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रविवार, 11 सितंबर 2016

urban planning needs to be modified as global warming chalanges



राजनीति: नगर नियोजन के नए तकाजे


पिछले दो महीनों के दौरान प्रत्येक महानगर की चकाचौंध और विकास की जमकर पोल खुली।


शहरों में बाढ़ रोकने के लिए पहला काम तो वहां के पारंपरिक जलस्रोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थायी निर्माणों को हटाने का करना होगा। अगर किसी पहाड़ी से पानी नीचे बह कर आ रहा है तो उसका संग्रहण किसी तालाब में ही होगा। विडंबना है कि ऐसे जोहड़-तालाब कंक्रीट के जंगल में खो गए हैं।
राजधानी दिल्ली हो या फिर भोपाल या बंगलुरुया फिर हैदराबाद, पिछले दो महीनों के दौरान प्रत्येक महानगर की चकाचौंध और विकास की जमकर पोल खुली। यह पहली बार नहीं हो रहा है, लगभग हर साल बरसात में होता है या बगैर बरसात के भी हो जाता है। शहर के वाहन थम जाते हैं। यह भी सच है कि जिस तरह जाम में फंसे आम लोग केवल अपने वाहन के निकलने का रास्ता बना कर इस समस्या से मुंह मोड़ लेते हैं, उसी तरह शहरों के लोग ऐसी कोई भी दिक्कत आने पर हल्ला करना भी मुनासिब नहीं समझते, मीडिया जरूर कुछ सक्रिय रहता है और उसके बाद फिर समाज नोन-तेल-लकड़ीमें व्यस्त हो जाता है। शहरीकरण आधुनिकता की हकीकत है और पलायन इसका मूल, लेकिन नियोजित शहरीकरण ही विकास का पैमाना है। गौर करें कि चमकते-दमकते दिल्ली शहर की डेढ़ करोड़ हो रही आबादी में से कोई चालीस फीसद झोपड़-झुग्गियों में रहती है, यहां की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था लचर और अपर्याप्त है। मुंबई या कोलकता के हालात भी इससे कहीं बेहतर नहीं हैं।
आर्थिक उदारीकरण के दौर में जिस तरह खेती-किसानी से लोगों को मोह भांग हुआ और जमीन बेच कर शहरों में मजदूरी करने का चलन बढ़ा है, उससे गांवों का कस्बा बनना, कस्बों का शहर और शहर का महानगर बनने की प्रक्रिया तेज हुई है। विडंबना है कि हर स्तर पर शहरीकरण की एक ही गति-मति रही। पहले आबादी बढ़ी, फिर खेत में अनधिकृत कॉलोनी काट कर या किसी सार्वजनिक पार्क या पहाड़ पर कब्जा कर अधकच्चे, उजड़े-से मकान खड़े हुए। कई दशकों तक न तो नालियां बनीं न सड़क, और धीरे-धीरे इलाका अर्बन-स्लममें बदल गया। लोग रहें कहीं भी, लेकिन उनके रोजगार, यातायात, शिक्षा व स्वास्थ्य-सुविधा का दबाव तो उसीचार दशक पुरानेनियोजित शहर पर पड़ा, जिस पर अनुमान से दस गुना ज्यादा बोझ हो गया है। परिणाम सामने है कि दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता जैसे महानगर ही नहीं, देश के आधे से ज्यादा शहरी क्षेत्र अब बाढ़ की चपेट में हैं।
गौर करने लायक बात यह भी है कि साल में ज्यादा से ज्यादा पच्चीस दिन बरसात के कारण बेहाल हो जाने वाले ये शहरी क्षेत्र पूरे साल में आठ से दस महीने पानी की एक-एक बूंद के लिए तरसते हैं। राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, पटना के एक शोध में सामने आया है कि नदियों के किनारे बसे लगभग सभी शहर अब थोड़ी-सी बरसात में ही दम तोड़ देते हैं। दिक्कत अकेले बाढ़ की नहीं है, इन शहरों की दुरमट मिट्टी में पानी सोखने की क्षमता अच्छी नहीं होती है। चूंकि शहरों में अब गलियों में भी सीमेंट पोत कर आरसीसी सड़कें बनाने का चलन बढ़ गया है और औसतन बीस फीसद जगह ही कच्ची बची है, सो पानी सोखने की प्रक्रिया नदी-तट के करीब की जमीन में तेजी से होती है।
जाहिर है कि ऐसी बस्तियों की उम्र ज्यादा नहीं है और लगातार कमजोर हो रही जमीन पर खड़े कंक्रीट के जंगल किसी छोटे-से भूकम्प से भी ढह सकते हैं। याद करें दिल्ली में यमुना किनारे वाली कई कॉलोनियों के बेसमेंट में अप्रत्याशित पानी आने और ऐसी कुछ इमारतों के गिर जाने की घटनाएं भी हुई हैं। देश की राजधानी दिल्ली के दरवाजे पर खड़े गाजियाबाद में गगनचुंबी इमारतों के नए ठिकाने राजनगर एक्सटेंशन को दूर से देखो तो एक समृद्ध, अत्याधुनिक उपनगरीय विकास का नमूना दिखता है, लेकिन जैसे-जैसे मोहन नगर से उस ओर बढ़ते हैं तो अहसास होने लगता है कि समूचा सुंदर स्थापत्यत एक बदबूदार गंदे नाबदान के किनारे है। जरा और ध्यान से देखें तो साफ हो जाता है कि यह एक भरपूर जीवित नदी का बलात गला घोंट कर कब्जाई जमीन पर किया गया विकास है, जिसकी कीमत फिलहाल तो नदी चुका रही है, लेकिन वह दिन दूर नहीं जब नदी के असामयिक काल कवलित होने का खमियाजा समाज को भी भुगतना होगा। यह दुखद है कि आंध्र प्रदेश जैसे राज्य की नई बन रही राजधानी नदी के जलग्रहण क्षेत्र में बनाई जा रही है और उसका अति बरसात में डूबना तय है।
शहरों में बाढ़ का सबसे बड़ा कारण तो यहां के प्राकृतिक नालों पर अवैध कब्जे, भूमिगत सीवरों की ठीक से सफाई न होना है। लेकिन इससे बड़ा कारण है हर शहर में हर दिन बढ़ते कूड़े का भंडार व उसके निबटान की माकूल व्यवस्था न होना। अकेले दिल्ली में नौ लाख टन कचरा हर दिन बगैर उठाए या बगैर निबटान के सड़कों पर पड़ा रह जाता है। जाहिर है कि बरसात होने पर यही कूड़ा पानी के नाली तक जाने के रास्ते या फिर सीवर के मुंह को बंद करता है। महानगरों में भूमिगत सीवर जल भराव का सबसे बड़ा कारण हैं। जब हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार नहीं सीख पा रहे हैं तो फिर खुले नालों से अपना काम क्यों नहीं चला पा रहे हैं? पोलीथीन, घर से निकलने वाले रसायन और नष्ट न होने वाले कचरे की बढ़ती मात्रा, कुछ ऐसे कारण हैं जो कि गहरे सीवरों के दुश्मन हैं। यदि शहरों में कूड़ा कम करने और उसके निबटारे के कारगर उपाय नहीं हुए तो नालों या सीवर की सफाई के दावे या फिर आरोप बेमानी ही रहेंगे।
एक बात और। बंगलुरुया हैदराबाद या दिल्ली में जिन इलाकों में पानी भरता है अगर वहां की कुछ दशक पुरानी जमीनी संरचना का रिकार्ड उठा कर देखें तो पाएंगे कि वहां पर कभी कोई तालाब, जोहड़ या प्राकृतिक नाला था। अब पानी के प्राकृतिक बहाव के स्थान पर सड़क या कॉलोनी रोपी गई है तो पानी भी तो धरती पर अपने हक की जमीन चाहता है? न मिलने पर वह अपने पुराने स्थानों की ओर रुख करता है। मुंबई में मीठी नदी के उथले होने और सीवर की पचास साल पुरानी व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनने की हकीकत को सरकारें स्वीकार करती रही हैं। बंगलुरु में पारंपरिक तालाबों के मूल स्वरूप में अवांछित छेड़छाड़ को बाढ़ का कारक माना जाता है।
शहरों में बाढ़ रोकने के लिए सबसे पहला काम तो वहां के पारंपरिक जल स्रोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थायी निर्माणों को हटाने का करना होगा। अगर किसी पहाड़ी से पानी नीचे बह कर आ रहा है तो उसका संग्रहण किसी तालाब में ही होगा। विडंबना है कि ऐसे जोहड़-तालाब कंक्रीट के जंगल में खो गए हैं। परिणामत: थोड़ी ही बारिश में पानी कहीं बहने की जगह बहकने लगता है। यदि अब भी समाज संभल जाए और नदियों, नालों, पहाड़ों पर अतिक्रमण की प्रवृत्ति से बचे तो कम से कम उनकी बसी-बसाई गृहस्थी जलप्लावित होने से बच सकती है।
शहरीकरण व वहां बाढ़ की दिक्कतों पर विचार करते समय एक वैश्विक त्रासदी को ध्यान में रखना जरूरी है- जलवायु परिवर्तन। इस बात के लिए हमें तैयार रहना होगा कि वातावरण में बढ़ रहे कार्बन और ग्रीनहाउस गैस प्रभावों के कारण ऋतुओं का चक्र गड़बड़ा रहा है और इसकी दुखद परिणति है- मौसम का चरम उतार-चढ़ाव। गरमी में भयंकर गरमी तो ठंड के दिनों में कभी बेतहाशा जाड़ा तो कभी गरमी का अहसास। बरसात में कभी सुखाड़ तो कभी अचानक आठ से दस सेमी पानी बरस जाना। पिछले साल चेन्नई, उससे पहले कश्मीर और इस साल दिल्ली व हैदराबाद में ऐसे चरम मौसम सड़कों को दरिया बना चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक ताजा रिपोर्ट तो ग्लोबल वार्मिंग के चलते भारत की चार करोड़ आबादी पर खतरा बता रही है। इसमें कहा गया है कि यदि धरती का तापमान ऐसे ही बढ़ा तो समुद्र का जल-स्तर बढ़ेगा और उसके चलते कई शहरों पर डूब का खतरा होगा। यह खतरा महज समुद्र तटों के शहरों पर नहीं होगा, बल्कि उन शहरों को भी डुबा सकता है जो ऐसी नदियों के किनारे हैं जिनका पानी सीधे समुद्र में गिरता है।
अब यह तय है कि आने वाले दिन शहरों के लिए सहज नहीं होंगे, यह भी तय है कि आने वाले दिन शहरीकरण के विस्तार के हैं, तो फिर किया क्या जाए? आम लोग व सरकार कम से कम कचरा फैलाने का संकल्प लें। पॉलीथिन पर तो पूरी तरह पाबंदी लगे। शहरों में अधिक से अधिक खाली जगह यानी कच्ची जमीन हो, ढेर सारे पेड़ हों। शहरों में जिन स्थानों पर पानी भरता है, वहां उसे भूमिगत करने के प्रयास हों। तीसरा प्राकृतिक जलाशयों व नदियों को उनके मूल स्वरूप में रखने तथा उनके जलग्रहण क्षेत्र को किसी भी रूप में निर्माण-मुक्त रखने के प्रयास हों। पेड़ तो वातावरण की गर्मी को नियंत्रित करने और बरसात के पानी को जमीन पर गिर कर मिट्टी काटने से बचाते ही हैं।
इन सब अनुभवों के मद््देनजर नगर नियोजन की नीति और नियम नए सिरे तय करना जरूरी है। शहरी व्यवस्थाएं, रास्ते, यातायात, बसाहटें इस ढंग से हों कि वे बरसाती पानी के निकास में बाधा न बनें। यही नहीं, वर्षाजल को किस तरह जमीन के नीचे पहुंचाया जाए, यह भी सोचना होगा। अभी इसका तनिक खयाल नहीं रखा जाता, चप्पा-चप्पा कंक्रीट से पटा होता है। फिर, भूमिगत जल का भंडार खाली क्यों नहीं होगा। हमारे शहर पानी की मांग तो अधिकाधिक बढ़ाते जा रहे हैं, पर पानी के संरक्षण और संचयन की योजना नहीं बना रहे हैं। अगर वे अब भी नहीं संभले तो बहुत देर हो जाएगी।


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