My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

गुरुवार, 2 जून 2016

controversies on history of school books


किसने हक दिया भविष्य तय करने का

                                                           पंकज चतुर्वेदी
त्रिपुरा की पाठ्य पुस्तकों से आजादी की लड़ाई के नायकों को हटा कर मार्क्स व हिटलर के पाठ जोड़े जा रहे हैं। राजस्थान की पुस्तकों से नेहरूजी के व्यक्तित्व और कृतित्व को हटाने पर विवाद हो रहा है। खबर यह भी थी कि राजस्थान सरकार अपनी स्कूल की पाठ्य पुस्तकों में मोदीजी पर अध्याय देने वाली थीए जिसे स्वयं मोदीजी ने ही रोक दिया। राज्यों में सरकारें बदलें और ऐसे विवाद ना हों घ् ऐसा होता नहीं है। राजनेता अपने वोट बैंक के खातिर स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रमों में बदलाव की बात कर विवाद उपजाते ही रहते हैं । स्कूली शिक्षा यानीए देश की आगामी पीढ़ी की नींव रखने का कार्य ! पाठ्यक्रम का निर्धारण यानी देश के भविश्य का ढ़ंाचा तैयार करना !! पाठ्य पुस्तकें यानी बाल मन को उसके प्रौढ़ जीवन की चुनौतियों से सामना करने का संबल प्रदान करने लायक बौद्धिक खुराक देना ।  जाहिर है कि स्कूली शिक्षा की दिशा व दशा निर्धारित करते समय यदि छोटी सी भूल हो जाए तो देश के भविश्य पर बड़ी समस्या खड़ी हो सकती है ।
यह इतना संवेदनशीलए महत्वपूर्ण और दूरगामी विशय का निर्धारण करने का हक राजनेताओं को किसने दे दिया घ् कहा जा सकता है कि यह निर्धारण तो शिक्षाविदों की कमेटी कर रही है । तो भी देश के करोड़ों.करोड़ लोगों के भाग्य विधात बनने का हक इन दर्जनभर विशेशज्ञों को कैसे प्राप्त हो गया घ् कुछ लोगों के निजी मानदंड और निर्णयों के द्वारा लाखों.लाख लोगों के जीवन को आकार देने की योजना बनाना कहां तक उचित होगा घ् यह विडंबना ही है कि हमारे नेता व बुद्धिजीवी पाठ्यक्रम व उसकी पुस्तकों के मामले में आमतौर पर सुप्तावस्था में ही रहते हैंए हां जब कहीं उनकी निजी आस्था या स्वार्थ पर चोट दिखती है तो वे सक्रिय हो जाते हैं।
इस बात से कोई इंकार नहीं करेगा कि हमारे देश में इन दिनों जो कुछ पढ़ाया जा रहा हैए उसका इस्तेमाल सालाना परीक्षा में अधिक से अधिक नंबर लाने तक ही सीमित रहता है । छात्र के व्यावहारिक जीवन में उस शिक्षा की कोई अनिवार्यता नहीं दिखती है । कहने को तो पाठ्यक्रम के बड़े.बड़े उद्देश्य कागजों पर दर्ज हैं ष् जिसमें कुछ विशयों ; भाशाए गणितए विज्ञान ए इतिहास आदिद्धमें बच्चों को एक स्तर तक निपुणता प्रदान करनाए उनमें नैतिक व सामजिक गुणों का विकास करना आदि प्रमुख हैं । लेकिन यह स्पश्ट नहीं है कि ये उद्देश्य किस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तय किए गए है । आम बच्चों से पूछें या फिर शिक्षकों से भीए वे क्यों पढ़ें घ् तो उत्तर जिस तरह के आएंगे ए वे व्यक्तिगत संपन्नता के उद्देश्य की ओर अधिक झुके दिखते हैं । लेकिन हमारे नीति निर्धारक इस बारे में चुप ही रहते हैं । 
नैतिक व आध्यात्मिक शिक्षाए देश की सांस्कृतिक  धरोहरों के प्रति सम्मान जैसे जुमले भी शिक्षा नीति के दस्तावेज में मिल जाते हैं । लेकिन इसका क्रियान्वयन कैसे होए घ् इस पर कोई पुस्तक या नीति कुछ कहती.सुनती नहीं दिखती है । प्रत्येक श्रमकार्य और व्यक्ति के प्रति सम्मानए आत्म.सम्मान समेतए आत्म.दिशानिर्देशनय सहिष्णुताय सहृदयता एवं हानिरहितप्रवृत्तिय कार्यस्थल एवं अन्यत्र समान लक्ष्यों को पूरा करने के लिए सहयोगय नैतिक बल आदि अपने.आप में लक्ष्य हैं। आत्म.दिशा निर्देशन से कई अन्य वैयक्तिक गुणों या विशिष्टताओं का भी विकास होता हैए जैसेए अपनी बड़ी परियोजनाओं के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धताय न्याय की स्वतंत्रताय आत्म.विश्वासय अपनी समझ। वैयक्तिक समृद्धिए जिसका एक आधुनिक स्वरूप है वैयक्तिक स्वायत्तताए का व्यापक मूल्य कई अन्य बातों पर भी निर्भर करता हैए जैसेए विभिन्न प्रकार के शारीरिक भय की स्थिति में साहस प्रदर्शन का पारंपरिक गुणय भोजनए मद्यपान एवं शारीरिक सुख की पिपासा पर सही नियंत्रणय क्रुद्ध होने की दशा में आत्म नियंत्रणय धैर्य आदिए आदि। इसके बनिस्पत इतिहास किस तरह प्रस्तुत किया जाएए इस पर तलवारें खिंचीं रहती हैं । कोई षक नहीं कि एक ही घटना को दो तरह से प्रस्तुत किया जा सकता है. गुजरात या मुजफ्फर नगर के दंगे हमारी वास्तविकता हैं और इससे हम निगाह नहीं चुरा सकते हैंए ये इतिहास का हिस्सा होंगे । लेकिन यदि इसकी जानकारी बच्चों को देना हो तो इसके दो तरीके होंगे . एक नृशंसताए मारकाट व किसने किस पर किया के लोमहर्शक किस्से । दूसरा तरीका होगा कि दंगों के दौरान सामने आई आपसी सहयोगए मानवीय रिश्तों व सहयोग की घटनाओं का विवरण । ठीक इसी तरह इतिहास को भी लिखा जा सकता है । लेकिन मूल प्रश्न यह है कि इतिहास या भाशा या नैतिक शिक्षा को पढ़ाने का उद्देश्य क्या हो और इसे तय करने का कार्य कुछ लोगों को ही क्यों सौंपा जाए । इसी तरह की नौटंकी भाशा को ले कर होती रहती है। सरकार बदलती हैए किताब लिखवाने की जिम्मेदारी वाले अफसर बदलते हैं तो धीरे से भाशा की पाठ्य पुस्तकों के रचनाकार बदल जाते हैं। कोई यह बताने को तैयार नहीं होता कि  अमुक रचना से भाशा किस तरह समृद्ध होगी। हां! यह जरूर दिख जाता है कि ष्अपना वालाा लेखकश्श् किस तरह से समृद्ध होगा।
भारत एक लोकतांत्रिक देश हैए लोकतंत्र यानी आम सहमति का षासन । फिर शिक्षा की दिशा व दशा तय करने में इस लोकतांत्रिक प्रवृति को क्यों नहीं अपनाया जा रहा है । कुछ नेता कह सकते हैं कि वे लोकतांत्रिक तरीके से चुने हुए हैं और उन्हें इसका हक मिला है । लेकिन वे नेता जानते हैं कि उन्हें व उनकी पार्टी देश की कुल आबादी के बामुश्किल 20 फीसदी लोगों ने चुना है । कुछ शिक्षक या शिक्षाविद कहते हैं कि वे विशेशज्ञ हैं ए उन्होंने अपने जीवन के कई साल इस क्षेत्र में लगा दिए अतः उन्हें पाठ्यक्रम तय करने का हक है । लेकिन यह लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत है . लोकतंत्र में तो प्रत्येक आदमी के वोट की कीमत समान होती हैए वोट अर्थात उसकी राय की । यह राय शिक्षा को ले कर भी हो सकती है । देश की भविश्य क्या हो घ् इस पर राय देने का हक एक रिक्शा चलाने वाले या एक दुकानदार को उतना ही है जितना कि नामचीन शिक्षाविदों व नेताओं को । लोकतंत्र की इस प्राथमिक भावना से देश की जनता को वंचित रख कर कुछ लोगों का अपने निजी अनुभव व ज्ञान को थोपना किसी भी तरह से नैतिक तो नहीं है ।
पिछली एनडीए सरकार के लोगों ने अपने गोपनीय लेखकों से किताबें लिखवाई थीं। सरकार बदली तो एनसीईआरटी  का निजाम बदल गया और नई सरकार उन्हीें पुराने लेखकों से;जिन को वामपंथी कहा जाता हैद्ध नए सिरे से लिखवाने लगी । अब निजाम बदलते ही दीनानाथ बतराए जगमोहन सिंह राजपूत जैसे लोग अपने तरीके की किताबों के लिए सक्रिय हो गए है। इतिहास हो या भूगोलए गणित हो विज्ञान या भाशा य कोई भी विशय अंतिम सत्य की सीमा तक नहीं पहुचा हैए प्रत्येक में षोधए खोज व संशोधनए की गुंजाईश बनी रहती है । विज्ञान की पुस्तकों में जैवविविधताए जल संरक्षणए नैनो टैक्नालाजीए मोबाईल और इंटरनेट जैसे नए विषयों की दरकार हैए जबकि हमारी सरकारी पाठ्य पुस्तकें उसी पुराने ढर्रे पर चल रही हैं। गणित में बुलियन एल्जेबराए सांख्यिीकी में नई खोजंेए स्फेरिकल एस्ट्रानामी जैसे विषयों पर कोई बात करने को राजी नहीं हैं। ये विषय देश की आने वाली पीढ़ी को दिशा देने में सहायक हैं। विवाद और टकराव होते हैं इतिहास और हिंदी या अन्य भाषा की किताबों पर।
 किताब या लेखक भले ही कोई होए पाठ्यक्रम का उद्देश्य व उससे वांछित लक्ष्य तो स्पश्ट होने चाहिए । इसके लिए समाज के विभिन्न वर्गों में व्यापक बहसए विकल्पों की खोज और सर्वसम्मति को प्राप्त किए बगैर शिक्षा के बारे में कोई भी नया ढ़ांचा बनाना ए देश के साथ धोखेबाजी ही है । ब्रिटेनए आस्ट्रेलिया जैसे देशों में स्कूलों के लिए राश्ट्रीय पाठ्यक्रम के उद्देश्य तय करने के लिए पिछले कुछ सालों में आम सहमति के लिए व्यापक बहसए सर्वेक्षण आदि का सहारा लिया गया था । भारत जैेसे मानव संसाधन से संपन्न देश में उन अनुभवों को दुहराने से कौन बचना चाहता है घ् वे लेाग जो कि अपनी विशेशज्ञता से ऊपर किसी को नहीं समझ रहे हैं या वे नेता जिनके स्वार्थ इस तरह के विवादों में निहित हैं ।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद
गाजियाबाद 201005
9891928376ए

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...