raj express 23.5.16 |
पंकज चतुर्वेदी
संयुक्त राश्ट्र की वैष्विक र्प्यावरण पूर्वानुमान कमेटी ने एक बार फिर चेतावनी दी है कि जिस तरह से धरती का तापमान बढ़ रहा है उससे सन 2050 तक समु्रद के किनारे बसे दुनिया के दस षहरों में तबाही आ सकती है। इसमें भारत के मुंबई, कोलकाता जैसे षहरों पर भी गंभीर खतरा बताया गया है। अनियोजित विकास,बढ़ती आबादी और जलवायु परिवर्तन के चलते समुद्र में पानी की मात्रा बढ़ेगी और इस विस्तार से तटों पर बसे षहर तबाह हो सकते हैं। हालांकि यह कोई नई या पहली बार दीग ई चेतावनी नहीं है। फरवरी 1981 में रायल स्विस सोसायटी के तत्वावधान में स्टोकहोम में संपन्न एक गोश्ठी में कार्बन डाय आक्साईड की बढ़ती मात्रा पर चिंता व्यक्त की गई थी। हां बस उस गोश्ठी में यह तथ्य सामने आया था कि कार्बन की मात्रा बढ़ने का फायदा भारत सहित एषिया के कई देषें व अफ्रीकी दुनिया को होगा। विडंबना है कि अत्याधुनिक मषीनों, कार्बन उर्जा के अंधाधुंध इस्तेमाल से दुनिया का मिजाज बिगाड़ने वाले पष्चिमी देष अब भारत व तीसरी दुनिया के देषें पर दवाब बना रहे हैं कि धरती को बचाने के लिए कार्बन उत्सर्जन कम करकें। हालांकि आज भी भारत जैसे देषें में इसकी मात्रा कम ही है।
Rashtriy sahara 26-5-16 |
धरती में कार्बन का बड़ा भंडार जंगलों में हरियाली के बीच है। पेड़ , प्रकाष संष्लेशण के माध्यम से हर साल कोई सौ अरब टन यानि पांच फीसदी कार्बन वातावरण में पुनर्चक्रित करते है। आज विष्व में अमेरिका सबसे ज्यादा 1,03,30,000 किलो टन कार्बन डाय आक्साईड उत्सर्जित करता है जो कि वहां की आबादी के अनुसार प्रति व्यक्ति 7.4 टन है। उसके बाद कनाड़ा प्रति व्यक्ति 15.7 टन, फिर रूस 12.6 टन हैं । जापान, जर्मनी, द.कोरिया आदि औद्योगिक देषो में भी कार्बन उत्सर्जन 10 टन प्रति व्यक्ति से ज्यादा ही है। इसकी तुलना में भारत महज 20 लाख सत्तर हजार किलो टन या प्रति व्यक्ति महज 1.7 टन कार्बन डाय आक्साईड ही उत्सर्जित करता है। अनुमान है कि यह 203 तक तीन गुणा यानि अधिकतम पांच तक जा सकता है। इसमें कोई षक नहीं कि प्राकृतिक आपदाएं देषों की भौगोलिक सीमाएं देख कर तो हमला करती नहीं हैं। चूंकि भारत नदियों का देष है, वह भी अधिकांष ऐसी नदियां जो पहाड़ों पर बरफ पिघलने से बनती हैं, सो हमें हरसंभव प्रयास करने ही चाहिए। प्रकृति में कार्बन की मात्रा बढने का प्रमुख कारण है बिजली की बढती खपता। सनद रहे हम द्वारा प्रयोग में लाई गई बिजली ज्यादातर जीवाश्म ईंधन (जैसे कोयला, प्राकृतिक गैस और तेल जैसी प्राकृतिक चीजों) से बनती है। इंधनों के जलने से कार्बन डाइऑक्साइड निकलता है। हम जितनी ज्यादा बिजली का इस्तेमाल करेंगे, बिजली के उत्पादन के लिए उतने ही ज्यादा ईंधन की खपत होगी और उससे उतना ही ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होगा। फिर धरती पर बढती आबादी और उसके द्वारा पेट भरने के लिए उपभेग किया गया अन्न भी कार्बन बढौतरी का बड़ा कारण है। खासकर तब जब हम तैयार खाद्य पदार्थ खाते हैं, या फिर हम ऐसे पदार्थ खाते हैं जिनका उत्पादन स्थानीय तौर पर नहीं हुआ हो।
यहां एक बात और गौर करने वाली है कि भले ही पष्चिमी देष इस बात से हमें डरा रहे हों कि जलवायु परिवर्तन से हमारे ग्लेषियर पिघल रहे हैं व इससे हमारी नदियांं के अस्तित्व पर संकट है, लेकिन वास्तविकता में हिमालय के ग्लेषियरों का आकार बढ़ रहा है। हमारे पांच से 10 वर्ग किलोमीटर आकार के किछकुंदन, अख्ताष और च्योंकुंदन के अलावा अन्य सात बगैर नाम वाले ग्लेषियरों का आकार साल दर साल बढ़ रहा है। कोई चार साल पहले तत्कालीन र्प्यावरण मंत्री जयराम रमेष को भी दाल में कुछ काला लगा था और उन्होंने विदेषी धन पर चल रहे षोध के बजाए वीके रैना के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक दल को हिमनदों की हकीकत की पड़ताल का काम सौंपा था। इस दल ने 25 बड़े ग्लेषियरों को लेकर गत 150 साल के आंकड़ों को खंगाला और पाया कि हिमालय में ग्लेषियरों के पीछे खिसकने का सिलसिला काफी पुराना है और बीते कुछ सालों के दौरान इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं देखने को मिला है। पष्चिमी हिमालय की हिंदुकुष और कराकोरम पर्वत श्रंखलाओं के 230 ग्लेषियरों के समूह समस विकसित हो रहे है। पाकिस्तान के के-2 और नंदा पर्वत के हिमनद 1980 से लगातार आगे बढ़ रहे है। जम्मू-कष्मीर के केंग्रिज व डुरंग ग्लेषिर बीते 100 सालों के दौरान अपने स्थान से एक ईंच भी नहीं हिले है।। सन 200 के बाद गंगोत्री के सिकुड़ने की गति भी कम हो गई है। इस दल ने इस आषंका को भी निर्मूल माना था कि जल्द ही ग्लेषियर लुप्त हो जाएगे व भारत में कयामत आ जाएगी। यही नहीं ग्लेषियरों के पिघलने के कारण सनसनी व वाहवाही लूटने वाले आईपीसीसी के दल ने इन निश्कर्शों पर ना तो कोई सफाई दी और ना ही इस का विरोध किया। जम्मू कष्मीर विष्वविद्यालय के प्रो. आरके गंजू ने भी अपने षोध में कहा है कि ग्लेषियरों के पिघलने का कारण धरती का गरम हो ना नहीं हैं। यदि ऐसा होता तो पष्मित्तर पहाड़ों पर कम और पूर्वोत्तर में ज्यदा ग्लेषियर पिघलते, लेकिन हो इसका उलटा रहा है।
इसमें कोई षक नहीं कि ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन और ग्लेषियर हमारे लिए उतने ही जरूरी है जितना साफा हवा या पानी, लेकिन यह भी सच है कि अभी तक हम इन तीनों मसलों के अनंत सत्यों को पहचान ही नहीं पाए है आसैर पूरी तरह पष्चिमी देषों के षोध व चेतावनियों पर आधारित अपनी योजनांए बनाते रहते हैं। ग्लेषियर हमारे देष के अस्तित्व की पहचान हैं और इनका अस्तित्व मौसम के चक्र में आ रहे बदलाव पर काफी कुछ निर्भर है। हमें यह समझना होगा कि कुछ पष्चिमी देष इस अभेद संरचना के रहस्यों को जानने में रूचि केवल इस लिए रखते हैं ताकि भारत की किसी कमजोर कड़ी को तैयार किया जा सके। इसी फिराक में ग्लोबल वार्मिंग व ग्लेषियर पिघलने के षोर होते हैं और ऐसे में षोध के नाम पर अन्य हित साधने का भी अंदेषा बना हुआ है। ऐस अंतरविरोधें व आषंकाओं के निर्मूलन का एक ही तरीका है कि राज्य में ग्लैषियर अध्ययन के लिए सर्वसुविधा व अधिकार संपन्न प्राधिकारण का गठन किया जाए जसिका संचालन केंद्र के हाथों में हो।
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