रयोग पर उतारू हो जाती है। साफ दिखता है कि पुलिस का प्रशिक्षण ऐसे हालातों से निबटने के नाम पर शून्य है, वह अभी भी अंग्रेजों की नीति-‘‘ पहले हालात बिगड़ने दो और फिर उसे संभालने का श्रम करो’’ पर चल रही है। भीड़ के जमा होने से रोकना, आम लोगों के जनजीवन केा नुकसान पहुचाने वाले लोगों पर कड़ी कार्यवाही करना, गुप्तचर सूचनाओं के आधार पर उपद्रवियों के इरादे भांपना और उसके अनुसार ‘प्रिवेंटिव’ कार्यवाही करना जैसे पुलिस भूल ही चुकी है। यह भी विंडबना है कि पचास से अधिक सशस्त्र पुलिस वालों की मौजूदगी में सौ लोगों की भीड़ सड़क पर कोहराम काटती है और इसकी जिम्मेदारी तय कर किसी भी पुलिस अफसर पर कार्यवाही करने का कोई रिकार्ड देशभर की पुलिस के पास नहीं हैं।
अब समय आ गया है कि देश के विकास में व्यवधान बनी ऐसी हरकतों को सख्ती से रोका जाए। रेल, राष्ट्रीय राजमार्ग पर चक्का जाम करने वालों पर सख्त सजा और आर्थिक दंड के प्रावधान वाला कानून बनना जरूरी है। जो लेाग वीडियो रिकार्डिंग में सड़क जाम करते दिखें उन्हें प्रथम द्श्टया दोशी मान कर चुनाव लड़ने, सरकरी अस्पताल में इलाज करवाने जैसे कुछ कार्यो से रोका जाए । जिन जगहों पर जाम या अराजकता के हालात बने, वहां के अफसरों को इसका जिम्मेदार माना जाना चाहिए, आखिर वे इसी बात का वेतन लेते हैं। दिल्ली और प्रत्येक शहर में धरना, प्रदर्शन आदि के लिए आबादी से दूर कोई स्थान तय करने, उस स्थान पर लोगों की आवाज सुनने वाले सक्षम अफसरान की बहाली करना जैसे कदम भी आज समय की मांग हैं।
यह तभी संभव है जब राजनेताओं की प्रबल इच्छा-शक्ति उनके छोटे-छोटे स्वार्थों पर भारी पड़ेगी। पुलिस को उस मजबूरी से ऊपर उठना होगा कि भीड़ पर कोई कार्यवाही करना संभव नहीं होता है। आज बेहतरीन इलेक्ट्रानिक डिवाइस मौजूद है जो हजारों की भीड़ में से उत्पातियों की पहचान कर सकती है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि सड़कों पर उधम, उत्पात, जाम, कोहराम देश की प्रगति के सबसे बड़े दुश्मन हैं और इनको समर्थन देने वाला देश के खिलाफ काम कर रहा है। और ऐसे लेागों को आंदोलनकारी या भीड का हिस्सा मान कर छोड देना अब नासूर बनता जा रहा है। बिजली, पानी या पुलिस या हर तरह की दिक्कत का हल सडक रोककर तलाषने वालों को चुनाव लड़ने से रोकने जैसे पाबंदी लगाना समय की मांग है। ऐसे मामलों में वीडियो रिकार्डिंग को पर्याप्त सबूत मान कर मामले का संज्ञान लेना होगा।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद, गाजियाबाद 201005
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