विश्व शक्ति बनने के लिए जरूरी है एसएसजी सदस्यता
पंकज चतुर्वेदीदुनियाभर के 48 देशेां के समूह ‘परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह’ (एनएसजी) की सदस्यता के लिए बीते सात साल से प्रयासरत भारत को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की स्वीटजरलैंड यात्रा के दौरान मिले समर्थन से नई उम्मीद जागी है। यह बात भी किसी से छिपी नहीं रह गई है कि जहां अमेरिका इस मसले पर भारत के साथ है तो चीन इस पर खुलेआम विरोध कर रहा है। सनद रहे कि परमाणु उर्जा के जरिये बिजल उत्पादन कर जिस तरह देश-दुनिया को रोशन कि जा सकता है, इस तकनीक के थेाड़ा सा बदलाव कर बनाए गए बंम से यह खूबसूरत दुनिया तबाह भी हो सकती है। चूंकि भारत के पड़ोस में पाकिस्तान ऐसा देश है जिसके पास परमाणु बम बनाने की क्षमता भी है और वहां आतंकवादी व सेना दोनों के पास हर समय इतनी क्षमता रहती है कि वह लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित सरकार को ही पलट दें सो जाहिर है कि पाकिस्तान का परमाणु बम सुरक्षित हाथों में हैं नहीं व इसका सीधा असर भारत पर होता हे। इसी के चलते भारत ने अभी तक अंतरराष्ट्रीय परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत किए नहीं हैं। और फं्रास की बानगी तो सामने है ही कि बगैर अप्रसार संधि पर दस्तखत किए एनएसजी का सदस्य बना जा सकता है।
आगामी नौ जून से दस जून तक एनएसजी की अहम बैठक है, जिसमें भारत की सदस्यता के लिए किए गए आवेदन पर विचार हो सकता है। इसके बाद 24 जून को सिओल में एनएसजी प्लेनरी की बैठक होनी है। इस बैठक में एजेंडे पर चर्चा हो सकती है। जानना जरूरी है कि इस समूह में नए सदस्य के प्रवेश के लिए पुराने सभी सदस्यों की बहुमत से सम्मित होना जरूरी है। गत 25-26 अप्रैल को ही एनएसजी सदस्यता के लिए भारत ने आधिकारिक तौर पर एक प्रस्तुति दी थी जिसमें बताया गया था कि किस तरह भारत परमाणु उर्जा का गैरसैन्य उपयोग के लिए प्रतिबद्ध है तथा देश की बढ़ती उर्जा की जरूरत की पूर्ति के लिए उसे परमाणु बिजली घर के लिए कच्चा माल क्यों चाहिए। यह साजिश थी कि इत्तेफाक पाकिस्तान की प्रस्तुति ठीक भारत की ही तरह थी।
सन 1970 में दुनिया में शंाति व परमाणु युद्ध को रोकने के इरादे से परमाणु अप्रसार संधि प्रारंभ हुई थी जिस पर अभीतक 187 देशों ने सहमति जताई है। इसके तहत देश भविष्य में परमाणु हथियार विकसित नहीं कर सकते, बस गैरसैन्य उद्देश्यों से ही परमाणु उर्जा का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसी के तहत सन 1974 में एनएसजी की स्थापना हुइ थी। ठीक तभी भारत ने पोकरण में धमाका कर दुनिया को चौंका दिया था। जिसके बाद एनएसजी ने भारत को परमाणु सामाग्री की आपूर्ति पर रोक लगा दी थी। फिर मनमोहन सिंह सरकार ने अेमरिका से अपने अच्छे रिश्तों को स्थापित किया और 2005-06 में एनएसजी ने भारत के लिए परमाणु व्यापार के रास्ते खोले थे। लेकिन स्थाई सदस्यता के रास्ते ंमे चीन के साथ-साथ आयरलैंउ, मेक्सिको, स्वीटजरलैंड जैसे देश भी आड़े आते रहे हैं जोकि विश्व शंाति व परमाणु अप्रसार के प्रति बेहद संवेदनशील हैं। इसी साल 24 मई को भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपनी चीन यात्रा के दौरान राष्ट्रपति शी जिनपिंग के सामने यह मसला उठाया था । चीन ने इस पर कोई खास ध्यान नहीं दिया था व कहा था कि भविष्य में इस पर बात करेंगे। ऐसे में स्वीटजरलैंड का समर्थन मायने तो रखता है लेकिन रास्ता इतना सरल नहीं होगा। हालाँकि, एनएसजी की सदस्यता के लिए जो शर्ते होंगी उसको भारत को मंजूर करना होगा, जैसेकि परमाणु परीक्षण न करना आदि । भले ही चीन पाकिस्तान का समर्थन कर रहा हो लेकिन एनएसजी में पाकिस्तान का प्रवेश लगभग असंभव है । सनद रहे कि वहां के सबसे बड़े परमाणु वैज्ञानिक कादिर खां पर तकनीक चोरी व अवैध तरीके से दूसरे देशेां - नार्थ कोरिया व इरान को बेचने जैसे आरोप लग चुके है।।
असल में भारत के पास अपना यूरेनियम का भ्ंाडार है लेकिन उसको परमाणु भट्टी के र्लिए इंधन में बदलने की तकनीक हो या फिर अतिरिक्त यूरेनियम को दूसरे देशेां को बेचने का अधिकार या फिर परमाणु कचरे के निस्तारण के उपाय, यह सबकुछ हमें तभी हांसिल हो सकता है जब हम एनएसजी के सदस्य हों। एनएसजी की सदस्यता मिलने से भारत के लिए परमाणु ऊर्जा के लिए उच्च तकनीक हासिल करने के रास्ते खुल जाएंगे क्योंकि एनएसजी सदस्य के देशों का इन तकनीक के हस्तांतरण पर नियंत्रण रहता है। चूंकि भारत ने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया था, अतः एनजीटी में उसकी सदस्यता खटाई में पड़ी रही है। हालांकि सन 2008 के भारत-अमेरिका के बीच हुए अनुबंध ने दुनिया की कई ऐसी चिंताओं का निवारण कर दिया है जिससे भारत के द्वारा परमाणु बम के इस्तेमाल की संभावना होती। बताया जाता है कि भारत-अमेरिका के बीच हुई संधि में लगभग सभी अप्रसार वाली शर्तों को रखा गया था और इसी लिए आज अमेरिका भारत का सहयोग व समर्थन भी कर रहा है। सनद रहे कि भारत यदि अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करता है तो उसे अपने लंबी दूरी मिसाईल कार्यक्रम और यूरेनियम परिशोधन परियोजनओं को बंद करना होगा। लेकिन पाकिस्तान व चीन जैसे पड़ोसी होने के कारण यह पाबंदी उसकी पुख्ता सुरक्षा व्यवस्था ेमं सेंध की तरह है। यदि इस बार भारत की कूटनीति सफल रहती है तो उर्जा के क्षेत्र में भारत की जरूरतों को पूरा करने का रास्ता खुल जाएगा तथा यह देश को विश्व शत् िबनाने का रास्ता प्रशस्त करेगा।
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