हमारे घर में भी रहता है जानलेवा प्रदूषण
पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकारहिंदुस्तान २९सितम्बर१६ |
प्रदूषण का नाम लेते ही हम वाहनों या कारखानों से निकलने वाले काले धुएं की बात करने लगते हैं, लेकिन घर के भीतर का प्रदूषण यानी ‘इनडोर पॉल्यूशन’ उससे ज्यादा घातक हो सकता है। दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता और बेंगलुरु जैसे शहरों में तो स्थिति और खराब है। यहां जनसंख्या घनत्व ज्यादा है, आवास बेहद सटे हुए हैं और हरियाली कम है। बच्चों के मामले में तो यह और खतरनाक होता जा रहा है। पिछले साल पटेल चेस्ट इंस्टिट्यूट ने पाया कि बढ़ते प्रदूषण के कारण अस्थमा के मरीज लगातार बढ़ रहे हैं। कुछ जगह तो घर के अंदर का प्रदूषण इस खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है कि वहां के 14 प्रतिशत से भी अधिक बच्चे अस्थमा के रोगी बन चुके हैं। राजधानी दिल्ली के इस अध्ययन में सबसे खतरनाक स्थिति शाहदरा की पाई गई। यहां 394 बच्चों में से 14.2 प्रतिशत अस्थमा के शिकार पाए गए।
एक सच यह भी है कि हमने भौतिक सुखों के लिए जो कुछ भी सामान जोड़ा है, उसमें से बहुत-सा समूचे परिवेश के लिए खतरा बन गया है। नए किस्म के कारपेट, फर्नीचर, परदे सभी कुछ बारीक धूल-कणों का संग्रह स्थल बन रहे हैं और यही कण इंसान की सांस की गति में व्यवधान पैदा करते हैं। सफाई और सुगंध के रसायनों व कीटनाशकों के इस्तेमाल भले ही हमें तात्कालिक आनंद या थोड़ी सी सुविधा देते हों, लेकिन इनका फेफड़ों पर बहुत गंभीर असर होता है। इनमें से कुछ एलर्जी पैदा करते हैं, तो कुछ के नन्हे कण हमारे श्वसन तंत्र में जम जाते हैं। इसी तरह हम अपने बर्तनों को साफ करने के लिए आजकल रासायनिक सोप और लिक्विड इस्तेमाल करने लगे हैं, जो बर्तनों से गंदगी तो हटा देते हैं, लेकिन इन रसायनों के अंश उनमें जरूर छूट जाते हैं। फिर यही रसायन भोजन के साथ हमारे पेट में जा पहुंचते हैं। पिछले कुछ साल में हमारे घर से निकलने वाला कूड़ा दस गुना तक बढ़ गया है। खासकर पैकिंग की वह सामग्री, जिसे हम घर से तो निकाल देते हैं, लेकिन वह सदियों तक नष्ट नहीं होती और हमारे घर के आसपास के वातावरण में हमेशा मौजूद रहती है। घर के प्रदूषण को इन सबसे मुक्ति पाकर ही खत्म किया जा सकता है।
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